नई कविताऐं
1
6.1.2022
प्रकृति की एक पुकार
मेरे कुछ घंटे से बरसने से,
अस्त व्यस्त हो जाता
तुम्हारा जीवन
तुम मुझको कभी,
कभी सरकार को कोसते हो
पर उसमें तुम्हारी तरह ही हैं
जानते केवल चुनाव शब्द
यही है काम उनका,
कुछ भी कर सकते
हैं उसके तो लिये।
न नालियाँ बनायेंगे,
न उनकी मरम्मत होगी
न कुछ तुम्हें जगायेंगे
जब मेरा चैन हर जाता
मेरा यह रूप होता
तुम न तो कोई रावण हो,
न राम ही बन पाये
बीच में लटकते हुए
असहाय बने रहते हो
तुम सोचो मेरे हित कुछ
मैं मैली होती जाती हूँ
तुमने ज़हरीले गैसों से
भर दिया सारा आसमान
क्या मैं क्रोध हीन बनूँ
देख तुम्हें करते सब,
सब समय नालायक हरकत
तब मुझे इसी तरह बरसना
पड़ता है।
मत करो मुझे तंग अब ज़्यादा
न तो जल प्लावन बन आऊँगा
तुममें नहीं कोई नूह या मनु
जो तुम्हें बचायेगा।
जब हर तुम बन सकते ब्रह्म
क्यों असुर बनते जाते हो
सोचों अपने ऋषियों को
जो सब तुम्हें बतायें हैं।
सब में है एक ब्रह्म
पेड़ पशु जल जीव
छोटे से छोटे में
बड़े की तो बात छोड़ो।
समय रहते चेत जाओ
न बनो मेरा शिकार
बचा लो प्यारी धरती को।
होगा बड़ा वह आत्मघात
कर्म समझो या की पाप।
उठो, जागो, सुनो बात
अब तो बदल जाओ
समय रहते स्वार्थ त्याग।
2
मेरी कविताएँ
१
बापू क्या तुम देख रहे हो
अब भी अपना देश कहीं से?
होगे तो ज़रूर हम में ही
देश प्रेम का अलख जगाते ।
काश बता पाते कुछ अपनी
भी कुछ दर्द कहानी ।
कैसे तुम को आगे करके
चेलों ने रोटी सेंकी थी।
देश आज भी वहीं पड़ा है
कहाँ पढ़ाई? वही ग़रीबी ।
दुख होता होगा तुमको भी
कभी कभी तो
गाँवों में, झुग्गी में जाकर
जाति पाँति में उलझे पाते।
नहीं रहा बैलों की जोड़ी
न कोई चौपाल मिलेगा
नहीं कभी पंचायत होती,
सबको तुम लड़ते पाओगे
नेताओं के मुर्ग़े बनकर।
आज यहीं बस आगे फिर देखो
कब करूगाँ तुमसे बातें
नहीं कहा जाता है कुछ भी
जभी तुम्हारी याद सताती।
***
3
भयंकर गर्मी के बाद की यह बरसाती दुपहरिया
धरा विकल थी
मन शरीर सब त्रस्त हुआ
जब रवि तपायी लू से।
लगा रुष्ट हम जीवों से
तुम,
पर जब आई, तब तुम बरसो।
प्रतीक्षा की देर मधुर है
प्यास बहुत है
अब तो दिल खोल के
बरसो,
रिम झिम नहीं,दुरंत वेग से
बरसो बरसो मेघा
धरा अम्बर का भेद मिट जाये
झूमे नाचे वृक्ष टहनियाँ
हरा हरा कुछ
दृश्य बने अब
शीतल वायु बहे
कुछ दिन तक।
लगता है मैं भी भीगूँ
बाल संग मिल जाकर खेलूँ ।
निकल ज़रा नीचे आँगन में
कैसे ख़ुश दिखते हैं देखो
कितने दिन पर बाहर निकले
इनकी ख़ुशी देख तुम बरसो
भीग जाये तन
अन्तर भीगे
बहुत तपित सालों से यह तन
काश! कि मैं बालक हो जाता
नहीं किसी का डर तब होता
कुछ क्षण तो तुम ऐसा ला दो।
बहुत याद उन दिन की आती
जब वारिस में घूमा करते।
अपने मन के हम मालिक थे
नहीं किसी से हम थे डरते
घंटों घूम आते वारिस में हम दोनों
जब सब थे सोते ही रहते
अगर कोई मिल जाता पथ में
हँसी उन्हें भी आ जाती थी
ख़ुशी उन्हें भी मिल जाती थी।
एक विषय उन को मिल जाता
कुछ चर्चा भी इसकी होती।
कैसे थे हम अलग सभी से
अब केवल यादें उनकी
वे आकर कुछ दस्तक देती
कुछ कहने को कुछ करने को।
वही सोचता हूँ करने की इस मौसम में।
***
4
२०२१ से २०२२
तुम एक अंक होकर भी
क्या बड़ा ग़ज़ब कर जाते हो;
पर हम अपने को एक मान
चुपचाप चुपचाप खड़े
रह जाते हैं।
पर एक ब्रह्म का यह जग है
क्यों हम न समझ अब तक पाते।
वही ब्रह्म हर हम हैं तुम भी हो
सदियों से भारत कहता है।
पर देख देख कर अन्य राह
हम क्यों हरदम भरमाते हैं।
कब त्यागके अपनी यह आदत
अपना बल पहचाने अब पहचानेंगे?
जागे अब तो,
फिर उठ कर
लें हम एक शपथ मिलकर
विश्वास जगाकर अन्तर में
एकनिष्ठ बने ‘सर्व भूत हिताय’
बाक़ी जीवन के अर्पण को।
हर क़दम हमारा सार्थक हो
मज़बूत हमारा हिम्मत हो।
कुछ बात नहीं, कुछ बहस नहीं
बस लक्ष्य यह बस
सबका अपना हो
भारत शीघ्र सिरमौर बने
हम सबका एक ही सपना हो।
अगले अंक के बढ़ने तक
यह साफ़ अगर हो जायेगा
तब फिर संतोष हमें होगा अनहद
निर्वाण हमें मिल जायेगा।
5
३१.११.२०२० @ 11.45PM
२०२०-२०२१
22.1.2018
कितना मीठा, कितना प्यारा,
कितनी ख़ुशियों से भरा हुआ
उज्ज्वल आशा विश्वास लिये
सब तो था पिछले साल नया।
पर किसे पता था विपदा का
जो अधरों पर एक हास लिये
तैयारी में थी इस जग को फिर
कुछ नई सीख सिखलाने को
एक नई राह दिखलाने को
हम देखें अब तक नहीं हुआ,
सब अनुभव दुखद भयानक था
जो नहीं किया वह करना था
जो नहीं जिया वह जीना था
न कोई समझता मजबूरी
सब की रही यह मजबूरी
कोई नहीं अपना दिखता था
ईश्वर ही एक सहारा था
फिर एक दो आगे आये ही
कुछ अपने में साहस जागा
कुछ माह गये आशा जागी
कुछ आत्मशक्ति का बोध हुआ
फिर जीवन ने राह पकड़ ही ली
अब पार साल हो जायेगा
क्या कल आशा ले आयेगा।
एक नया साल एक नया सूर्य
पर अभी बहुत कुछ होना है
सामान्य बनेगा जीवन जब।
आशा पर हम सब चलते हैं
सब कुछ सामान्य बन जाता है।
शुभ हो नया साल सबको
हमको तेरा आशीष मिले…
6
माँ सरस्वती ! वयम रक्षाम:
सब माँ बहने गर शिक्षित हों,
यह देश स्वत: आगे होगा
हम मिलकर सब कुछ कर सकते
केवल शिक्षा को पा दे करके
इस एक यज्ञ में शामिल हो
कुछ देवी की सेवा कर के
वर दे माँ वर दे।
निराला की एक कविता की पुष्पाजंलि
सरस्वती वंदना
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
वर दे, वीणावादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे !
