भारत बनाम चीन- भारत क्या जीत सकता-हाँ या नहीं, कैसे हाँ

भारत बनाम चीन- भारत क्या जीत सकता-हाँ या नहीं, कैसे हाँ
हमारी मानसिकता में समस्या से जुझने और हल निकालने का विचार इतने सालों की ग़ुलामी के कारण कम से कम होती गई है। आज फिर हर व्यक्ति में अपनी, समाज की, देश की वैसी मानसिकता को मिटाना है। चुनौती लेना है।

उसके उदाहरण है पिछले वर्षों की कुछ बदलाव की उपलब्धियों की कहानी। हमने कोविद की अपनी वैक्सीन बनाने की चुनौती ली, सफल हुए और अपने और अन्य देशों के करोड़ों की जान बचाई। ५ जी की और चन्द्रयान-३ की सफलता या अपनी डिजिटल अनुसंधानों से मोबाइल फ़ोन को हर हाथ में कहीं भी पैसे निकाल देने और लेने का साधन बना देने के पीछे भी उसी तरह की मानसिकता थी। हम चीन से मुक़ाबला अगर करने की सोचते हैं तो हर क्षेत्र और सामान बनानेवाले और आयात से अपनी जरूरत पूरा करनेवाले उद्योगों के मालिकों एवं उनके मैनेजरों इंजीनियरों वैसी मानसिकता लानी होगी। किसानों को कृषि क्षेत्र के हर पैदावार में विश्वस्तरीय उत्पादकता लाने के लिये भी उसी मानसिकता की जरूरत है। हर विद्यार्थी और उनके माता-पिता, शिक्षकों को वही उत्साह बच्चों में देना होगा। महंगे कोचिंग से देश का हर बच्चा न शिक्षा में, न हुनर में किसी काम का बन पायेगा। विशेषकर निजी क्षेत्र की बड़ी से बड़ी के साथ छोटी से छोटी इकाइयों के मालिकों और उनके द्वारा अपने यहाँ काम करते हर व्यक्ति में उसी मानसिकता को लाना होगा। अन्यथा केवल उनके पास में अकूत धनराशि होगी , चल अचल और बैंकों में या शेयरों में। हर सेक्टर के निजी औद्योगिक मालिक और उनके कुछ चुने हुए ऊपर के २-५ % एक्ज़ीक्यूटिव, कम्पनी के कुल लोगों के वेतन पर खर्च किये जाने वाली राशि का ८० % प्रतिशत हिस्सा लेते हैं, और ८-२०% जही राशि बाक़ी लोगों में बंटता हैं और सबसे नीचे की बड़ी संख्यक लोगों को तो बहुत ही कम वेतन या अन्य फायदा मिलता है, जिसके कारन न उनके पास घर होता है, न परिवार के लोगों को अच्छा खाना नसीब होता है, न उचित शिक्षा या हुनर। यह हाल विशेषकर पश्चिमी देशों के पूँजीपतियों की नक़ल के कारण हुआ है। यह भारतीय विचारधारा के पूरी तरह से विपरीत है।


मैं खुद उन पुराने बड़े पूँजीपतियों के यहाँ काम किया है १९६१-२००० तक और पहले भी औद्योगिक छोटे शहरों में ही रहा हूँ जहां मेरे दादाजी और चाचा काम करते थे।उस समय के मालिकों की सोच कुछ ज्यादा भारतीय थी परम्परागत थी। रामराज्य के सपने को साकार करती। वे अपने नीचे नीचे कर्मचारियों के बारे में सोचते थे और उनको सब तरह की सुविधा देते थे। रहने का घर, बच्चों के पढ़ने के स्कूल, या दक्षता की शिक्षा की व्यवस्था। मैंने उषा सिलाई मशीन और फ़ैन बनाने वाली कम्पनी के प्रमुख मैनेजर टी. आर. गुप्ता को सुना था, बात की थी और उनके बारे पढ़ा था। जो साल में ६ महीने का वेतन एक ख़ास अवसर पर हर साल हर को देते थे। यह कहानी लम्बी हो जायेगी। व्यवस्थित सेक्टरों के उद्योगपतियों को इसी तरह की सोच रखनी होगी। हर कर्मचारियों को कम्पनी का भाग बना हर चुनौती का मुक़ाबला करने की मानसिकता बनानी होगी जिससे हर छोटे बड़े और नये चीजों का अपने यहां बना या बनवा सकें, और निर्यात पर विशेषकर चीन जैसे देश पर नहीं निर्भर रहना पड़े। नये पुराने, छोटे बड़े सभी तरह के उद्योगों के नेतृत्व को जुझारू मानसिकता लाने की जरूरत है, केवल सरकारी रेवड़ी से एक दिन मौज किया जा सकता है, बराबर नहीं। पर चुनौतियों से लड़ने के बल पर आप हर कर्मी को मौज की ज़िन्दगी मुहैया करा सकेंगे और पुण्य कमा सकेंगे ।


प्रधानमंत्री ने भारत में एक विमान विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र बनाने की कामना की, क्योंकि उन्होंने भारत के एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम), विशाल प्रतिभा पूल और भारत में स्थिर सरकार के मजबूत नेटवर्क की क्षमता पर प्रकाश डाला, ताकि बोइंग जैसी कंपनियां एक विनिर्माण संयंत्र शुरू कर सकें भारत में। वे बोइंग के अमरीका के बाहर भारत में बने सबसे बड़े डिजाइन सेंटर का उद्घाटन करते हुए कहा। इन उद्योगों के सर्वेसर्वा विश्व स्तर भारत सहित विश्व के लिये ज़रूरी स्तर पर अनुसंधान, गुणवत्ता एवं उत्पादन की क्षमता बनाने की मानसिकता होगी और उसी के अनुरूप अपने सभी कर्मियों को ढालना होगा, केवल निजी धनार्जन की नहीं।


(PM wished to build an aircraft manufacturing ecosystem in India as he highlighted the potential of India’s strong network of MSMEs (micro, small and medium enterprises), huge talent pool, and stable government in India, so that the companies like Boeing starts a manufacturing plant in India.)

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देश एक संक्रमण काल में

देश एक संक्रमण काल में
पूरा शीतकालीन संसद का अधिवेशन में प्रदशित दृश्य मुझे अपने कार्य काल में हिन्दुस्तान मोटर्स में यूनियन के नेताओं के मनमानी हुड़दंगों की याद दिलाता है। जब इच्छा हो काम बन्द कर दे। संसद में देश की समस्याओं पर बहस क्यों नहीं होती? विपक्षी दल देश की समस्याओं पर बहस क्यों नहीं करना चाहता? क्यों विपक्ष कोई भी उल्टा सीधा माँग रख कर हल्ला क्यों करने लगता है? यह क्या यूनियन और मालिक वाले ढंग से चलेगा । देश के लिये यह सब अशोभनीय है। देश के सीमा पार के दुश्मन देश खुश हो रहे होंगे। कभी कभी इन सब बारदातों में उन्हीं विदेशी ताकतों का हाथ दिखने लगता है। एक प्रश्न यह भी आता है कि क्यों सदन को न चलने देनेवाले लोगों की तनख़्वाह कटनी चाहिये? अजीब लगता है हम पुराने लोगों को….समाचार पत्र लेना या टीवी के न्यूज़ चैनेल देखना तो बन्द कर दिया हूँ। लोगों की इन पर किये जानेवाली बातों भी सुनना बन्द कर दिया जाये। अगर संसद ही मर्यादाहीन आचरण करे, तो समाज के कुछ राक्षसी प्रवृति के लोग जो आचरण कर रहें है, उसे कौन रोकेगा। सभी धर्म के ठेकेदार तो शहरों के मालदारों से पैसे कमाने व्यस्त हैं, गाँव में हिन्दू को अपढ गंवार तथाकथित ब्राहमण जाति के लोगों पर छोड़ दिया गया है। बड़े बड़े या शादी ब्याह, मृत्यु आदि अवसर ही इन पंडितों की कमाई का साधन है। कौन लोगों के आचरण को बनायेगा। ऊपर से उनके प्रतिनिधि अगर ऐसे हों।


