ईशोपनिषद् और उसका महत्व -विद्या क्या है, कैसी हो एवं क्यों- ३
एकाधिक उपनिषदों में विद्या और अविद्या विषय पर चर्चा है, जो औपनिषदिक है और लगता है वह व्यवहारिक नहीं है।
मण्डूकोपनिषद् में शिष्य रूप में आये महा-गृहस्थ शौनक का प्रश्न है ऋषि अंगिरा से, ‘क्या है जिसे जान लेने के पश्चात् यह सब कुछ ज्ञात हो जाता है-कस्मिन् विज्ञाते सर्वं इदं विज्ञातं भवति’ (१.१.३)
ऋषि दो प्रकार की विद्या के बारे में बताते हैं। दो विद्या हैं- परा एवं अपरा।
उसमें अपरा विद्या वह है जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष के अध्ययन से मिलती है।
और परा विद्या वह है जिससे व्यक्ति ‘अक्षर तत्त्व’ या ब्रह्म या परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर उपनिषद् के ब्रह्म ज्ञानी ऋषियों के बताये उपायों से स्वंय ब्रह्म और अमरत्व को पा जाता है।
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्शा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥(१.१.५)
अपरा विद्या वैदिक काल में उन्हीं विषयों को बात करती है जो भाषा, व्याकरण, ही नहीं वल्कि नक्षत्र, पृथ्वी आदि अन्य ग्रहों के कक्षों आदि का आकलन करने के उपयोगी खगोल विज्ञान, गणित की विधाओं और चिकित्सा के आयुर्वेद, रसायन, के बारे में की शिक्षा में थी। सभी विधाओं में महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त की और उसे गुरूकुलों के द्वारा शिष्यों को दिया। उदाहरण की तरह जैसे उस काल के ऋषि बौधायन,कात्यायन ने यज्ञ वेदिका को वेदों के अनुसार बनाने के सुलभ शास्त्र के सूत्रों की प्रमाण आधारित खोज की जो आगे चल गणित कहलाया।
एक और प्रसंग छान्दोग्योपनिषद् में (७.१.१) है। नारदजी आचार्य सनतकुमार के पास जा उनसे कहा,’भगवन्! मुझे उपदेश दीजिये’। सनतकुमार नारद जी से पूछते हैं, ‘कृपया आप बताए कि आप क्या क्या जानते हैं, फिर मैं बाक़ी विषयों को बताऊँगा।’
नारद ने कहा, ‘ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेद सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्य राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्या सर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्येमि॥-‘भगवन्! आचार्य, मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, चौथा अथर्ववेद,पाँचवाँ वेद- पुराण और इतिहास, वेदों का वेद (व्याकरण),श्राद्ध का कर्मकांड, गणित, निधिशास्त्र,तर्कशास्त्र,नीति, देवविद्या, ब्रह्म विद्या, भूतविद्या,धनुर्वेद,नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या और देवजनविद्या-नृत्य संगीत आदि सब जानता हूँ। मैं केवल मंत्रवेत्ता ही हूँ, आत्मवेत्ता नहीं, मैं वही बनना चाहता हूँ।’
इसी को उपनिषदों ने ‘विद्या’ माना है, पर उपनिषद् यह भी कहते हैं कि इसे प्राप्त के इच्छुक एवं इसके लिये ज़रूरी त्याग करनेवाले और आत्मवेत्ता बनने वाले ज्ञानी लोग बहुत कम ही होते हैं आम तौर पर। कठोपनिषद् में एक श्लोक कहता है-
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ॥१.२.७॥
- इस संसार में अधिकांश के लिये तो इस आत्मत्तत्व विद्या के बारे में सुने जाने की ही संभावना नहीं होती। बहुत से लोग इसके बारे में सुन कर भी कुछ नहीं समझ सकते, इस आत्मत्तत्व विद्या को अच्छी तरह से समझानेवाले भी दुर्लभ हैं, इस ज्ञान को प्राप्त करने वाला कोई कोई ही होता है, और जिसे इसका ज्ञान हो गया हो, ऐसे आत्मत्तत्व की उपलब्धि से युक्त महापुरुष के द्वारा शिक्षा प्राप्त किया हुआ आत्मत्तत्व का ज्ञाता भी परम दुर्लभ ही है।