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
पहले की
1
मिटते रिश्ते
कोशिशें हज़ारों कर
रिश्ते जो बन पाये
बढ़ती गई उम्र
और अाज हैं सब नरमाये
बना बना नाते नये
पास वे ही थे आये
दूर हुये बस अब तो
टूटे सब नक़ली नाते
न कोई ग़म इसका
नहीं किसी से है शिकवा
तन्हाइ भाती मुझको
रहना इसमें सीख लिया
न किसी से लेना कुछ
न किसी का कुछ देना
न वे अगर देते मुझको
न देने का भी मन मेरा
वे रहें ख़ुश और मस्त
मेरी ख़ुशी है इसमें
यही मेरी एक दुआ ।
2
शादी के साठवें साल गिरह पर
सोने की रातें थीं
चाँदी के दिन
सपनों से बेहतर थे
बीते वे साठ साल
चलते, लड़ते, सँभलते
खोजते नई नई राहें
नये गीत
नयी प्रीत
……….
चलो आज भूलें सब
याद करें मधुर क्षण
मधुर सब
लिये आश….
बीत जाये
बाक़ी भी एेसे ही…..
3
मेघ के प्रति …
आओ मेघा! घन घमंड बन
बरसो मेरे आँगन में
रिम झिम झुम झुम
पर रूको नहीं यहाँ
इन नगरों में ।
जाओ उन लाखों
गाँवों की तरफ़
बरसों उन खेतों पर
बाग़ों में
तरसे हैं तेरे लिये
उनका मन ।
उनके श्वेदों में मिल
करो उनका स्वप्न सत्य ।
कहो क्या मंत्र है
तुम्हें बश करने का
रावण राम जाने थे
हमें भी बता दो ज़रा ।
4
माँ ! तुम केवल श्रद्धा हो
समर्पण हो, त्यागमूर्ति
रक्तदायिनी, स्वरूपदायिनी
अमृतदायिनी
जीवनशक्ति हो
सहनशक्ति की पराकाष्ठा हो
अपनी अंगुली से
हिमालय को झुकाने का
सामर्थ्य लिये देवी हो
दिशाभ्रमित संतानों
पर भी क्षमामयी हो
माँ तुम माँ हो
सरस्वती, दुर्गा, और लक्ष्मी हो
घर में मंदिर हो
नमस्तुभ्यम्
5
वायरल
ढीकढाक चलती ज़िन्दगी
अचानक रूकती रूकती
असह्य यातना भरी
कितनी बड़ी बड़ी वैज्ञानिक
उपलब्धियों के बावजूद
एक अदना वायरल कर तबाह
तन मन चूस लेता सारी शक्ति
मुझे तो अपनी ज़िन्दगी पर
संदेह होने लगा, खाने की इच्छा नहीं
पेय में श्वाद नहीं
समय कैसे कटे जब सवालों
के हों संदेहास्पद उत्तर
हफ़्तों चला कष्ट झेलने की
डाक्टरों के निस्पृह नज़रों के सामने
हरदम लगता रहा कोई हाथ
मेरे सर को सहला देता
कोई हर लेता कष्ट सब
एक स्पर्श से
पर ऐसा कंहां होना था
नहीं हुआ
शायद यह रिहर्सल था
तैयार रहूँ …..
6
एक जन आह्वान
आज देश तैयार खड़ा है
रचने को नूतन इतिहास
एक नया नेतृत्व दे रहा
जुड़ने का अन्तिम आह्वान
सब बाधाएँ तोड़ देश को
प्रथम पंक्ति में आना है
और मुखौटे पहने जो हैं
उन्हें सामने लाना है
जाने सब
वे कौन शत्रु हैं
जिनसे देश बचाना है
समर एक आख़िरी सामने
माँग रहा थोड़ा बलिदान
क्षणिक स्वार्थ को छोड़ जुड़े हम
और करें श्वेदों का दान
आओ मिल कर आज बढ़े हम
करें सफल अद्भुत अभियान
नहीं श्रेष्ठ है जाति धर्म अब
सबसे बड़ा देश अभिमान
……….
7
निर्वाचन ने किया कमाल
दलित बन गये बाल्मीकी अब
कुसवाहा अशोक महान ।
जयप्रकाश, या देशरत्न भी
बने आज कायस्थ अभिमान ।
रश्मिरथी के दिनकरजी भी
केवल रहे जाति पहचान ।
इतने सालों में मैं जाना
रेणु की जाति का नाम ।
कब तक हम बँटतें रहेगें
छलियों के बहकावे में ।
ठेंगा हमें दिखा देते वे
अपना काम बना कर के ।
….
8
जीवन सत्य
हर हार बताये जब हमको
आगे बढ़ जाने का उपाय,
हर जीत हमें जब कर जाये
ज्यादा विनम्र
कुछ और उदार ।
हम कभी न धोखा खायेंगे
इस जीत हार की माया से ।
चलना जब धर्म हमारा है,
हम व्यर्थ बीच में क्यों बैठें
अमरत्व यहीं मिल सकता है
अपनी कुछ करनी के बल से ।
क्यों नहीं वही प्रयास करें
उससे ख़ुशियों की आस करें ।
देखा किसने है स्वर्ग यहाँ
पर मिल सब स्वर्ग बना सकते ।
अन्यथा जो होता आया है
वैसे ही चलता जायेगा
अपने ही नर्क बनाते हैं
और उसका रोना रोते हैं ।
आयें हम इसे बदल डालें
अपने ही स्वर्ग बना डालें ।
……….
9
आया एक नया साल फिर
है जब ब्राह्म मुहूर्त की बेला
और कल्पना करवट लेती
प्रश्न एक मन में है आता
क्या कुछ नया साल यह होगा
शक्ति अगर मुझमें गर होती
दंत कथाओं की कुछ जैसी
सबका मनचाही दे देता
सबके ओठों पर लाकर
प्यारी एक हँसी दे देता
सबकी शक्ति को फिर लेकर
एक नया भारत पा लेता
पर निकलूँगा जब बाहर मैं
वाक्य पुराना ही आयेगा
अभिनन्दन का
इन अधरों पर
‘शुभ हो नया साल आपको’
निर्भया के जाने पर
Posted on January 12, 2013 by indra
मेरे शब्द कम पड गये हैं
मुझे अपने पर, अपने देश पर
शर्म आने लगी है ।
अपने देश के पुरूषों पर भी
मर्दानगी दिखाने के
घिनौनेपन पर भी
पुरुष के पशुवत
आचरण पर भी ।
लड़ी पर हार गई
और सबको झकझोर गयी
सड़कों पर उतरी भीड़
दिल्ली की सर्दी में
दिन में रात में
मोमबत्ती हाथ में
गले में लटकाये पोस्टर
और मुंह से बरसते
अंगारें ।
निर्भया शायद मर
कर अमर बनी
वह सब दे गयी
उन सबको जो शायद
जी कर न दे पाती ।
नये साल की नयी बात
Posted on December 31, 2012 by indra
एक अंक के परिवर्तन से
साल बदल जाते हैं
उम्र बदल जाती है
अरमान बदल जाते हैं
फिर भी क्यों
हर रोज़ इसी का
इंतजार करते हैं
आशा में जीते हैं
एक स्वप्न लिये हरदम:
नये साल के
सूरज में
कुछ बात नयी होगी
कुछ रंग नये होंगे
कुछ ढ़ंग नये होंगे ंं
जीवन सुंदर होगा
कुछ जोश नया होगा
मंजिल करीब होगी
कुछ आश नयी होगी
विश्वास नया होगा
कर अभिनंदन इसका
कुछ प्रण लेकर सब हम
उल्लास मनायें हम
बिश्वास जगाये हम
तम दूर भगायें हम
नव देश बनायें हम
नव वर्ष मनायें हम
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निर्भया की आखिरी ख्वाहिश
Posted on December 30, 2012 by indra
निर्भया की आखिरी ख्वाहिश
‘मां, मैं जीना चाहती हूँ’
हरपल उन गिधों की
उन दो घंटों की यातना
कैसे भूल पाउँगी
जब समय सदियों में
बदल गया था
पर बिश्ववास करो मां