बड़ी संख्या में सांसदों को निलम्बित करना यद्पि ठीक नहीं है, विपक्षियों के कार्य तो वोट बैंक को आकर्षित करने के लिये किया जा रहा है। जया बच्चन अपनी स्वतंत्र पहचान छोड़ अमिताभ की बीवी बन अपने को एक ऐसे दल जो पूरी तरह के साथ एक वेईमान परिवार का रहा है । क्यों अपने यहाँ के कुछ शिक्षित लोग भी गांधी परिवार का समर्थन कर रहा है जिनमें सब तरह के दुर्गुण हैं। कबतक नेहरू और ग़लत ढंग से गांधी कहला यह परिवार देश के सहज साधारण बुद्धि के लोगों को बरगाला रहेगा।


देश के लोगों को एक उचित निर्णय लेना होगा, जब एक तरफ़ सुनहरा भविष्य दिखता हो, दूसरे तरफ़ पूरा अंधकार। खड़गे जो पूरी तरह से सोनिया गांधी के चमचे हैं, क्या प्रधान मंत्री बनने योग्य है। देश साम्यवादी विचारों के लोगी साजिश एक महान राष्ट्र इस अद्भुत प्रजातंत्र के कारण अपनी अपनी विराशत खो देगा?


कभी लगता है कि इसके पीछे विदेशी बडी शक्तियाँ और वहाँ के सोरोस के अरबपति लोगों और चीन की तरह धनी दुश्मन देशों का हाथ हैं। देश का दुर्भाग्य है कि नेहरू परिवार के प्रति लोग उनकी अपनी विदेश यात्राओं दिये व्यक्तव्यो को देखने सुनने के बाद उस परिवार को यहाँ रहने ही दे रहे हैं, पर उनको मनमानी करने की छूट है। कांग्रेस की अकूत सम्पत्तियों के मालिक हैं।क्या सब विरोधी पार्टियाँ देश के लिये बहरी, गूंगी, अंधी बन गईं और यही देश के असंख्य बुद्धिजीवियों का भी है।क्या हम ‘जननी, जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’, ‘ कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’, ‘श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः पर-धर्मात् स्वनुष्ठितात्’?

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आज के प्रदेशों के चुनावों के नतीजे- एक विचार


भारत एक अजीब देश है शायद यह हरदम ही ऐसा ही था। इतिहास गवाह है। हवा ऊपर से नीचे नहीं बही, ऊपर से नीचे ही बहती रही। कांग्रेस, चाहे केरल हो, या कर्नाटक या तेलंगाना या तमिलनाडू- अगर वोट पाती है या जीतती है तो स्थानीय परिवारिक दलों के प्रदेश में वर्चस्व मिलने पर किये जानेवाले मनमानी हरकतों के कारण होती है। चन्द्रशेखर बेताज बादशाह होते जा रह थे और उनके उत्तराधिकारी उनके बेटे योग्य होते हुए भी नवीन पट्टनायक नहीं बन पाये दस सालों में। यही हाल पश्चिम बंगाल का भी है, वहाँ भी क्षेत्रीय भावना दृढ़ रही है और इसी कारण भाजपा कुछ थोडी उठी पर फिर नीचे आ गई। पर वहाँ बीजेपी असफल रही। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को क्षेत्रीय शक्ति बननी होगी। वहाँ के अच्छे लोगों को पार्टी में शामिल करना होगा। उन्हें क्षेत्रानुसार रणनीति बदलनी होगी। हिन्दी प्रदेशों के नेताओं के बल पर बीजेपी सरकार पूरे देश का नेतृत्व नहीं कर सकती। सफल नहीं हो सकती। मुझसे बहुत विद्वान बीजेपी में होंगे और उन्हें इन प्रदेशों की रणनीति का कुछ आज की लीक से हटकर एक दम नया और कारगर रास्ता खोजना पडेगा। उन्हें एक इन रणनीतियों में पारंगत नेता खोजना होगा या तैयार करना पडेगा। अगर तेलंगाना की विजय को गांधी परिवार अपनी विजय मानती है तो यह बड़ी गलती होगी।जीत दिलाने वाला अखिल भारतीय छात्र परिषद से निकला और आज तेलंगाना मुख्य मंत्री बनेगा। दक्षिण के आज के कांग्रेस के प्रेसीडेंट खरगे और कर्नाटक के कुछ नेताओं का तेलंगाना के राजशेखर को हराने में मुख्य भूमिका रही है। राहुल गांधी या प्रियंका गांधी या उनकी माताजी का इसमें कोई बडा योगदान नहीं समझना चाहिये। दुर्भाग्य है अब कांग्रेस के पास नये नेता नहीं हैं २०२४ के चुनाव के लिये। इन्दिरा, राजीव गांधी जमाने के नेता या तो नहीं रहे या बहुत ही वृद्ध या बदनाम हो चुके हैं। कमलनाथ और गहलोत उन्हीं में है। देश के मजबूत विपक्षी पार्टी होनी चाहिये। पर भारत में ३०-४० पार्टियों का गठबंधन कभी ज़रूरी शक्तिशाली विपक्षी पार्टी नहीं बना सकता। अब देश हित बहुत सारी पार्टियाँ को विलय हो, दो या तीन राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां पैदा होनी चाहिये।
जहाँ तक भाजपा का सवाल है, २०२४ के बाद मोदीजी अपने समान ही कुछ लोगों को उत्तराधिकारी बनने के लिये तैयार करने चाहिये। यह उनका राष्ट्रीय हित का दान होगा और तभी २०४७ का ‘अमृत उन्नत भारत’ बना सकेगा।

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सनातन धर्म की वैज्ञानिक वर्ण-व्यवस्था

उपनिषदों में असुरों की बात आई है। गीता के अध्याय 16 में  देव एवं असुर दो भाग किया गया मनुष्यों का ही- ‘द्वौभूत सर्गो लोकेऽस्मिन्दैव असुर एव च’-  (16.6)। उपनिषदों के कहानियों में कुछ व्यक्ति व्यक्तियों के जाति के नाम आये हैं। भगवद्गीता में चांडाल के लिये ‘श्वपाक’ शब्द का व्यवहार हुआ है (5.18) यहाँ तक कि कृष्ण के लिये भी ‘यादव’ शब्द का उपयोग किया गया है।(11.41) महाभारत में रथचलानेवालों के लिये ‘सूत’ (कर्ण को सूतपुत्र), मतंग मुनि को जन्म से ‘चांडाल’ कहा गया है-

स्थाने मतंगो ब्राह्मण्यं नालभद भरतर्षभ। चणडालोयोनौ जातो हि कथं ब्राह्मण्यमाप्नुयात्॥

– युधिष्ठिर ने कहा, हे भीष्मपितामह, कृपया मुझे बताएं कि मतंग महर्षि जो चांडाल के रूप में पैदा हुए थे, अपने जीवन में ही ब्राह्मण कैसे हुए?’ महाभारत अनुशासनपर्व

न शूद्रा भगवद्भक्ता विप्रा भागवता: स्मृता:। सर्ववर्णेषु ते शूद्रा ये ह्यभक्ता जनार्दन।

यदि भगवद्भक्त शूद्र है तो वह शूद्र नहीं, परमश्रेष्ठ ब्राह्मण है। वास्तव में सभी सवर्णों में शूद्र वह है, जो भगवान् की भक्ति रहित है।’ (महाभारत)

बाल्मिकीय रामायण के बालकाण्ड में एक कहानी है। राजा राम के गुरू वशिष्ठ ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण थे। पर विश्वामित्र जो क्षत्रिय वर्ण के प्रसिद्ध राजा थे और राम के धनुर्विद्या के गुरू। राम के समय तक अपनी इन्द्रियों को अनवरत बहुत काल तक की तपस्या से वश में कर ब्राह्मण बन चुके थे और यह खुद ब्रह्मा और वशिष्ठ दोनों के द्वारा अनुमोदित किया गया था।        

शायद हमारे धार्मिक ग्रंथों में भगवद्गीता के अध्याय ४ के १३ श्लोक में मनुष्य समुदाय के चार वर्णों को भगवान कृष्ण अपने द्वारा बनाया बताते है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः 
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥4.13॥

भगवद्गीता के 18 अध्याय के श्लोक 40 से 45 में ये चारों वर्ण परिभाषित हैं और उसमें उसके निर्णय का आधार ‘स्वभावप्रभैवगुणो’ बताया गया है। फिर बाद के श्लोकों में चारों वर्णों के कर्म बताये गये है। नीचे वे श्लोक हैं-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥ 18.41॥

हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं ॥41॥

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌ ॥18.42॥

अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं ॥42॥

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌।दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌॥18.43॥

शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ॥43॥

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्‌।परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्‌॥18.44॥

खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है उसका नाम ‘सत्य व्यवहार’ है।) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ॥44॥

 

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌।स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥18.46॥

जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त है), उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है ॥46॥

ऊँची जाति के लोग के अपने कर्मों को न करने और निचले वर्ण लोग के ऊँचे वर्ण के कर्मों को करने फल क्या होगा?