आत्मत्तत्व की उपलब्धि के लिये व्यक्ति विशेष में जन्मजात दैविक गुणों की प्रधानता दिखती है और वे ऐसे ही परिवार में आते हैं जहाँ के आध्यात्मिक परिवेश के कारण उन्हें आत्मत्तत्व की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा मिलती है, या पूर्वजन्म के अर्जित पुण्यों के कारण वे सब सांसारिक आकर्षणों से यथाशीघ्र विरक्त हो अपने आत्मत्तत्व के उपलब्धि के रास्ते चल पड़ते हैं, और एक पूर्वसिद्ध ज्ञानी की छत्रछाया में अपने भी ब्रह्मज्ञानी बन जाते हैं।
कठोपनिषद् में भी विद्या अविद्या की बात कही गयी है-
दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सिनं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त ॥१.२.४॥
यमराज कहते हैं नचिकेता से, ‘परस्पर सर्वथा भिन्न, विपरीत, अलग-अलग दिशाओं में जाने वाली ये, एक ‘अविद्या’ नाम से जानी जाती है तथा दूसरी ‘विद्या’ । परन्तु, हे नचिकेता! मैं तुम्हें विद्या का सच्चा अभीप्सु मानता हूं जिसे बहुविध काम्य वस्तुऐं भी अपने प्रति लोलुप नहीं बना सकीं।’
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥१.२.५॥
जो लोग अविद्या में, उसके भीतर ही वास करते हैं, अपनी बुद्धि में स्वयं को ज्ञानी तथा महापण्डित मानते हैं, वे मूढ होते हैं, वे उसी प्रकार ठोकरें खाते हुए चक्करों में भटकते रहते हैं जैसे अन्धे के द्वारा ले जाये जाने वाले अन्धे होते हैं।
भारतीयों को उपनिषदों और गीता से अपने जीवन के शुरुआती दिनों से लेकर जीवन के अंत तक सीखने और उसे आत्मसात् करके अपने नैतिक चरित्र के निर्माण के माध्यम से मानवीय उत्कृष्टता की ओर बढ़ने के लिये प्रेरित होने की आवश्यकता है। इसे हमारी शिक्षा पद्धति में समाहित करने की ज़रूरत है और यही एक श्रेष्ठ राष्ट्र बनाने का रास्ता है जिसे बिना किसी अनर्थक तर्क के प्रारम्भ करना चाहिये। यह दूसरे राष्ट्रों के लिये भी प्रेरणा दे सकता है एक खुशहाल विश्व बनने की दिशा में।
हम उपनिषद एवं गीता को पढ़ या समझ जान तो सकते हैं, पर ऋषियों ने इसे जीने और आचरण, व्यवहार के रूप में व्यक्त करने के लिए लिखा था। इसके बताये आचरणों को जीवन में प्रयोग कर और अपने उसके ख़ुद अनुभव कर ही उचित फल प्राप्त किया जा सकता है। श्री रामकृष्ण कहा करते थे, ‘कुछ ने दूध के बारे में सुना है, कुछ ने इसे देखा है, कुछ ने इसे छुआ है, और कुछ ने इसे पिया है और जो पिया है वही केवल दूध से लाभान्वित होता है और उसके गुण का अनुभव करता है।’
उपनिषद अध्ययन केवल विषय की जानकारी, तर्क, मानसिक अलंकरण, या बौद्धिक व्यायाम के लिए नहीं हैं। इनके विचारों को आत्मसात करने की क्षमता तो केवल चारित्रिक शुचिता एवं आत्म-अनुशासन से व्यक्ति को मिलती है, जो योग के अभ्यास का भी सबसे पहला कदम है। बिना अनुशासन के आप न योग में, न अध्यात्म में, न जीवन के अपने नियत काम में सफलता हासिल कर सकते हैं। और यह बचपन से प्रारम्भ कर पूरे जीवन तक चलता रहना चाहिये है।
आज के युग के लिये ईशोपनिषद् के रचयिता ने पहली बार एक क्रांतिकारी विचार व्यक्त किया है हज़ारों साल पहले, जहां ऋषि ने विद्या एवं अविद्या का एक साथ जानने की ज़रूरत पर बल दिया है। इसकी स्वामी विवेकानन्द एवं अन्य महापुरुष ने प्रशंसा की है।
उसका हमारी शिक्षा में मधुर मिश्रण ज़रूरी है प्रारंभिक शिक्षा से ले उच्चतम शिक्षा एवं विज्ञान या प्राविधिक संस्थानों में किये जा रहे किसी विषय सम्बन्धी सफल अनुसंधान के लिये भी।