मैं लड़ी थी अंत तक
काश ! तुमने मुझे बनाया
होता दुर्गा या रणचंडी काली
मुझे भी देवताओं ने
दिये होते दस भुजायें
दस घातक अस्त्र
मैं असुरों का अंत कर पाती
मां, सहा नहीं जाता दर्द
क्षत विक्षत अंग अंग
मन भी और प्राण भी
मां, गोद में रख लो
मेरा सर, सोउंगी
पर हां असुरों को कहना
उनकी अपनी मां या बहना
हीं बनेंगी काली
करेंगी अंत सब
असुरों का, और मेरे
भाइयों और बहनों
याद हर पल रखना
मेरी शहादत ।
इस दीप पर्व पर
Posted on November 13, 2012
आओ चुनौती दें फैलते अंधेरों को
असली ज्ञान दीपों को जला
लाखों करोड़ों में ।
अपने स्वेदों के स्नेह से
भरे रखें हरपल उनको ।
केवल अथक साधना, प्रयास
बुद्धि, और शक्ति देगी
असंख्य आसुरी
रावणी शक्ति पर बिजय ।
पर रहे याद हमें
बिजय के बाद की
कहानी सदा
उससे भी जरूरी
रहा लोभ का त्याग
सबका, चाहे राम
या साधारण बानर ।
न लिया दिब्य रथ,
न रत्न, स्वर्ण, आभूषण ।
और तभी जल सकी
कोशल में दीप माल्य
और आया राम राज्य ।
शुभ हो दीपावली
1.लन्दन से आती आवाज
सबकी नजरें
लन्दन की ओर |
है आज जमाना,
ब्यक्ति, देश
है ब्यस्त,
लगा है
लिखने में
इतिहास नया |
मानव पौरुष का,
कीर्तिमान से आगे
बढ़ जाने का |
भारत डूबा पर
अंधकार का बोझ लिए,
अनशन में, बार्ता में,
या फिर
दूसरों का
गुण गाने में
या अतीत का गीत
गुनगुनाने में |
सोने चांदी की होड़ लगी
देशों में,
अरबों की टोली पर
खुश है
कांस्य पदक से|
जागो, उठो,
और सोचो
गया पल
नहीं कभी है आता |
संतोष नहीं है धर्म,
बनता
कारण अकर्मण्यता का,
एकलव्य ध्येय हो
रश्मिरथी हो
कुछ करो अनूठा
और अमर बन जाओ|
2.ये दोनों
August 2, 2012
निश्छल मन
कोमल तन
चुम्बन या
उनका आलिंगन
आकर्षक यह
जीवन हर पल |
मेरे मन की कुछ
अभिलाषा
इन दोनों ने है पूरी की|
उनकी प्यारी
मुस्कान कभी
दिल दहलाती
चिंघाड़ कभी
सब ही होती
आनंदमयी |
ठुकराना उनकी मांग मेरी
फिर चुपके चुपके आ जाना
चुम्बन की झड़ी लगा जाना |
खुश होते तो आ मिलते हैं
गुस्सा हों तो गुर्राते हैं |
अनसुनी करना राय मेरी
कुछ देर गए वह ही करना|
जो करें वही अच्छा लगता
दिल बाग बाग हो जाता है
बिन कहे बहुत कह जाता है
यह दिव्य बहुत ही नाता है|
3.अदने आदमी की अभिलाषा
February 6, 2011
बचपन में था पढ़ा
पुष्प की अभिलाषा
चौबेजी की |
चाह भी था फूलों सा बनना
खिलना, और सदा मुस्काना
फिर से मिट्टी में मिल जाना |
अंत सुनिश्चित है जब जग में
इसीलिए अब यह अभिलाषा
नहीं तेल की नाव बनाना
बर्फ शिला पर नहीं लिटाना
रूकना नहीं किसी प्रियजन हित
यथाशीघ्र तुम पार लगाना
अगर कोई लेना चाहे
गर इसको ऐसे
ज्ञान बढ़ाने की मनसा से
उन्हें हर्ष से तुम दे देना
पर मेरा तुम नाम न कहना|
और अंत में
इसे जलाना पड़े अगर तो,
मुझे जलाना नहीं काठ से
बिजली की भठी बेहतर है|
और राख जो हाथ लगे
मिट्टी में दे डाल उसे
एक घना तुम बृक्ष लगाना,
अच्छा हो गर फूलों का हो
फल लगते हों |
और नहीं कोई पूजा करवाना |
नहीं बनूगा दैत्य,
रहूँगा मुक्त, दिव्य,
न होने पर भी
इसी धरा के मिटटी में मिल |
कहो अरे क्या हो पायेगा ?
4.मेघ प्यारे
August 21, 2011
प्यास धरती का बुझाने
कलुष अम्बर का मिटाने
आज यों फिर मेघ बरसे
छत पर हैं संतूर बजते
नृत्य करते बाग उपवन
झूमते पतों से आती
मधुर सी है एक सरगम
संगमरी आँगन में देखूं
फूल से बूंदों का नृत्यन
तैरते मेघों से आती
इंद्र के महफिल की मंजर
मंद स्वर फिर त्वरित होकर
बैंड का आभास देते
फिर हवा से मेघ उड़ते
दूर जाते |
और पीछे रह हैं जाते
एक हम और
याद उसकी|
हाथ में जब हाथ डाले
घूमते थे मुक्त से हम |
5.जिंदगी
ना गद्य है
ना पद्य
हो सकती है एक
यात्रा की कहानी
लिए आलोचना
या समालोचना
==
6.
बरिसे झमाझम पानी हो
आ भिंजेला सारी
बापों न समझे न भैया रे बुझे
मोर भिजेला सारी
सैयां मेर्रो ससुरारी हो
मोर भिजेला सारी
ओठवा पर आवेला गारी हो
जब भिकेला सारी
7.उदास शाम
April 24, 2011
दुखित करते
समाचार
और उदाश
गुमशुम सी
शाम|
दूर होते दोस्त,
हित,
रक्त सम्बन्धी|
थकित तन
ब्यथित मन
अनिश्चित
जब जीवन|
ना कोई आरजू
नहीं कोई इंतजार |
कटते दिन
मास बरस
शीत ताप
और केवल
एकाकीपन|
एक सोच करती
बार बार
मन बिह्वल|
कैसा हो अंत
जाने?
नहीं, अरे
अंत कँहा
सामने है
जीवन फिर,
शायद उन तारों पर|
आते ही सोच
होता हर्षित मन|
हूँ अनंत |
—–
कभी जब दर्द
बहूत बढ़ जाये
और कोई न पास हो |
एक कराह सुकुन देती है
जो अपनी है |
8.कल की यादें
अच्छा लगता है इनका
बालसुलभ कलरव
और कभी कभी का जलजला
कभी तो माँ का साथ निभाना
कभी पिता से यारी
कितना कोमल अंग
किस रस से भरपूर
देहं है इनकी
और फिर
उनकी प्यारी आँखें
या उनकी मुस्कान
शरारत भरी
कभी फिर निश्छल
उनकी बातें
समझ न आनेवाली
और कभी
वह बार बार का चुम्बन
प्यारा रसभरा
और कभी फिर
झगड़ा रगडा
गुस्सा करना
जैकी की फिर
चीख, रौद्र वह रूप |
एम्मा की कुछ प्यार भरी
बातें और गलबांही |
बहूत यादों की मंजिल |
इसी सहारे जीते रहना
यही आज की नियति
या फिर जीवन दर्शन|
9.किसी प्रिय के प्रति
मैनें तेरी याद में जग कर
बिताई सारी रात
पर अरे फिर भी न आये
और मेरा दिल दुखाये
पर अचानक पलक झपकी
सपना तुम्हारा आ गया
और मैं सब पा गया
जिंदगी तो खोज लेती
एक चलने का बहाना
10.नए बर्ष की नई सोच
Posted : January 1, 2011
क्यों लिखूं गम के गीत
तुम्हारे जाने की,
मैं बैठा हूँ जब आश लिए
फिर आने की?
क्यों बाय बाय
क्यों हाय हाय
सबमें खुश रह
हर पल जी लें,
हर पल का हो
चिर अभिनन्दन|
एक प्रश्न अटकता है
फिर से|
कब कहूं
‘बर्ष शुभ’
मैं तुमसे?
क्या मध्यरात्रि
या प्रातकाल?