श्रीमद्भागवत (3.33.7 और 7.9.10) श्लोकों में कहा गया है कि अपने वर्तमान जीवन के कर्म से चांडाल ब्राह्मण बन सकता है और ब्राह्मण चांडाल। श्लोक नीचे दिया जा रहा है-

यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यजकम्। यदन्यात्रापि दृश्येत तत् तेनैव विनिर्दिशेत्॥7.11.35॥ श्रीमद्भागवत

जिस मनुष्य के वर्ण को बतानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवाले में भी मिलते हैं तो उसे भी उसी वर्ण का समझ लेना चाहिये।

मनुस्मृति में भी इसी तरह का आदेश है-

पाषण्डिनो विकर्मस्थान्बैडालव्रतिकांछठान्।हैतुकान्बकवृत्तींश्च वांमात्रेणणापि नार्चयेत्॥ मनुस्मृति 4.30

-‘पाखण्डी, विरूद्ध कर्म करनेवाले, बैडालव्रती, शठ, हेतुवादी, बकवादी, ब्राह्मणों का वचनमात्र से भी आदर न करें।’

न वार्यपि प्रयच्छेत्तु बैडालव्रतिके द्विजे। न बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि धर्मवित् ॥मनुस्मृति 4.192

-‘धर्मज्ञ गृहाश्रमी बैडालव्रती और वेद को नहीं जाननेवाले ब्राहमण के लिये पानी भी न दे।’

भगवत् गीता में ही चांडाल और ब्राहमण को पंडितों एक दृष्टि देखने की शिक्षा गई है (5.18 श्लोक)। स्त्रियों में सबसे नीच समझे जानीवाली वैश्या, वैश्य (पता नहीं ‘वैश्य’ क्यों) और शूद्र को भगवान ब्रह्म कृष्ण अपनी भक्ति का और मोक्ष का समान अधिकार देते है (9.32 श्लोक)

आज की सामाजिक अनुसार एक परिवर्तन

हम सभी, विशेषकर मध्यम वर्ग के लोग अगर गृहस्थ जीवन में सभी वर्णों के गुणों का समन्वय ठीक तरह से अपने नहीं कर सकते हैं तो वे एक अच्छे सुखी व्यक्ति या अच्छे नागरिक नहीं बन सकते। इसे सभी समझते सकते हैं।

हम जिस किसी काम में लगें हमें उस ख़ास विषय का विशेष ज्ञान अर्जन करते रहना होगा, अपने किये व्यवसाय या नौकरी में उन्नति के लिये। अपने बच्चों को पढ़ाने के लिये अपने भी जब तक हो सके उसके लिये ज़रूरी ज्ञानों को यथासंभव अर्जित करना होगा। साथ अपनी जिवीका चलाने के हम जो काम करने उसमें पदोन्नति हमें अलग स्तर पर ज़रूरी ज्ञानों को भी सीखना होगा ( ऐसा करते समय हम ब्राह्मण होते हैं)। हम अपने जीवन को सम्पन्न बनाने के लिये विना व्यवसाय-बुद्धि (वैश्य गुण) से अर्जित धन को ज़रूरत के अनुसार खर्च या निवेस कर ही वर्तमान और भविष्य की ज़रूरतों के लिये उसे बढ़ा नहीं सकते। बिना क्षत्रियों के गुणों के हम न अपनी नौकरी और न अपनी सम्पति, न अपने परिवार की रक्षा कर सकते। और बिना परिचायात्मक कर्म किये तो हम एक दिन भी नहीं जी सकते। हमें अपने घर के कर्म, साफ़ सफ़ाई करना, अन्य काम करते ही रहना होगा (यहाँ तक की अपने बाथ रूम के कमोड आदि की सफ़ाई भी) सोचिये, यही सब परिचार्यत्मक कर्म (शूद्र) है। सोच कर देखिये कोई भी इससे विचार असहमत नहीं होगा। साथ जो हमारा जीविका का कर्म है, वह अपने जाति के कर्म अनुसार नीचा होने पर भी करना होगा, उदाहरण के लिये डाक्टर, नर्स आदि सभी बड़े छोटे कर्म।

आशा है, वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्त आपको पसन्द आये होंगे।

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जातिय आधार पर जनगणना, इतिहास, धार्मिकता

बिहार पहला राज्य है जो अपने जनसंख्या की लोगों का जाति के आधार पर किया एक सर्वे प्रकाशित किया, जो बहुत चर्चे में है। देशहित विकाश के ज़रूरी मुद्दों को छोड़ बिरोधी दल का देश के लोगों में आपसी मतभेद ला चुनावी जीत हासिल करने का यह शायद दुनिया के किसी देश का पहला प्रयत्न है। अन्य बिरोधी दल शासित प्रदेश सरकारें भी जाति के आधार पर जनगणना कराने की वायदा कर रहीं हैं। दसकों शासन करनेवाली कांग्रेस, विशेषकर राहुल गांधी, जातिगत जनगणना के सबसे बड़े पक्षधरों रहें हैं आते प्रदेशों और फिर २०२४ के आम चुनावों को देखते हुए। देश में जाति की बात करना और किसी से उसकी जाति पूछना मेरे समझ में किसी भारतीय हिन्दू का एक राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का महापाप कर्म है।

जाति प्रथा सनातन धर्म की देन नहीं है और बढ़ते हुनरों की ज़रूरत के अनुसार इनकी संख्या बढ़ती गईं। शायद आज भारत में जातियों की संख्या हज़ारों में हैं। साथ ही जातियों में बहुत उप-जातियाँ भी बन गईं हैं, जिनमें एक दूसरे शादी नहीं करते, और एक को दूसरों से नीचा या ऊँचा कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के बारे में तो मुझे पता है। पर अन्य जातियों में यह होगा ही।


समय बदल गया है जब जाति की कोई आवश्यकता नहीं है। सभी वर्गों को शिक्षित होने और हुनर सीखने का अधिकार है। आज सबसे ज़्यादा कमाई व्यवसाय में है, आज की सरकार भी यही प्रयत्न कर रही है, किसी जाति के अध्यवसायी चाहे पुरूष हों या स्त्री स्टार्ट-अप एवं छोटे व्यवसायों के लिये भी बहुत कम दर के व्याज पर क़र्ज़ देकर उन्हें सम्पन्न बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है। फिर जाति आधारित संरक्षण क्यों? कबतक कुछ परिवारवादी राजनेता वर्ग देश के लोगों की कमज़ोरियों का फ़ायदा ले वोट की राजनीति करते रहेंगे। आजतक इन प्रदेशों उन राजनेताओं ने, जो मुख्य मंत्री बने, चाहे बिहार के लालू- परिवार हों, मुलायम सिंह यादव हों, या पंजाब का बादल हों, हरियाना के चौताला या महाराष्ट्र के शरद पवार, या ठाकरे हों, या तेलगांना का या आंध्रप्रदेश के चन्द्रबाबू नायडू या तमिलनाडु के करूणानिधि, आदि और अब ममता बनर्जी या फिर केन्द्र का गांधी परिवार- केवल अपने परिवार के लिये अकूत सम्पति जमा करने और अपने ही परिवार के लोग उनके उत्तराधिकारी बनाने को निश्चित करने के वोट बैंक की राजनीति को छोड़ कोई राष्ट्र को एक करने, समाज के सबसे कम आय करनेवाले निचले वर्ग के लोगों की ज़िन्दगी ख़ुशहाली लाने में न मन से प्रयत्न किये और वैसा कुछ बदलाव आया। देश के प्रधान मंत्रियों में न लाल बहादुर शास्त्री, न अटल बिहारी बाजपेयी, और अब नरेन्द्र मोदी या अन्य राजनेताओं जैसे कामराज नादर, बिधान चन्द्र राय और आज के ओड़िसा के नवीन पट्टनायक… के मुख्य मंत्री की तरह के ईमानदार और लोग हुए।