आज के संदर्भ में वे सब विषय,जो प्रारम्भिक स्कूलों से उच्चतम शिक्षण एवं अनुसंधान संस्थाओं द्वारा विद्यार्थियों को दिये जाते हैं सफल जीवन यापन के लिये विभिन्न क्षेत्रों में,वे सब अपरा विद्या है। दुर्भाग्य से हमारे तथाकथित धर्म निरपेक्ष देश में आध्यात्मिक शिक्षा को सर्वमान्य नहीं मानते हुए इसे शैक्षणिक विद्यालयों या संस्थाओं में नहीं दिया जाता हैं। जबकि नैतिक शिक्षा बहुत ज़रूरी है एक जागरूक नागरिक एवं सफल ब्यक्ति बनने के लिये। साथ ही बचपन से ही ईश्वर की प्रार्थना, सत्य आधारित आचरण और आगे चल ध्यान, योग आदि की शिक्षा देने की बहुत ज़रूरत है और अब विश्व के पश्चिमी समृद्ध देशों में भी स्वीकार किया जाने लगा है।इस विद्या के बिना किसी क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ बनने के लिये ज़रूरी एकनिष्ठ चेष्टा या एकाग्रता नहीं लाया जा सकता। भारत के ऋषियों ने प्राचीन काल में ही बहुत गहरे मनन, चिन्तन, आत्म प्रयोग कर इस विद्या का उपयोग आम जीवन जीनेवाले लोगों से ले से राजकीय प्रणाली चलानेवाले लोगों एवं उन परम ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक लोगों के किया। और सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठ महापुरुष हुए जिनके नाम आज भी हमें प्रेरणा देते हैं।उपनिषद्, गीता, ब्रह्म सूत्र, या पतंजलि योग शास्त्र आदि ग्रंथों की रचना हुई भविष्य के ज्ञानियों का मार्ग दर्शन के लिये।
ईशोपनिषद् में मंडूकोपनिषद् के अपरा विद्या को सांसारिक जीवन यापन की विद्या या ‘अविद्या’ बताया है और ब्रह्म ज्ञान के लिये व्यवहृत विद्या,परा विद्या को ‘विद्या’बताया है जो आत्मा को हृदयंगम करनी के लिये थी। ‘विद्या’ ज्ञान के पथ पर चलने का निर्णय किये ब्यक्ति के लिये थी। उस विद्या को प्राप्त करने के लिये ज़रूरी प्राथमिक नैतिकता, आचरण एवं फिर ज्ञान योग आदि की शिक्षा थी, जिसको लक्ष्य ईश्वर, ब्रह्म, ब्राह्मण, पुरूष आदि कहा गया।
ईशोपनिषद में इस विद्या के विषय को लेकर तीन महत्वपूर्ण एवं कुछ हद तक अनूठे श्लोक हैं। ईशोपनिषद् में विद्या सम्बंधित पहले दो श्लोक- नौ एवं दस, बड़े अटपटे लगते है पहले बिना समझे ठीक तरह से औपनिषदिक ज्ञान को समझने के ढंग को जाने बिना अन्त:करण से।
ऋषि का विद्या एवं अविद्या को साथ साथ जानने का असली सुझाव इस विषय के आख़िरी ११वाँ श्लोक में आया है। जो शायद पहली बार किसी उपनिषद् के रचयिता ऋषि ने बेबाक़ तरीक़े से दिया है और आज भी अनुकरणीय है सब क्षेत्रों में लगे व्यक्तियों को श्रेष्ठ बनने के लिये ज़रूरी है।
विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥११॥
He who knows both vidya and avidya together overcomes death through avidya and experiences immortality by means of vidya.
लेकिन जो इन दोनों को एक साथ जानता है, विद्या और अविद्या, अविद्या से मृत्यु को पार करता है और विद्या के माध्यम से अनन्त जीवन प्राप्त करता है।
प्राचीन काल से ही हर व्यक्ति मृत्यु पर विजय एवं अमरत्व की कामना रखता है।
यही है ईशोपनिषद् के रचयिता अनाम ऋषि की विशेषता जिसने विद्या के साथ साथ अविद्या के भी सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करने पर बल दिया। यह शायद किसी अन्य उपनिषद् में नहीं किया गया है इतनी विशेषता के साथ जो इसके श्लोक ९ से ११ में किया गया।
हाँ, केनोपनिषद् में भी विद्या को ईशोपनिषद् की तरह अमरत्व का रास्ता बताया है, जब कि आत्मा को आत्मबल के लिये जो सांसारिक पुरूषों के लिये ज़रूरी है।
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥२.४॥
जब यह ऐसे प्रत्यक्ष बोध के द्वारा जाना जाता है जो ‘इसे’ प्रतिबिम्बित करता है, तभी व्यक्ति ‘इसका’ विचार बना पाता है, क्योंकि उससे व्यक्ति को अमृतत्व की उपलब्धि होती है; उपलब्धि के लिए व्यक्ति को आत्मा से शक्ति प्राप्त होता है तथा विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है।
सुधी पाठक अगर मेरे विचार के विपरीत अगर कुछ जानते हों वे कृपया मुझे बतायें