पर हो हरदम ही
बर्ष शुभम
11.गर्मी कंहा से आती है ?
कौन कहता है
सूरज तपता है|
आज जब सूरज
अपनी रवानी पर है|
मैं क्यों शीत में
ठिठुरता हूँ?
उसके पास होने की
बात भूल गया |
वह बहूत दूर
आज हुआ,
हमसे नहीं,
इस धरती से |
जहाँ मैं गलत जगह
पर हूँ |
सापेक्ष हैं सभी बातें
क्यों हम गिला
शिकवा करते ?
क्या हमारे रिश्ते भी
पास होने से गरम रहते हैं
दूर होते ही सर्द पड़ जाते |
12 November 27, 2010
दूर क्षितिज के पार
जो डूबा सूरज,
और सुहानी लाली उसकी
पेड़ों पर की,
अपनी सी है |
आसमान पर
चांदी का यह चाँद
सुधा बरसाता जो है,
अपना सा है |
और कड़कती बिजली
जो दिल को दहलाती,
यही नहीं
वह काला कौआ
टायं टायं
जो छत पर करता
अपना सा है |
फिर क्या अंतर
यंहा रहूँ या वहाँ रहूँ
क्यों घबड़ाता हूँ
आशंका का बोझ लिए
क्यों जीता हूँ ?
चाहे धरती अपनी हो
या फिर हो वह और
फर्क कहाँ है ?
अपना लेगी
और सुला देगी लोरी से|
13. दीपावली के दिन
November 6, 2010
डगर डगर दीप जले |
तुलसी तले
घर घर में
द्वार द्वार
दीपों का जाल सजे |
गाँव नगर
धन धान्य
फले फुले |
देशों का भेद मिटे
तमस हटे|
शुभ हो
यह ज्योति
पर्व
तुमको
और सबको |
यही आश
खाश बने |
ज्योति फले|
14 एक उदाश शाम की श्रद्धांजलि
August 1, 2010
मन उदाश है
भरा भरा |
फिर से मन में एक
प्रश्न उभर आया है|
‘जीवन क्या है?’
कल तक दोनों
साथ साथ थे
साठ साल से|
आज फ्रेम में
बंद एक है,
और एक सोफे पर बैठे
याद लिए बर्षों का मन में |
लिए अश्रू बिन्दु आँखों में
और छुपाने का प्रयास भी|
क्या कहता मैं
सांत्वना के कुछ शब्द खोखलें
बंधू ! यही जीवन है
आज तुम्हारे साथ हुआ जो
कल शायद अपनी बारी हो|
नहीं समझ पाते हैं हम
कितनी बातों को
ब्यर्थ दुखाते और अपने भी दुःख पाते हैं |
मन उदाश है |
नोट: एक दोस्त की पत्नी के न रहने पर |
15.आखिरी बिश्राम
July 5, 2010
आओ ठहरो जरा
कुछ समय
और
आराम करें |
नहीं अब राह बहुत
कुछ पुरानी बात करें |
डगर लम्बी और अनजानी थी
न कहीं छांह न सराय
हमने पाई थी|
मिला जो साथ
वे भी सभी बेमानी थी |
फिर भी अरे
देखें जो हमने
सपने थे
हुए तो सत्य
किसकी वह मिहरबानी थी|
आओ कुछ हसीनपल जी लें
कुछ सुनाओ तुम,
फिर सुनाऊँ मैं भी
दिन थे खुशनुमा और रातें
जो दीवानी थीं |
कौन जाने कहाँ कब
साँस टूटे, साथ छूटे
जरा बैठो और आखिरी बात करें |
15.आज के ही दिन
June 14, 2010
पचपन में मैं
पंद्रह का था |
आज के ही दिन
५५ साल पहले
मैं दूल्हा था
एक गाँव में |
और गाँव के बाल बृद्ध
और महिलाएं
समझ नहीं पा रहीं थी
कौन है दूल्हा |
क्योंकि
साधारण बारातियों की तरह थी भेसभुषा
सादी थी धोती और सादा था कुर्ता|
कर्मकांड हुए सजे मांडो में
कोहबर में
और मैं थक कर था सोया
शायद ही समझता था
बिबाह का अर्थ या इसका अनर्थ |
पर समय की गति से
सम्बन्ध फलता रहा
फूलता रहा
और एक ब्यक्ति से
एक परिवार बनता रहा |
नहीं कोई चित्र उसका
पर मधूर यादें हैं
बहूत मधूर बातें हैं
और है उसका आनंद |
और हे परमपिता
सब तुम्हारी है माया और जाल
और आशीर्बाद |
16.चेहरे की भाषा
March 14, 2010
है कठिन बहुत
चेहरा पढ़ना |
चेहरे पर चढ़े
बहुत चेहरे |
चेहरे में छिपे
बहुत चेहरे|
कुछ चेहरे
दूर भगाते हैं,
कुछ हमको
बहुत लुभाते हैं ,
और पास बहुत आ जाते हैं |
पर सत्य उजागर
होता जब,
अहसास भूल का
होता तब
पर रिश्ते गर
बढ़ जाते तब
सुन्दर बीभत्स बन जाता है
और दर्द भयानक होता है |
रिश्ता तो मर ही
जाता है
बिश्वास सभी खो जाता है|
पर फिर भी हम बढ़ते रहते,
चेहरे फिर भी पढ़ते रहते|
क्या यही हमारा जीवन है?
17. होली है
March 1, 2010
होली की टोली
मटक रही
गोरी घर में
जा सटक रही
फिर हवा चली
फगुनहटा की
सब रंग उड़े
गुलाल चला
मिष्ठान बंटा
सब तृप्त हुए
और मदमाती
फिर भंग छनी
सब मस्त हुए
सब ब्यस्त हुए
गवनई हुई
चहकी मंडई
महके आँगन
कुछ शोर बढ़ा
जोगीरा सर्रर्रर
और बात बढ़ी
सब सराबोर
रंग चंहु ओर
क्या रंग चढ़ा
सब भेद मिटा
सब कष्ट गया
पहचान गई
तन मन भींगा
सब यार हुए
कब रात गई
और प्रात हुआ
जय हो होली
शुभ हो होली
होरी हो ली
17.मोह भंग
February 14, 2010
शीत निशा
बीत गई,
प्रीत मेरी
रीत गई |
कोटि कोटि
मोती से ओस बिन्दु,
अश्रू या अमृत. भी
पाट गए धरती को,
पर मेरी गगरी
फिर भी न भरी |
बीते इस पूनम को
चाँद खिला बड़ा बड़ा
अमृत बर्षा तो हुई
तन मन भिंगो जो गई
पर न कहीं प्रीत बढ़ी |
और यहाँ आज जब
आ रहा बसंत मंद मंद
भर रहा हवा में रंग रंग
स्वप्न में खिले हैं अंग अंग
प्रश्न क्यों रहा यह संग संग
हो नहीं कहीं यह मोह भंग
18.सूखा तरुवर
January 31, 2010
उपहास न कर इस तरुवर का
जो सूख गया |
बर्षों का आतप बात सहा,
मुस्काता छायादान दिया |
और फिर भी वह इस हालत में
बहुतों का तो मनभावन है|
कुछ चित्र बनाते हैं इसका
या छाया-छबि से मन भरते|
फिर जरा सोच कर देखो तो
यह शक्तिस्रोत्र तो अब भी है |
तंदूर में तुलसी के जलता
चिन्नो की चिता में खाक हुआ |
जलना ही जीवन लक्ष्य रहे
इस बात को क्या समझा पाया ?
19. एक बेवजह उदाशी
January 24, 2010
मन उदाश उदाश सा है
पर एक आश पास सा है
मन भूला लेता हूँ
कल की मधुर यादों में
उस हँसी का कँहा मुकाबला
जो मैंने देखी तेरे ओठों पे
और फिर तुम्हारा
नट खटी अंदाज
क्या कहूं उसकी बात
फिर उन्हीं अपने प्यारे सपनों में
मन बहल जाता है
और एक आश का बिश्वास भी है
20. नए दशक की आशा
December 31, 2009
एक नया दशक
दस्तक देता
दरवाजे पर.