तथाकथित बड़ी तीन या चार बड़ी जातियों पतन के रास्ते पर है। अपने को बड़ी जाति की पुरानी मानशिकता मिट नहीं रही है। न वें पढने में बड़ी संख्या में आगे हैं, न हुनर सीखने में दिलचस्पी रखते हैं। अब कुछ वर्षों में सम्पन्नता जाति के आधार पर ज्यादा कम नहीं होगी, उसका आधार होगा है, शिक्षा या हुनर और उसमें दक्षता।


भारत में करीब 3,000 जातियाँ और 25,000 उप-जातियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक एक विशिष्ट काम में दक्षता से संबंधित हैं। कैसे बाँटेंगे, सभी जातियों में उनकी आबादी के अनुसार उनका हक़। कैसे राहुल गांधी का भारतीय जनता को बरगलाता यह ट्वीट ‘Jitni Abadi Utna Haq’ – this is our pledge,” Rahul posted on ‘X’, ज़मीनी हक़ीक़त बनायेंगे। फिर वे क्या अपने को अपने परनाना जवाहरलाल नेहरू से भी समझदार समझते हैं? Jawaharlal Nehru had said: “This way (ever larger scope of reservation) lies not only folly but also disaster. Let us help the backward groups by all means, but never at the cost of efficiency.” जवाहरलाल नेहरू ने कहा था: “इस तरह (आरक्षण का व्यापक दायरा) न केवल मूर्खतापूर्ण है, बल्कि विनाशकारी भी है। आइए हम पिछड़े समूहों की हर तरह से मदद करें, लेकिन दक्षता की कीमत पर कभी नहीं।”

दुर्भाग्य है कि अब जाति प्रथा पर बहस राजनीतिज्ञ कर रहे हैं, ज्ञानी, कोई व्यास या शंकराचार्य नहीं, जिनके लिये न राष्ट्र महत्व रखना है, देश का विश्व के देशों में वरीयता का स्थान।


संरक्षण के बाद दूसरा बदलाव का दौर आया। बहुत बढ़ई, लोहार, भांट आदि अपने को शर्मा कहने लगे। कायस्थ ऊँची जातियों में रहीं होगी, पर वे भी अपने को चित्रगुप्त के बंशज पर टीक गये।

जाति प्रथा में पिता माता की जाति पर बच्चों की जातियाँ होती हैं। इस प्रथा में न कोई वैज्ञानिकता है, न आज के बदलते समाज पर यह लागू हो सकता है। मैं भूमिहार या ब्राह्मण कैसे हो सकता हूँ, जब न खेती करता हूँ, न ब्राह्मण के गुण रखता हूँ। राजा या सैनिक बनना केवल क्षत्रियों तक कभी सीमित नहीं रहा। तथाकथित नीच जाति का होते हुये एकलव्य सबसे मशहूर धनुर्धर बना और एक ब्राह्मण धनुर्धर क्षत्रिय अर्जुन के कारण उससे बरगला कर अंगूँठा काट माँग लिये।मंतग चंडाल होते हुए भी अपनी तपस्या से ब्राह्मण बन गये। आज जब सभी जाति के लोगों के लिये, स्त्री, पुरूष, नपुंसक सबके लिये सभी पेशा, नौकरियाँ खुली हैं, चाहे सेना हो या खेल का मैदान या राजनीति। महिला अपने देश की सफलत्तम वित्त मंत्री हैं, बड़ी जाति के नहीं तथाकथित निचले वर्ग से आया ब्यक्ति देश का अबतक के हुये महानतम प्रधान मंत्रियों में एक है। यही भारत का सनातन धर्म है, क्योंकि हमारे ऋषियों ने सिखाया है-

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥५॥
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥ ६॥

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सुन्दरकाण्ड का सौंदर्य

सुन्दरकाण्ड का सौंदर्य
वर्षों से रामचरितमानस के सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड का रोज़ पाठ करता हूँ। पहले दिन में अपनी मर्ज़ी के अनुसार खाने के पहले नहाकर किया करता था। पर जब से यमुना ज्यादा अस्वस्थ रहने लगीं, और मेरे सहायता की ज़रूरत पड़ने लगी, मैं बहुत सबेरे ही, नित्यक्रियाएं- स्नान, शान्तिपाठ, गीता के एक अंश का पाठ, सुन्दरकाण्ड का पाठ, घूमना आदि खत्म कर लेता हूँ, जिससे ज़रूरत के अनुसार किसी समय उनकी सहायता कर सकूँ। और तभी से मुझे इस सुन्दरकाण्ड की सुन्दरता भी कुछ कुछ समझ में आने लगी।मंगलाचरण के ब्रह्म रूप सगुन राम के वर्णन के लिये व्यवहृत शब्दों के अर्थ की समझ हुई। दोहों,चौपाइयों के रोज़ नये नये राज खुलने लगे।कथा भाग का प्रयोजन समझ आया।

रामचरितमानस के सातों काण्डों में सुन्दरकाण्ड सबसे ज्यादा लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। बहुत संतों ने इसका दैनिक पाठ करने की बात कही है। तुलसीदास ने रामचरितमानस के बालकाण्ड और फिर इस सुन्दरकाण्ड में हनुमान की भी मंगलाचरण में प्रार्थना की है। कहा जाता है कि तुलसीदास की भगवान राम और लक्ष्मण से भेंट हनुमानजी ने ही करवाई थी चित्रकूट के घाट पर। सुन्दरकाण्ड की सुन्दरता पर कोई सवाल ही नहीं उठाया जा सकता।

सुन्दरकाण्ड के पहले भाग के मुख्य हनुमान जी हैं और दूसरे खण्ड में विभीषण। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार दोनों रामभक्त सदा अमर हैं। एक तीसरे अमर जामवन्त का प्रसंग भी सुन्दरकाण्ड में आया है।

पहला भाग

मंगलाचरण की सुन्दर भगवान की प्रार्थना-

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥
हे राम ! मैं सत्य कहता हूँ और आप ही सबके अंतरात्मा में ही हैं। मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी पूर्ण भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए।

यही एक ज्ञानी भक्त की ज़रूरत होती है।
इसके बाद वे श्लोक हैं जिससे हनुमान जी का ध्यान किया जाता है-

हनुमान जी को लंका में प्रवेश के पहले तीन बलशाली स्त्रियों ने बाधा पहुँचाने की कोशिश की, उनको अपने बुद्धि एवं असीम बल से हराना पड़ा।