खोलो कपाट
आये बयार
बदलो जहान
सबकी जय हो.
कुछ नए स्वप्न
कुछ नए लक्ष्य
कुछ नए गीत ले नए छंद
छू, छू ओठों को जाते हैं.
पर मन बिद्रोही कहता
है ललकार लिए-
रे ! नहीं प्रलय की बात करो
न हिम गलने की भ्रान्ति भरो
हम सभी सजग हो जायेंगे
धरती को हमीं बचायेंगे
यह दशक बड़ा न्यारा होगा
सब जीर्ण शीर्ण मिट जाएगा
हर ओर ज्ञान धरा होगा
जो हर मन को हर्सायेगा
यह धरती हरी भरी होगी
नदियाँ कलकल बहती होगी
सागर का नाद मधुर होगा
पर सोच वहीँ रूक जाती है
एक प्रश्न उभर ही आता है
‘क्या लोभ, काम मिट जायेगा?’
21. बिश्राम का हक़
December 27, 2009
ले लूं अब बिश्राम
नहीं गंतब्य दूर
जो जाना.
कंटकमय औ पथरीली
थीं कष्टसाध्य सब राहें
ना संग मिले कुछ वैसे
जो हाथ बढ़ा हीं देते.
पर बाक्य बाण से अपने
वे दु:खी किये अंतर तक.
पर नहीं रूका था फिर भी
हर जगह छाप मैं छोड़ा
औ’ नाम था अपना जोड़ा
हर बाधाओं को तोडा.
कुछ नयी सांस लेकर मैं
एक नयी आश लेकर जब
अपना पथ आगे देखा.
सब सहज सरल था पाया
अब नहीं रही कुछ चाहत
है शांतिमयी यह राहत
बिश्राम तो मेरा हक़ है
उठ कर फिर चल लूंगा.
22. सागर तट पर
December 20, 2009
अच्छा लगता है सागर तट
और अनंत जलराशि
दृष्टिसुख देती उसकी.
दूर श्वेत फेनिल लहरों का
जल हंसों का भान कराना
लहरों का तट से टकराना
मिट कर फिर फिर से आ जाना.
और किनारे के पेड़ों से आते जाते
वायु का संगीत सुनाना
और उभरती चाह नयी फिर
आकर यहीं कहीं बस जाना.
फिर नजरें जा दूर ठहरती
मन में फिर एक बंसी बजती
उत्तर लेकर प्रश्न उभरता
क्या सागर परमात्म रूप है?
सब जलधाराएँ हैं आ मिलती
फिर भी सागर जल क्यों खारा?
और यही खारा जल फिर जा
कंहीं दूर फिर बादल बनता
जग हित वह अमृत बरसाता
और खड़े सागर तट पर मैं
एक बार फिर हूँ मुस्काता
23. मेरा आज का जीवन
December 13, 2009
चिर सुख की आश नहीं जब
चिर सुख की प्यास नहीं अब
कुछ गीत लिए ओठों पर
बस राह गुजर जाये यह
क्या सुन्दर थे सब दिन वे
क्या शांतिमयी वे रातें
सपने थे नहीं सताते.
जब कठिन प्रश्न को हल कर
मन फूला नहीं समाता.
हुगली के तट पर बैठे
आनंद मग्न हो कर के
कुछ दूर निहारा करना
नावों का आना जाना
वह सूरज का डूब जाना
बोझिल कदमों से चलकर
फिर लौट घर आ जाना
दादा दादी का आंचल
सब दुःख दर्द का नाशक
क्या सुखमय था वह जीवन
अब नहीं किसी से लेना
और नहीं किसी का देना
अपने में सिमट सिमट कर
यह हंसते रोते जीना
निस्पृह बनने की फिर भी
एक कोशिश करते जाना
जीवन का मंत्र यही है
यही जीवन की परिभाषा
24. रामेश्वरम के अग्नितीर्थ में
December 6, 2009
है अग्नितीर्थ सागर में
यह सोच था मन हरसाया
दर्शन की आश लिए फिर
मैं जर्जर तन से आया.
यह एक अरब का भारत
अपने पापों से
तेरे जल को
काला कर देता
और पापमुक्ति की शक्ति
पर प्रश्नचिन्ह उठ जाता
फिर तट पर खड़े अकेला
एक स्वप्नलोक पा जाता
वह रूप तुम्हारा मनहर
अनंत लोक तक फैला
मन को पुलकित कर जाता
मेरी आँखों के आगे
फिर दृश्य बहूत से आते
गर रामायण सच है
फिर राम यहीं थे आये
और आकर मिले बिभीषण
हे अग्नितीर्थ,
उस दिन से कितने अरबों
को तुमने
पापों से मुक्त किया फिर
तेरे तट को कलुषित कर
क्यों लोग चले हैं जाते.
तेरे जल में डुबकी को
था मेरा मन घबराया
पर आँख बंद कर हमने
फिर पॉँच बार कर डाला.
25. मेरा एक दर्द
November 15, 2009
रोज सबेरे
निश्चित पथ के
प्रात भ्रमण में
एक दृश्य
अनभावन आता.
हरश्रृंगार के
दुर्बल बृक्षों
से फूलों का झर झर गिरना.
और राह के पास
धूल से सनते रहना.
फिर महरी के झाडू द्वारा घोर निरादर
और अंत तो और भयानक
पत्तों के अम्बर में फिंकना
और वही फिर धू धू जलना
हर जीवन का अंत यही है
पर फिर भी मन क्यों
घबडाता.
26.पार्क के बाबा साहब
November 7, 2009
बाबा साहब !
देखा आज फिर
खड़े कर दिए गए हो
एक पार्क में, जो कल तक नहीं था.
पता नहीं कितने बर्षों
रहोगे इसी तरह खड़े
सहते शीत आतप बात.
क्यों नहीं लोग तुम्हें
घरों तक रखते,
मन में रखते.
रखते अपने पूजा घर में
राम कृष्ण की जगह.
कितनी छोटी लडाई
लड़ते तुम्हारे चाहनेवाले
तुम्हें गाँधी की बराबरी
देने का प्रयास कर.
मानो मेरी बात
मूर्तियों की संख्या में
गाँधी से आगे निकल
गए हो
पर रह गए हो नेताओं के
चुनाव युद्ध तक.
नहीं लगा था मुझे अच्छा
वह धर्म परिवर्तन,
तुम्हें बिना हटे
बदलना था इसको
और वह तुम से हीं संभव था.
आओ फिर एक बार
बनाओ नया बिधान
जोड़े जो लोगों को.
दर्द बहूत पाता हूँ
गाँव अपने जाकर
नहीं रहे शूकर,
न करीमन, न मरकट
उनके न नाती पोतें
आते अब घर पर
रिश्ते सब सर्द हुए
लूट गए गाँव डगर,
बाबा कुछ समझो.
गर न आ पाओ तो
देव बनो, सपने दो
चेलों को.
करें नहीं इतिहासों की गलती
तोडें नहीं देश, जोड़े इसे
स्वेद दे अपना
बनायें इसे महान
क्या यह न था
तुम्हारा सपना.
—-
‘बाबा’ बाबा आंबेडकर हैं.
27. मधुर यादें
November 1, 2009
हर रोज सबेरा हंसता है
और शाम सदा मुस्काती है
जीवन तट पर अब खड़े हुए
कुछ मधुर याद आ जाती हैं
परदादी का गा गाकर
मुझे खिलाना
कभी बुलाना चंदा मामा.
ननिहाल की उस महरी का
बार बार सभलायक कहना.
फिर दादा की पीठ सवारी
फिर उनकी बांहों पर सोना.
फिर आते कुछ दृश्य मधुरत्तम
बिद्यालय के गलियारे में
एक किसी के दिख जाने की
आशा करना और दिख जाना
कितनी कोमल आकाक्षाएं थी
कितने बालसुलभ सपने थे.
जब कोई पास न होता है
बर्षों पहले की यादों में
अच्छा लगता है खो जाना
फिर कुछ यादें भी ऐसी हैं
जो शाम सबेरे आ आकर
जीते जाने को कहतीं है.
28. परम पिता से एक शिकायत
October 25, 2009
हे परम पिता !