पहलीबाधा- देवताओं द्वारा हनुमानजी के बल, बुद्धि की परीक्षा के लिये सुरसा द्वारा प्रस्तुत बाधा, जो उन्हें खाने की मनसा प्रगट की। वह मुँह का विस्तार करती गई, हनुमान अपने को उससे दुगुना बढ़ाते गये, पर फिर अन्त में अपने को अत्यंत छोटा कर हनुमान जी उसके मुँह से प्रवेश कर उसके कान के रास्ते निकल जाते हैं। इस तरह बुद्धि से सुरसा को हरा, और उसका आशीर्वाद पा आगे की यात्रा पर निकल जाते हैं।
दूसरी बाधा- समुद्र के भीतर ही रहनेवाली एक अदृश्य शक्तिशाली सिहिंनी है और उनकों भी समुद्र में डुबा कर मारना चाहती है, अपने अन्य आकाशचारी शिकारों की तरह, उनको अपना आहार बनाना चाहती है। हनुमान जी उसे अपने अपूर्व बल से समुद्र के भीतर ही मार कर आगे निकल जाते हैं।
तीसरी- लंका के प्रवेश द्वार पर बैठी लंकिनी मिलती है जो उनको मच्छड के छोटे रूप लेने पर भी देख लेती है और कमज़ोर जान रोकने की कोशिश करती है, पर उनके एक मुक्के के प्रहार से गिर पड़ती है और हनुमान लंका में प्रवेश कर जाते है।

लंकिनी को रावण के ब्रह्मा के वरदान देते कही बात की याद आती है। लंकिनी हनुमान को ब्रह्म राम का भक्त दूत समझ जाती है और आशीर्वाद देते हुए कहती है-
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
‘हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर दूसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है।’

सभी बड़े कामों में ऐसे ही बाधा आती हैं जिन्हें बुद्धि और आत्मबल से पार किया सकता है।
ये तीनों शक्तियाँ सात्विक, राजसिक, आसुरी प्रवृतियों के प्रतीक लगती हैं।

लंकिनी आगे कहती है-
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
‘कोशलाधिपति राम को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उस ब्रह्म के सगुन अवतार राम के लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है। सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया।’

इन तीनों बाधाओं के पहले समुद्र ने भी हनुमान जी को राम का दूत समझ लिया और मैनाक पर्वत को उनके विश्राम के लिये भेजा, पर वे उसे छूकर प्रणाम किये और आगे बढ़ गये थे।

लंका के असुर या निशाचर या दैत्य मनुष्य ही थे, पर अधिकांश भगवद्गीता में वर्णित आसुरी गुणों के लोग थे, जिनका राजा रावण ब्राह्मण और विद्वान होते भी असुरी भावों- अहंकार, काम, क्रोध, लोभ आदि की सब सीमा पार कर चुका था। वह ब्राह्मण के लिये आवश्यक सात्त्विक गुणों से हीन हो चुका था। अत: अच्छे लोग लंका में चुपचाप जीवन यापन करते थे। रावण से संबंध के कारण विभीषण, त्रिजटा, माल्यवन्त, मन्दोदरी, यहाँ तक कि कुम्भकर्ण भी केवल अपनी जीवन यापन के लिये उसके साथ थे। लंका के वर्णन में तुलसीदास ने केवल एक पंक्ति वहाँ के माँसाहारियों की बात कही है, ‘कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥’

लंका में सीता की खोज करते हुये अचानक हनुमान जी एक महल के दिवालों पर राम नाम लिखा देख समझ जाते है कि वह एक संत पुरूष का घर है।वह रावण के छोटे भाई विभीषण का घर था, और उस घर देखकर ही हनुमान जी सोचते हैं –
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥
‘चलो इनसे हठ करके अपनी ओर से ही परिचय कर लूँ, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती, प्रत्युत लाभ ही होता है।’

हनुमान का परिचय पाने पर राम भक्त विभीषण अपनी दीनता बताते हुए भगवान की कृपा की बात करते है, जिसे हम सबको समझना चाहिये।
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥
‘मेरा तामसी शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है, परंतु हे हनुमान्‌! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते। रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है। जिन्हें केवल बरसात के पानी का ही आसरा है, वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं।’

विभीषण से सीता के रहने की जगह की जानकारी लेकर हनुमान जी अशोक-वाटिका में पहुँच उस अशोक के बृक्ष पर छिप कर बैठ जाते हैं जिसके नीचे सीता बैठी हैं। उनकी अवस्था देख दुखी होते हैं।इतने में रावण अपनी पत्नी मंदोदरी के साथ आता है एवं साम, दाम, दंड आदि सभी तरीक़ों से सीता का मन जीतना चाहता है। पर देवी सीता साहस से उसे झिड़कती है-
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥
सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥
‘हे रावण! सुन, क्या जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? तू अपने लिए भी ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है। रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?’
इतना सुनते ही रावण सीता को मारने हेतु तलवार निकाल लेता है। फिर भी सीता डरती नहीं, वल्कि कहती हैं-
चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥
‘हे चंद्रहास तलवार, श्री राम की विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले, तेरी धारा ठंडी और तेज है, तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले।’

मंदोदरी के समझाने पर रावण सीता को एक महीने का समय दे एवं रक्षिका राक्षसियों को सीता को विभिन्न तरीक़े से तंग करने का आदेश दे चला जाता है। त्रिजटा नाम की उन राक्षसियों की मुखिया उन लोगों को पिछले रात के अपने सपने की बात बताती है जिसमें राम के आगमन, युद्ध में रावण के मरने, और विभीषण के राजा बनने की बात बताती है। रक्षिकायें भी डर कर घबड़ाकर इधर उधर चली जातीं हैं। पर सीता का राम के वियोग ब्यथा बहुत मार्मिक है। सीता त्रिजटा से आत्मदाह के लिये आग की व्यवस्था करने को कहतीं है। त्रिजटा ‘रात में आग कहाँ मिलेगा’ कह कर चली जाती है। सीता विरहाकुल हो कहती हैं-

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥
पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥
नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥
‘सीताजी मन ही मन कहने लगीं- क्या करूँ? विधाता ही विपरीत हो गया है। न आग मिलेगी, न पीड़ा मिटेगी। आकाश में अंगारे प्रकट दिखाई दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता। चंद्रमा अग्निमय है, किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर। तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा।’

सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान्‌जी को कल्प के समान बीता।

सीता को अकेले देख हनुमानजी राम की दी हुई मुद्रिका नीचे गिरा देते हैं। राम की मुद्रिका को पहचान सीता हनुमान को पास आने को कहती है।बातचीत के दौरान हनुमान जी सीता के प्रश्न का उत्तर देते हुए राम के बिरह संदेश का भी मार्मिक वर्णन करते हैं-
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥
हनुमान्‌जी बोले-श्री रामचंद्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं। वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चंद्रमा सूर्य के समान; और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गए हैं। मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। शीतल, मंद, सुगंध वायु साँप के श्वास के समान जहरीली और गरम हो गई है; मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का सत्य एक मेरा मन ही जानता है; और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले।

प्रभु का संदेश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की भी सुध न रही।

अन्त में सीता के राम के सेना के बल पर संदेह जताने पर हनुमान अपना विशाल रूप दिखाते हैं। और अपनी भूख मिटाने के लिये उनकी आज्ञा ले अशोक-बाटिका में जाते हैं।जब वाटिका के रक्षक राक्षसगण उनको रोकने एव मारने की कोशिश करते हैं, हनुमान उन्हें मार डालते है और बाग को तहस नहस करने लगते हैं। इसकी खबर रावण तक पहुँचती है। वह पहले अपने सेनानायकों, फिर बेटे अक्षकुमार को भेजता है, पर हनुमान जी उन्हें मार देते है। फिर रावण मेघनाद को हनुमान को बिना मारे बांध कर लाने के लिये भेजता है। पहले हनुमान मेघनाद को मूर्छित कर देते हैं, पर जब वह ब्रह्मवाण चलाता है, तो हनुमान उसको श्रद्धा दिखाते हुए अपने आप बँन्धवा कर रावण के दरबार में ले जाये जाते हैं, जिसकी उनकी इच्छा थी।

हनुमान जी पहले अपने को राम का दूत बता रावण को सीता को लौटा देने की सलाह देते है। फिर राम को ब्रह्म का अवतार और उनके असीम शक्ति और रावण की बालि आदि से पराजयों की कहानियों सभागृह में बताते हुए कहते हैं-
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥
‘जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश क्रमशः सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं, जिनके बल से सहस्रफणों वाले शेषजी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्मांड को सिर पर धारण किये हुए हैं; जो देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों को शिक्षा देने वाले हैं, जिन्होंने राजा जनक द्वारा आयोजित यज्ञ मे शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला, सभी उपस्थित राजाओं जिसमें खुद रावण भी था, का गर्व चूर्ण कर दिया । फिर अंहकारी रावण के बालि द्वारा हारने की याद दिलाते हैं। इस पर रावण उन्हें मारने का आदेश देता है, पर विभीषण दूत के प्रति राजा का उचित व्यवहार के बतानेपर, रावण उनकी पूँछ जला देने का आदेश देता है। राक्षसगण उनकी पूँछ पर कपड़े लपेटने लगते हैं और हनुमान अपनी पूँछ बढ़ाते जाते हैं। और जब उनकी पूँछ जलाने के लिये घी डाल आग लगा देते हैं, तब फिर अचानक हनुमान छोटा रूप ले लंका के महलों पर कूद चढ़ कर पूरे लंका को जला डालते हैं। लंका को पूरी जला, समुद्र में पूँछ की आग बुझा सीता से मिलते हैं और राम को अपनी सीता से मिलने की पहचान का चिन्ह चूडामनि पाकर सीताजी को ढाढ़स दे तीव्र गति से वापस चल देते हैं। हनुमान को जाता देख सीता कहती हैं- एक महीने में अगर राम नहीं आये तो मुझे मरा पायेंगे और
‘दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ सम संकट भारी।’
‘दीनों-दुःखियों पर दया करते रहिये आपही सब हो और मैं दीन हूँ। अतः उस अनुकम्पा की शक्ति से मेरे भारी संकट को दूर कीजिए।’
आज यह चौपाई राम को स्मरण करनेवाली एक लोकप्रिय पुकार बन गई है।

अपने साथियों को साथ ले हनुमानजी किष्किन्धा पहुँच जाते हैं। उनके आने की खबर पा राजा शुग्रीव सभी के साथ राम के पास पहुँचता है। हनुमान के कृतित्व की जानकारी दल के नेता के रूप में जामवन्त बताते हैं। हनुमानजी राम को सीता की अवस्था उनके ही शब्दों इस तरह बताते हैं-
दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी॥

‘आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दुःखों को हरने वाले हैं और मैं मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागिणी हूँ। फिर आपने मुझे किस अपराध से त्याग दिया? हाँ, एक दोष मैं अपना अवश्य मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए, किंतु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं। विरह अग्नि है, शरीर रूई है और श्वास पवन है, इस प्रकार यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है, परंतु नेत्र अपने हित के लिए प्रभु का स्वरूप देखकर सुखी होने के लिए आँसू बरसाते हैं, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती।’
फिर राम सुग्रीव द्वारा बुलाई बन्दर भालुओं की सेना ले समुद्र के किनारे आ जाते हैं।

यहाँ तक सुन्दरकाण्ड में हनुमान की प्रमुखता रहती है और इसके बाद के प्रसंग में विभीषण की-

दूसरा भाग

सुग्रीव के बानर भालुओं की सेना ले राम के समुद्र किनारे पहुँच जाने की खबर रावण की पत्नी मंदोदरी दूतों से सुनती है। जब रावण सभा में जाने के समय उनके कक्ष में आता है तो उसे रामदूत हनुमान के बलबुद्धि की याद दिला वे रावण से सीता को राम को लौटाने की प्रार्थना करती है। पर उसकी सलाह पर ध्यान न देते हुए रावण दरबार में आ अपने चाटुकार सचिवों की सलाह माँगता है। वे उसके भय को अनर्थक बताते हैं। उस समय तुलसीदास राजधर्म की एक नीति पूर्ण दोहे से राजा रावण के भय के कारण उसके सचिवों की अवस्था बताते हैं।

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
‘मंत्री, वैद्य और गुरु- ये तीन यदि राजा के अप्रसन्नता के भय के कारण राजा को उचित राय छोड़ जो प्रिय लगे वही बोलते हैं, तो क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म- इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है।’

विभीषण भी दरबार में आता है और अपने अंहकारी बड़े भाई को राम की असीम शक्ति को बता उसे उनकी पत्नी सीता को लौटा देने की ज्ञानयुक्त सलाह देता है।

‘जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥’
‘ हे राजन! जो मनुष्य अपना कल्याण, सुयश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के गुणों का सुख चाहता हो, वह परस्त्री को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे, जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को देखने की इच्छा को नुक़सान होने कारण त्याग देते हैं, उसी प्रकार परस्त्री की तरफ़ वासनायुक्त भाव नहीं रखना चाहिये।
और फिर कहता है-
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥
हे राजन्! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्रजी का भजन कर जीवन मुक्त होने की चेष्टा करनी चाहिये, जैसा संत व्यक्ति करते हैं ।

विशेष- यह दोहा भगवद्गीता के दैवी-आसुरी सम्पदायोग नाम के १६वें अध्याय के श्लोक २१ की याद दिलाता है जो नीचे दिया है-
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥
काम, क्रोध तथा लोभ- ज़िन्दगी में महान कष्ट के कारण बनते हैं। ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं। अतएव इन तीनों का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिए।

विभीषण रावण से राम के ब्रह्म रूप की शक्ति का वर्णन करता है-
तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥
हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भंडार भगवान्‌ हैं, वे निरामय विकाररहित, अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं, ब्रह्म के सगुन अवतार हैं।

फिर बताता है कि राम अपने भक्तों के प्रति कितने उदार हैं-
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जिसे संपूर्ण जगत्‌ का द्रोह करने का पाप लगा है, उसको भी शरण जाने पर प्रभु त्याग नहीं करते।

विभीषण रावण को मनाने या बचाने का आख़िरी प्रयत्न करते हुये कहता है-
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि यानि अच्छी बुद्धि और कुबुद्धि यानि खोटी बुद्धि सबके मन में रहती है, सुबुद्धि है नाना प्रकार की सुख-सम्पदाएँ देती है और जिसमे कुबुद्धि होती है, उसको कुबुद्धि के चलते तरह तरह के दुःख ही भोगते रहते पडता है।

अहंकारी बड़ा भाई अपने छोटे भाई विभीषण पर पद प्रहार करता है, जो उसकी आदत बन गई है । फिर भी विभीषण अपनी बात मनवाने के लिये रावण का पैर बार बार पकड़ता है। जब रावण नहीं मानता, उसे राम के पास जा उन्हीं को सलाह देने को कहता है। विभीषण बड़े भाई को छोड़ राम के पास जाने का निर्णय ले उनके पास अपने सचिवों सहित चल देते हैं। तुलसीदास संतों के अपमान करने का फल बताते हैं जो शिव के शब्दों में उमा को संबोधित है, क्योंकि शिव के मुख से राम की कथा सुनाई जाती है-

साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥
हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की नाश कर देता है।

विभीषण को रामदल की ओर आने का समाचार सुन राम सुग्रीव की परीक्षा लेते हैं। वे पूछते हैं कि विभीषण के साथ क्या व्यवहार करना चाहिये। बानरराज सुग्रीव के उसे बाँध कर रखने की सलाह पर राम सुग्रीव को शरणागत के प्रति राजा को कैसे व्यवहार करना चाहिये, बताते हुए कहते हैं-

‘सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥’
‘जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे छोटे विचार के लोग होते हैं, वे पापी होते हैं, उन्हें देखने से भी पाप लगता है।
जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।’

(गीता में भगवान कृष्ण ऐसा ही कहते हैं-
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥9.30॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥9.31॥
(अर्थ के लिये- https://drishtikona.files.wordpress.com/2022/11/irs-my-favourite-shlokas-from-scriptures.pdf)

(भगवान) राम अपने सेनानायकों को अपनी भक्तों का व्यवहार को समझाते हैं-
‘पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥

जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥’
‘पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह, (रावण का भाई, विभिषण) अगर सच में दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था? जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।’

तब वे हनुमान, अंगद आदि को विभीषण को सादर ले आने का आदेश देते हैं।

राम से मिल विभीषण अपने लंका में रहते समय का दर्द बताता है-
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
‘हे स्वामी! नरक में रहना वरन्‌ अच्छा है, परंतु विधाता को दुष्ट का संग कभी न देना चाहिये। ‘