जीवन की आपाधापी में
दुःख सुख चाहे जो हम पायें
सह लेंगे सब तेरे बल पर.
मन श्रांत ब्यथित होकर
पर जब
सो जाये करे बिश्राम जरा
तुम सपनों से ना तंग करो
और दुखित हमे कुछ और करो.
सपने गर नहीं रोक सकते
तो कम से कम
तुम उनको मीठे हीं कर दो
जीने का तुम कुछ रस दे दो
सपनों का दुःख तो तुम हर लो.
सपनों में सब चाहत दे दो
कुछ क्षण हम को जी लेने दो .
गर व्यवसायिक हो बात करें
कुछ भी तो नहीं नुकशान तुम्हें.
इसलिए इसे स्वीकार करो
न मेरी नींद ख़राब करो,
29. दीप महोत्सव
October 17, 2009
घर घर में दीप जले
लक्ष्मी जी मीत बने
प्रीत बढे, बैर घटे
गीत सने, रीत चले
हर घर में दीप सजे
हर नारी लक्ष्मी हो
हर पुरुष सक्ष्मी हो
साहस और त्याग बढे
देश में बिश्वास बढे
जीतने की प्यास बढे
देने का साहस आ
लेने का त्रास मिटे
जीवन संगीत बने
घर के हर कोने में
जीने में सिने में
हर जगह दीप जले
30.कभी कभी
October 10, 2009
एक मास में,
एक रात के
पूर्ण चन्द्र की
स्निग्ध चांदनी
कितनी मनभाती हैं .
पर कितनी ऐसी रातों में
इसे देखने
हम बाहर होते हैं .
कभी कभी बारिस की
जब रिमझिम बूँदें
मोती बरसातीं हैं.
कभी कभी सूरज की किरणें भी
कितनी अच्छी लगती हैं
कितने हम में बाहर होते?.
कभी कभी उन गुलमोहर के पत्तों का
झर झर कर गिरना,
खुद अपने उन शोख रंग के
फूलों से मोसम में सजना
राह किनारे.
हरसिंगार के नन्हे नन्हे फूलों से
धरती का पटना,
और हवा को मदमाती कर
धीरे बहना,
और वंही मिट्टी में मिलना
कहाँ आज कुछ याद दिलाता?
प्रकृति सुंदरी का यह श्रृंगार
लोगों को अब नहीं लुभाता.
कभी कभी अच्छा लगता है
प्रात: प्रात:
नए शहर के मुख्य मार्ग पर
मुझे भटकना
और कभी यह अच्छा लगता
बिना निमंत्रण
उनका आना .
सभी व्यस्त हों
या वे मस्त हों
दरबो में या फिर महलों में.
हमें एक इच्छा है होती
मैं चिलाऊँ
‘बाहर आओ, खुश हो जाओ
देखो सूरज, महती धरती
और बहूत आगे बढ़ जाओ.’
31.राम से अनुरोध
September 19, 2009
हे राम !
एक पक्षी के बियोग का दृश्य
पिघला दिया था कवि ह्रदय
जन्म हुआ तुम्हारा
अवतरित हुए धरा पर
प्रिय हुए जन मन में
पूजित हुए सबसे ..
क्या तुम्हें ठीक याद है
वह जगह
जंहा तुम पैदा हुए
वह अयोद्ध्या का कक्ष नहीं था
एक कवि की कुटिया थी
क्यों नहीं समझ पाते
नासमझ
क्या यही है कलि प्रभाव .
अब आओ, हो जाओ द्रवित
दुखित हैं नारी पुरुष
तुम्हें गलत समझ,
घट घट वासी हो,
मिलते हो सबसे तुम एक संग.
आओ फिर एक बार,
फूंको एक मंत्र सबके कानों में
‘तुम एक हो
तुम इनके हो, तुम इनमें हो
अयोद्ध्या में नहीं रहते अब
न बनायें ये तुम्हारे
तुम्हें छोटा इतना
आओ अभी, न देरी करो
कंही देरी में जल न जाये
तुम्हारी यह कर्मभूमि,
तुम्हारी स्थापित मर्यादाएं.
32. कबिता: मेरी संगिनी
September 13, 2009
बहूत जब थक जाता हूँ
अपने से लड़ते हुए
परेशान हो, मौन हो
बैठ जाता हूँ अकेले गमगीन
जब आसपास कोई नहीं होता
प्रकृति भी सकते में होती है
जब कोई श्लोक या ध्यान
मन को शांत नहीं करता
और चेष्टा होता है ब्यर्थ
मैं आँख बंद कर लेता हूँ
और फिर एक आश्चर्य होता है
किसी अनजाने जगत से आती
मृदु झंकार से आँख खुलती है
एक गुनगुनाहट ओठों पर आ
एक कबिता में ढल जाने को
आतुर सी दिखती है
उठो, लडो अपने से, अपनों से
स्थापित करो खुद को
कर्म के धर्म को
मत सोचो तुम बृद्ध हो
और हो अकेले
कैसे बदल सकते
कमजोर राष्ट्र के कमजोर रहनुमाओं को
नई पीढी तुम्हारा साथ देगी
लगन लाएगी रंग एक दिन
छायेगी हरियाली, लाली
धन की और मन की
लाएगी हंसी ख़ुशी हर जन की
फिर लेना बिश्राम आखिरी
अभी नहीं, अभी नहीं
कह गयी कबिता
33.एक निर्णय
September 5, 2009
क्या बंद करुँ
अपनी दूकान ?
गाहक तो आते जायेंगें
अपनी मांग बतायेंगें.
कर्ज लिया हूँ जिन जिन से
याचक भी तो आयेंगें
अपनी गरज बतायेंगे.
एक सोच बनाती मौन मुझे
कैसे मांगूगा दिया दान.
कुछ बंद किये जो धंधें हैं
वे भी अबतक के फंदे हैं
याद पुरानी आती रहती
बिना समय का ख्याल किये
मन को मेरे दुखाती रहती
पूजा पर भी
अपनी गलती उनकी करनी
और कई दुखदायी चेहरे
और कई मनभाते चेहरे
सोने पर भी, सपने में भी
कभी यंहां से, कभी वहाँ से
आकर नींद उड़ाते रहते
हमें कभी हर्साते रहते
और फिर कभी सताते रहते
अनजाने भय से
डरकर, मैं सोचा करता
अब क्या मैं छुटकारा ले लूं?
अपनी जालों में हीं
फंसकर
ढोता आया सबको अबतक
कभी कर्म को, कभी नियति को
बना बहाना
आज थका हूँ
नहीं जहाँ अब कोई सहारा
पर भी तय है
अरे! अभी कुछ दिन रूक कर ही
बंद करूंगा अपनी शाला —
34. नेताओं से अनुरोध
August 29, 2009
हे नेता गन ,
क्यों बाँट रहे हो जन को?
बनो दलित या महादलित
या अगर कोई ब्रह्मण हो
क्या बदलेगा ?
और अभी
कहो क्या है अंतर?
ये परिभाषाएं
केवल भीख दिला देती हैं
बढ़ते आगे हम
केवल अपने बल से ही .
ये अंतर का पाठ
बढाता अंतर भारी
देश टूटता
अपनी नजरों में हम गिरते
हंसी कराते हम सब जग में
करो बंद अंतर की बातें
अन्तर्मन की शक्ति जगाओ
खून पसीना अपना देकर
ज्ञान बढाओ
पढो पढाओ.
पथ प्रशस्त है
आओ मिलकर चलो चलाओ
नहीं दान ले बढा कभी कद
किसी ब्यक्ति का
देने से बढ़ता है कद.
देने लायक बनो
हो देने का साहस भी.
नहीं अलग हो चलो
बढो संग ही चलकर.
याद करो तुम
मौर्य बंश की गोरव गाथा
चन्द्रगुप्त की भारत रचना
क्या जाति का अंतर
रोक सका
अशोक की विजय कहानी
और महान बन जाना उसका.
जिस बाबा की मूरत
आज लगाते फिरते
क्यों न सीख लेते भी उनसे
केवल अपने बल पर ही
हम बढ़ पाते हैं
नहीं रोक पाता इसको
वह कोई अंतर
बांधों नहीं निज अंश
तुम्हारा सब है.
बंद करो यह यह मूर्ति युद्ध
जनता भूखी है नंगी है
और नहीं सह सकती यह नाटकबाजी.
और जरा सोचो रूककर-
पढ़ न पाए चाणक्य तो
क्या यह हितकर होगा?
हे नेता
रोको अंतर का
पाठ पढाना.
सभी तुम्हारे हैं
और है यह देश तुम्हारा.
35. सत्तरवां साल
सत्तर बसंतों से
कुसुमित यह जीवन.
मदभरा सुगंध लिए
सतरंगीं संग मिले
कोयल की कूक लिए
गीत लिए प्रीत लिए
रोज नए नृत्य लिए
जीवन संगीत लिए
चांदी के दिन और
सोने की लिए रात लिए
तारों की टिमटिम में
चांदनी की प्यास लिए
सत्तर बसंतों को
पार किया जीवन.
सूरज का ताप लिए
जीवन संघर्ष किये
जीतने की प्यास लिए
शत शत प्रयास किये
सत्तर आतप का
तपा हुआ जीवन..
जीत की उमंग लिए
जीवन तरंग बने
तट तक पहुँचने में
थका हारा जीवन.
सत्तर शीतलहरी को
झेल चूका जीवन.
हर्ष औ उल्लास लिए
सिंदूरी शाम लिए
और अंधेरी रात लिए
सत्तर बरसातों में
भींग चूका जीवन.
अंत कंहाँ, शाम है यह
कल के आयाम को
खोजता यह जीवन.
36. झगडालू रिश्ते
हम प्यार बहूत ही करते हैं
फिर बच्चों जैसे लड़ते हैं
और आँख चुराते चलते हैं
कुछ दूर दूर ही रहते हैं
मन से मिलने को मरते हैं
दोनों ही भोले भाले हैं
या नहीं प्यार के शोले हैं
भावुक हो सोचा करते हैं-
होनी हो या अनहोनी हो
या केवल थोथे सपनें हों
या नहीं अगर भी अपने हों
बातों से बात निकलती है
वह आसमान तक बढ़ती है
फिर एक धमाका होता है
और यह जमीन ही होती है.
यह अपनी रामकहानी है
फिर क्या लोगों को भानी है .
पर वे भी तो ऐसे होंगे
क्या अलग बहूत हमसे होंगे
देवों की कथा सुनी हमने
दानव भी कभी लुभाए थे
फिर सब में बात वही देखी
कहते रहते अपनी शेखी
तुम सुन लो तो तुम अच्छे हो
न सुनो अगर तो कच्चे हो
सब इसीलिए तो लड़ते हैं
हर घर की यही कहानी है
पर समझ न आनी जानी है
हर रोज नया कुछ मिल जाये
यह दिल उससे फिर खिल जाये
यह सोच लिए सब चलते हैं
फिर क्यों अपने से डरते हैं?
इस पर अब हम क्यों लिखते हैं?
हम सपने के सौदागर हैं
सुन्दर सपने देखा करते
फिर उन्हें सजा कर
शब्दों में
सब लोगों में बाटां करते .
क्यों यही नहीं करते रहते
क्यों बच्चों से लड़ते रहते?
37.ख्वाब और जिन्दगी
बचपन के झरोखों से
कुछ ख्वाब जो देखे थे
कुछ पास तो हो आया
कुछ सत्य तो हो पाया.
बचपन के ख्वाबों में
कुछ राह जो देखे थे
कुछ बृक्ष जो रोपे थे
मेरा तो बन पाया
कुछ छाहँ तो दे पाया.
कुछ ठोकर खाया पर
कुछ सीख तो मैं पाया
कुछ दर्द जो मैं पाया
फिर प्यार भी तो पाया
कुछ हार मिली तो क्या
कुछ जीत भी तो पाया
जब साथ मिला तेरा
पथ श्रेय बना मेरा
कुछ जान तो मैं पाया
जब दोस्त बने दुश्मन
पहचान तो मैं पाया
जब फूल खिले पाया
सुगंध ने बौराया
तूफान भी एक आया
जो बाग़ को बिखराया
सब ओर चराचर में
केवल तुमको पाया
मन मेरा हरसाया
फिर सत्य जो मैं पाया
कुछ राह तो चल पाया
थक थक कर जब हारा
फिर हाथ भी मैं पाया
बचपन के ख्वाबों को
मैं पास तो फिर पाया
38. खोती जा रही कबिता
मेरी कबितायें कुछ खो गईं
कुछ कम्प्यूटर के पटल पर
विलीन हो गयीं
क्या इसे भी उम्र पर
डाल दूं ?
इच्छा होने पर भी
कबिता अब ढलती नहीं
कभी गुनगुनाने का
मन ही नहीं बनता
अब वैसी सुन्दर
न बारिस होती है
न अशोक के पेड़
झूमते हैं .
न तारें कुछ कहते हैं
न चाँद कंहीं गुदगुदाता है
अब चारों तरफ
पानी जमा पिच्छल
जमीन है
और सीमा बनाती दीवार
का बंधन है
पानी का ठहराव है
कुछ सोचने पर भी
लगता है पाबंदी है
कैसे शूरूं करुँ
क्या लिखूं आगे?
कबिता ने बनाई थी
अपनी एक अलग पहचान
कहाँ वह खो गई
चली गई
क्या कभी वापस आएगी
इन्तजार करुँ
नियति का आसरा ले
शायद इस उम्र के उस पार
मिलेगी कविता फिर
39.सपनों का दर्द
सपने क्यों हमें सताते हैं
कभी सुख देते,
कभी दुखः देते,
कभी हारने की
उन बाजियों की
जिन्हें जीतना अच्छा होता..
कभी जीत की जो नहीं मिली.
क्यों नहीं सपने छोड़ जाते?
अब क्या करना उनका.
जीवन सपनों से आगे
निकल आया है.
निःसीम आकाश की थाह
लेने.
चाह है
उन तारों में बसे सपनों को
समेट लूं अपने में.
सपने छोड़ जाना है
आने वालों के लिए.
शायद कुछ लोग मिल जाएँ
समय रहते
जो मेरे सपनों को सच
कर दें .
40. श्रोता कवि का दर्द
एक कवि मित्र जब आते हैं
कुछ गीत सुना ही जाते हैं
कुछ दर्द छोड़ भी जाते हैं
श्रोता की तो यह फितरत है
वे अलग लोक के बासी हैं
पर अंकुश-हीन चितेरे हैं
कब स्वप्नलोक की बात कहें
कब दुनिया के दुखः पर रोये
कोई नहीं उन्हें रोक सकता
उनकी यह सब मनमानी है
सुनने भर का अधिकार मुझे
कुछ कहने से कतराता हूँ
क्या बात नाराज करे उनको
यह सोच बहूत घबराता हूँ
चेहरे पर सदा ध्यान रहता
वे चेहरे भी पढ़ लेते हैं
यह सोच डराती है मुझको
पर बात बिगड़ फिर भी जाती
सब बुद्धि धरी रह जाती है
मन बहूत दुखी हो जाता है
मिलने से जी घबराता है
पर फिर भी वे आ जाते हैं
और गीत सुना ही जाते
–
ये मेरा गीत अगीत रहे
क्यों कोई गमगीन बने
सब ख़ुशी रहें
सब सुख बाटें
यह बात सदा कहता आया
और यही बताते जाऊंगा
पर उनको सुनता जाऊंगा
41.
सन १९९९ के दिसम्बर में मुझे दिल का दौरा पड़ा. उस समय उम्र ६० हो चुका था. पर काम के पीछे पागल था. और फिर आपरेशन कराना पड़ा एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट में. मैं जल्दी काम पर जल्दी लौटना चाहता था. डॉक्टर से पूछा था, कब जा पाउँगा काम पर. उस नौजवान डॉक्टर ने मुझे कुछ सलाह दिया. वही इस कविता की प्रेरणा बन गया.
अपनी दुनिया
इतनी हरी भरी दुनिया है
सूरज है चन्दा है
नीले आसमान को देखो
महा चित्रकार द्बारा ही
मेघ बनाते चित्र मनोहर
और रंगीले
वायु उसे उड़ा ले जाते
यहाँ वहां और कंहा.