ब्रह्म भगवान राम विभीषण को अपना स्वभाव बताते हुये कहते हैं-
‘जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥’
अगर कोई मनुष्य संपूर्ण जड़-चेतन जगत्‌ का भी द्रोही हो, पर यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण में आ जाए….और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ; माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार- सबके ममत्व रूपी सम्बन्धों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी से बांध, अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है; जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है -ऐसा सज्जन मेरे हृदय में वैसे ही बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। इसीतरह तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं।

राम के पूछने पर विभीषण समुद्र को अपनी सेना सहित पार करने के उपाय जानने के लिये समुद्र की प्रार्थना करने की राय देते हैं। पर यह लक्ष्मणजी को ठीक नहीं लगता और वे कहते हैं- ‘कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥’ यह दैव तो कायर के मन को तसल्ली देने का उपाय है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं। पर फिर भी अपने मित्र भक्त विभीषण का मान रखने कि लिये लक्ष्मण को कहते हैं कि वह भी करूँगा, देखना।

तीन दिन की प्रार्थना के बाद भी समुद्र के आचरण में कुछ अन्तर नहीं आने पर राम को अत्यन्त आक्रोश आता है, और कहते है- ‘भय बिनु होइ न प्रीति’, लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ,’ एक नीति की बात भी कहते हैं-
‘सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥’
‘मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से उदारता का उपदेश,
ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शांति की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा वैसे ही व्यर्थ प्रयास होता है, जैसे ऊसर जमीन में बीज बोना जिससे फल नहीं मिलता।

काकभुशुण्डिजी गरूड़ ( रामकथा वाले दूसरे पात्र) को राम कथामें कहते हैं-
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥
‘गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। कम बुद्धि के लोग विनय से नहीं मानते, वे डाँटने पर ही रास्ते पर आते है।’

राम ग़ुस्से मे अपने धनुष पर बाण ले प्रत्यंचा चढ़ा लेते हैं और समुद्र को संधान कर चलानेवाले होते हैं। ठीक उसी समय समुद्र राम के लिये बहुत सारे रत्नों का उपहार ले उपस्थित होता है और राम के पैर पकड़ अपने व्यवहार का कारण बताता है-
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥
हे नाथ! मेरे सब दोष क्षमा कीजिए। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ ( अपना प्रकृति) है। आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ( जैसे गीता) ने यही गाया है। ‘जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है।’

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥
‘प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा देना चाहा, किंतु जीवों का स्वभाव भी आपका ही बनाया हुआ है। इसीलिये ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।’
समुद्र द्वारा कहा हुआ यह आख़िरी दोहा, बीच बीच में हमारे अल्पबुद्धि के राजनीतिज्ञों के निरर्थक विवाद का बिषय बनता रहता है। उनको न प्रसंग की समझ होती है, न अर्थ की, यद्यपि बहुत ज्ञानी विद्वानों ने सही अर्थ बताने की बार बार कोशिश की है। तुलसीदास के रामचरितमानस को देश और दुनिया के बड़े बड़े विद्वानों ने ‘विश्व के महानतम ग्रंथों में एक’ का दर्जा दिया है। हमें इसका नित्य पाठ कर एक सफल जीवन यापन का प्रयास करना चाहिये।

इसके बाद राम को समुद्र अपने को पार करने के लिये राम के ही सेना के पुल बनाने के काम में दक्ष नल और नील का नाम बताता है और अपनी तरफ़ से भी सहायता का वायदा करता है। तब वह राम से अपने एक शत्रु का संहार करा और उनके बल का परिचय पा ख़ुशी ख़ुशी चला जाता है। मैं खुद यह समझ नहीं सका हूँ कि किसके लिये समुद्र ने कहा है- एहिं सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खर नर अघ रासी॥
क्या पाठकों में कोई इसे जानता है?
मेरा अन्तिम आग्रह हिन्दी भाषी नई शिक्षित पीढी से है। मैं अपने पूरे 84+ वर्ष के जीवन के अनुभव से कहता हूँ कि अपनी उम्र में जितनी जल्दी हो सके हमें धीरे धीरे उपनिषदों, भगवद्गीता, रामचरितमानस के पाठ से जुड़ जाना चाहिये एक ज़रूरी काम की तरह। जीवन सुखमय, शान्तिमय हो जायेगा। (ऊपर दिये लिंक से कुछ सहायता मिल जायेगी।)

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Controversy on film on Oppenheimer related to Bhagwad Gita

Oppenheimer is famous for his quoting Bhagwad Gita’s verse 32 of chapter 11. In a newly released film in US based on his biography of the scientist who is the father of Atomic bombs.
It has created hue and cry in the Hindu Community in US. Government of India’s Information Commissioner Uday Mahurkar tweeted, sharing a statement from Save Culture Save India Foundation.
“ We do not know the motivation and logic behind this unnecessary scene on life of a scientist,” the statement read. “A scene in the movie shows a woman makes a man read Bhagwad Geeta aloud while getting over him and doing sexual intercourse.”The scene in question is where the main character Oppenheimer (Cillian Murphy) quotes a line from the Bhagavad Gita while making love to Jean Tatlock (Florence Pugh). Perhaps, this is the new American film is getting made presently…..
PS
In July 1945, two days before the explosion of the first atomic bomb in the New Mexico desert, Robert Oppenheimer recited a stanza from the Bhagavad Gita, or The Lord’s Song.

श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥11.32॥
However, as I remember he spoke of another verse after the bomb exploded over the two Japanese cities, I heard some on u- tube in a talk by a Swamiji and that was

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥

Such is the light of this body of God as if a thousand suns had risen at once in heaven.

यदि आकाश में सहस्रों सूर्यों की ज्योति एक साथ उठी हुई हो तो वह ज्योति उस महापुरुष के देह की ज्योति के सदृश कदाचित् ही हो सके ।
I do not which one is correct. But what American movie maker has shown is totally unacceptable. Bhagwad Gita is one the most respected scriptures all over the world and not only for Hindus. Many American scholars and others have said so.
American Film producers and writers have reached their zenith and they do not have anything but involving sex scene with such a respected scripture to make it saleable. One should feel ashamed for such fimmakers of any country. It is something like ‘Aadi Purush’ released recently on Ramayana epic in India by Bollywood.

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India After 2024: Will Speed of Growth increase further, stall or slow

India After 2024: Will Speed of Growth increase further, stall or slow

India is a democratic country and every general election decides the future and well-being of the country and its people. Before 2024 too, some states’ elections are coming up. Will the people of India in 2024 who are the kingmakers, choose a right government with a party with a very clear majority mandate and not vote region-wise as they do in state elections sometimes? Leave back some Southern states, at least Hindi belt has a long experience of the poor partisan governance with family based parties in governance where corruption at all levels of the ruling parties become the topic of popular conversation and with no progress in the growth oriented policies. Bihar, West Bengal, UP, Rajasthan, MP remained laggard Bimaru states for decades. I remember the condition of Indore, Madhya Pradesh, where I used to go very often for my company’s work. It used to be really horrible with no facilities.Today Indore has own the award of the cleanest city of India for the last few years. However, in this entry, I wished the countrymen to appreciate how a big change has come in every field in India in the last nine years and many economists -both domestic and global are expecting that in the next three India will be the third economy globally by 2027. But at the same time, they also warn that if a new-concuss happens to form the government at the centre, it may not happen as it had been history in the past.

However I give below two filled pictures and two youtube presentations that speak on the subject. For the country, it will be better that the present PM with unparalleled foresights and execution capabilities lead the nation. We hope to have that for getting India in the Big Three league globally.  

Can there be a consensus to accelerate it further in an unique meeting of all political parties and can the overall objective be kept the same? This is a unique expectation. The present government has put a graph that should be the way to do it rather than improve the speed many more times. All Indians must join in this great task.