फैले महाकाश को देखो
तारे उसे सजाते
और कंहा फिर जाते.
और जमीं पर नजर फिराओ
गगन चुमते बृक्ष
पुष्प लता से सजी यही
अपनी धरती है .
और यहाँ इस झील किनारे
झींगुर की झंकार कंहीं
और कहीं जुगनू की चकमक.
नदियों का कलकल छलछल कर बढ़ते जाना
सागर में फिर मिलते जाना.
फिर सागर तट खड़े देख लो
लहरों की वह तड़प,
और खोजना हो गर
सीमा
या अनंत की परिभाषा
तो
उत्तर यहीं मिलेगा तुमको .
और एक फिर दृष्टि घुमाओ
घर जाते बिहगों को देखो
महाकाश में पंख पसारे
सुनो सुनो वे क्या कहते हैं
क्यों उदास हो
अपने नाते रिश्ते लेकर
भूलो सब
और प्यार करो
और फिर आ बैठो
देखो सुनो
और कुछ
हमसे समझो.
और अगर तुम समझ न पाओ
मिथ्या दोष न दो तुम उसको.
42
खोपड़ी पर अनाचार
मेरी खोपड़ी पर कुछ
घाव हैं पुराने.
हर बार जब समय उन्हें
भर देता है
मेरे तीखे नाखून
उन्हें खुरेद देते हैं गहरे पैठ.
और दर्द बढ़ जाता है
सहने की सीमा से आगे.
मन चाहता है
कोई मेरी खोपड़ी सहला दे,
पर आजकल कहाँ मिलता है कोई.
फिर मन कड़ा कर
कुरेदना बंद कर देता हूँ
दर्द धीरे धीरे
कम हो जाता है
सामान्य चलने लगाती है जिंदगी.
पर पता नहीं क्यों और कब
किस मानशिक तनाव के कारन
फिर नाखून उन घावों को
खुरेदने लगते हैं
पहले कुछ आनंद मिलता है
उन घावों की सुखी की पपड़ियों को
देख संतोष होता है
पर नाखून गहरे जाने लगते हैं
घाव हरे हो जाते हैं
दर्द बढ़ जाता है.
यह बार बार होता है
न मैं बदल सकता
न दर्द
न जीने की तमन्ना.
फिर एक दार्शनिक प्रश्न
कहीं कुलबुलाता है.
घाव और दर्द क्या
जीवन के अभिन्न
अंग हैं?
कहीं से शंखनाद
हामी भरता है.
43.शिकायत से स्वीकृति तक
अमित गरल जीवन भर पीकर
कहो कहाँ मैं शिव हो पाया
कठिन परिश्रम पागलपन तक
कहो कहाँ कब शिखर झुकाया
सदा चला अपने हीं पथ पर
शायद वह पथ उन्हें न भाया.
सपने देखा और दिखाया
राह चला और राह बनाया.
अपने आगे की थाली को
उन्हें खिलाकर
अपने ही सुन्दर बस्त्रों से
उन्हें सजाकर
कठिन परिश्रम से अर्जित धन
उन्हें लूटा कर
उन्हें सजाया उन्हें बनाया
मेरी पूजा, मेरी मन्नत
तुम सब हित हो
यही सदा मैं करता आया
फिर क्यों नहीं भरोसा पाया
नहीं किसी को खुश कर पाया
साथ नहीं पर कोई आया .
पर क्यों सोचूँ ?
क्या खोया हूँ क्या हूँ पाया?
नहीं देव! यह नहीं शिकायत
आज सत्य समझ हूँ पाया
तुम ही सब हो
सदा रहे हो पास हमारे
थक थक कर जब मैं सोया हूँ
तुम्ही जगाये, तुम्ही चलाये
तुम पाने की आश जगाये
और दिलाये
और देव ! मैं सच कहता हूँ
सब कुछ पाया.
—————-
खोती जा रही एक दुनिया
समय के साथ हजारों शब्द
और वे चीजें
कहाँ गए कोठे, बरजा
और आँगन के शिव बाबा
न ढेंका, जांत, और न ओखल मूसर
न वे गीत
न डाली, न ओडी, न दवूरा, न सुप
न सिल ही कहीं है, न लोढा
न पितरियावा लोटा, न कंसह्वा डूभा
फिर बटलोही, कठवत तो
बहूत भारी हैं
अब न आग मांगने कोई जाता
न मसाला पिशा जाता
न मथनी चलती, न बेछिनुई दही
न गोरस, न फेनूस, न खोआ
न लयनू, न मिसिरी के ढेला
यहाँ तक की मट्ठा भी
महंगा है
और साथ गए छिपा और खोरा भी
कौन इस सबका जहमत उठाये
अब तो गुर भी दिखता नहीं
फिर रस, राब कहाँ खोजें
इनारे गायब और ताल तलैया भी
और उसमें लेवाड लेती भैसे
और चलते ढेकूल, सैर और दोन
नहीं रहीं रेंहट, न बैलों की जोड़ी
अब हल नहीं बाँधते जोगन या लंगटू
इनार कहाँ गए
साथ ही गए गगरा, घइला
और डोर भी
जाड भी आया पर
न कवूर जलता न बोरसी
न तिलवा मिलता है न सोंठ
अब तो गाँव में भुजनिहारिन
ही नहीं, न मलहोरिन
और दरवाजे सुने
नरिया खपरा के साथ
भूंसंहूल भी गायब
न कहीं चैइता, न होरी
या बारहमासा या रामायन
कितने शब्द भी कभी न
सुनेगें, न उन चीजों को
हम देख पाएंगे
क्यों न समय रहते कोई सहरी
बनाये हर क्षेत्र में
कुछ जादूघर |
२००६ में लिखी गयीं थी
एक भजन
तेरे मंदिर में आकर
मैं जीवन दीप जलाऊ |
जीवन भर पुष्प बटोरे
चरणों में उन्हें चढ़ाऊ |
दिल के कोने से निकले
मैं गीत माल्य पहनाऊ |
और अंत समय आये तो
इन चरणों में सो जाऊं |
२
कुछ प्रश्न मुझे करने हैं
क्यों बाप सदा चुप हो सुनता
क्यों पुत्र करें सब मनमानी
क्यों माँ बनती घर की महरी
क्यों पत्नी सदा सब सच कहती
कुछ प्रश्न उभरते रहते हैं
मेरे सब पर अधिकार तेरा
तेरा सब केवल है तेरा
क्यों हमी सभी करते जाएँ
चाहे भी पर न कर पायें
जब पैर मेरे डगमग करते
जब हाथ दगा दे जाते हैं
कुछ प्रश्न निकलते जाते हैं
३
जब सुना तुम्हारा आना तो
जीने का कुछ अर्थ निकल आया|
यादों के झोंकों का
फिर उमड़ घुमड़ आना
इस दिल को बहलाना |
निस्वाद बना जीवन
फिर स्वाद नया पाया |
वह किलकारी भरना
और हाथ उठाते ही
दौड़े दौड़े आना
गोदी में आ जाना |
जब सुना तुम्हारा आना तो
जीने में कुछ लुफ्त नया पाया |
वह केशराशी सुन्दर
वह प्यारी सी चितवन
वह ठुमक ठुमक चलना
फिर फिर कर वह गिरना
वह पल में हरसाना
फिर चीख तेरी सुन कर
वह सबका डर जाना
फिर स्वांग नया रचना
सब याद बड़ी प्यारी
जब सुना तुम्हारा आना तो
एक आश नई जागी,
पर उम्र बढ़ा पाया
क्या भूल गए होगे
क्या बदल गए होगे
सब सीख गए होगे
सौ प्रश्न चले आते
इस मन को दहलाते
विश्वास है फिर आता
यह रक्त हमारा है
सब याद जिया होगा
यह सोच मैं हरसाया |
जब सुना तुम्हारा आना तो
जीने में आनंद नया पाया |
अच्छी जानकारी, सर्वश्रेष्ठ उपयोगी पोस्ट, शेयर this.I के लिए धन्यवाद वापस आने के लिए और अधिक पढ़ा होगा.