YOUtube presentations 

1. After China, India will shake the world. India, the next economic superpower to challenge the world. https://youtu.be/RTu3DeWfJ44 

2. Ridham Desai Exclusive Interview: Indian Economy पर सबसे बेबाक बात Morgan Stanley के MD के साथ https://youtu.be/iuvHy536nCE

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पिछली ट्रेन यात्रा की कुछ और यादें- हिन्दू धरम और आज के बाबा

आजकल फिर बाबा लोगों की चर्चा यूट्यूब से लेकर अन्य सोशल मीडिया का ख़ासा विषय बना हुआ है। अपना देश विचित्र है। पता नहीं यह अशिक्षा के कारण है या यह भी आज की फैलती राजनीति नामक रोग के कारण है। एक तरफ़ ‘नीम करोली बाबा’ को भगवान हनुमान का अवतार माना जा रहा है। बाबा नीम करोली का आश्रम उत्तराखंड के कैंची धाम में है।

दूसरे बहुचर्चित बाबा बागेश्‍वर हैं, जो चमत्कार दिखाते हैं। और इनके चमत्कारों के चर्चे देश के हर कोने में है। सुन्दर भी हैं, नौजवान भी, बहुत विशेष सुन्दर पहनावा भी, शादी के लिये तैयार बहुत सुन्दर लड़कियाँ भी ।देश के इन चर्चित बाबाओं का नाम विदेशों तक पहुँच जाता है। वहाँ रहतें भारतीयों में भी कुछ उनके अनजाने भक्त बन जाते हैं और उनसे बातों से अमरीकी लोगों तक चमत्कारी भारतीय बाबाओं की पहुँच हो जाती है। यह बहुत सालों से चल रहा है यह क्रम और बढ़ता ही जा रहा है। कुछ राम-रहीम, आसाराम जैसे और अन्य भी जेल में भी चले जाते हैं सालो के लिये। पर उनके भक्त अभी भी पूजा कर रहे हैं। बहुत पढ़े लिखे लोग और विशेषकर राजनीतिक नेता और व्यवसायी भी होते हैं उनके शिष्यों में। आसाराम के एक शिष्य आई. आई.टी कानपुर के मेरे परिचित भी थे, जिन्हें उन पर अंधविश्वास था, शायद आज भी हो। मेरा सम्पर्क टूट गया है।

पिछली ट्रेन यात्रा में नौ जून के सबेरे आस पास बैठे लोग मुझसे धर्म चर्चा करने लगे। मैं तो केवल उपनिषद, गीता और रामचरितमानस थोड़ा समझने की कोशिश में लगा हूँ और उसकी की ही बातें करता हूँ। करता रहा और वे बहुत दिलचस्पी से सुनते रहे। अचानक उनमें एक नवजवान व्यक्ति ने बडी विनम्रतापूर्वक एक प्रश्न पूछने की आज्ञा मांगी। मैंने हामी भर दी। उसका सवाल था- क्या आप बाबा वागेश्वर के चमत्कारों में विश्वास करते हैं? मैंने कहा मैं बाबाओं के चमत्कार में विश्वास नहीं करता। मैं तो विवेकानन्द, उनके गुरू राम कृष्ण परमहंस, रमन महर्षि आदि को ब्रह्म ज्ञानी मानता हूँ और उनके उपदेशों में विश्वास करता हूँ। बहुत अन्य भी जैसे स्वामी रामसुखदास, तेजोमयानन्द, स्वामी सर्वप्रियानन्द, और भी जिन्हें सुनता हूँ। हर से कुछ नई समझ मिलती है। हर हिन्दू को भी सच्चे धर्म के ज्ञानियों की पहचान होनी चाहिये। दुर्भाग्य वंश आज हिन्दूओं में इन सब ज्ञानोपदेश रूचि कम होती जा रही है और स्पर्धा की दौड़ में आगे बढ़ने की होड़ मची है। ब्रिटेन से हट अब अमरीका का आकर्षण भारत के नौवजवानों को खींच रहा है। पर अंधी नक़ल घातक बन रही है। जैसे शिक्षित स्वास्थ्य में अगर आपके पास पैसे न हों तो आगे बढ़ना मुश्किल है।

हाँ चूँकि सहयात्री झारखंड के थे, और सबेरे के नाश्ते के लिये ठेकुआ, मठरी लाये थे, मुझे भी खिलाये। बहुत बढ़िया स्वाद था, या पता नहीं भूख। पैंटरी का खाना मेरी उम्र के लायक नहीं था।इसके लिये सैंडविच लेना चाहता था, पर नहीं हुआ था। बिहार, झारखंड के लोगों वहाँ की स्पेशल डिसेज को देश में लोकप्रिय बनाने की ज़रूरत है। हमारे सहयात्री भी माने। कौन जाने यह ट्रेन की आख़िरी यात्रा हो… हाँ
सब ठीक ही होगा।

पिछली सासाराम की यात्रा ब्यक्तिगत थी, कुछ बाक़ी काम निपटाने की ज़रूरत थी, क्योंकि बच्चे यह नहीं कर सकते थे। पर सासाराम और अपने पितातुल्य चन्द्रमणि मामा की यादें बहुत पुरानी है। ख़ुशी हुई, सासाराम को पूरी तरह बदला पाया और यह ख़ुशी ह आन्तरिक थी बहुत गहरी। वह सोया अन्धेरा पिछड़ा सासाराम अब अन्य जिलापीठों से ज़्यादा प्रकाशित और आधुनिक लगा। न स्टेशन पहचान पाया, न जी. टी रोड के दोनों ओर एक दम बदले बहुत सुन्दर मकानों एवं दुकानों की श्रृंखला। दोपहर और रात में लिया चित्र बतायेगा। कभी सोच भी नहीं सकता था कि सासाराम इतना सुन्दर लगेगा। स्टेशन के प्रकाशित रैंप और सीढ़ियाँ इतना मनभावन लग रहीं थीं। शहर में एक उत्सव सा चलता लग रहा था। बहुत नामी सुसज्जित दुकानें हैं। एक डिजनीलैंड का प्रतिरूप भी देखा, और शिव की विशाल मूर्ति किसी बाबा और उनके धनी शिष्यों की कृपा का बखान कर रहा था। ताराचंडी भी बहुत प्रभावित किया। कैसे लोग हैं जो अब भी कहते चलते हैं देश और विदेश में भी कि भारत पिछड़ा है, गन्दा है, गरीब है। खोजने पर वैसी जगहें तो अमरीका में भी मिल जायेंगी। एक होटल का कुछ घंटों का अनुभव अच्छा रहा। अब कोई अमरीका वाला भी रह सकता है। कुछ कमियाँ हैं, समय से ठीक हो जायेंगीं । शेरसाह का मक़बरा भी साफ़ लगा। अब इसके चारों के तालाब में मछलियां पाल कर सरकार कमा रही है। भीतर जाने पर भी टिकट ख़रीदना पड़ता है। पर हमें तो केवल फ़ोटो लेना था, द्वारपाल मान गये।
वाह सासाराम …बढ़ते रहिये रोहिताश्व गढ़ जाने की मनसा शायद कभी पूरा न हो, पर कौन जानता है…बहुत जगह जा नहीं सका। पत्नी जो अब माँ बन चुकी हैं उनकी देख रेख को केवल कुछ घंटे ही छोड़ा जा सकता है दूसरों पर।अलविदा सासाराम …,

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यों ‘आदि पुरूष’ में जन प्रिय ‘सीता राम’ बने वैदेही राघव बने?

क्यों ‘आदि पुरूष’ में जन प्रिय ‘सीता राम’ बने वैदेही राघव बने?
मनोज शुक्ला, जिन्हें मनोज मुंतशिर के नाम से ज्यादा जाना जाता है । एक भारतीय राष्ट्रवादी गीतकार थे। Sony टेलीविजन के Indian Idol गानों की प्रतियोगिता में कुछ ख़ास प्रोग्रामों (जैसे नव रात्रि का राम कथा पर आधारित था) में संचालन भी करते देखा था। उन्हें शब्दों का ताना बाना अच्छा बुनते देखा सुना था, अच्छी बुलन्द आवाज़ के भी धनी हैं। लेखक भी हैं। पर आदि पुरूष के बाद लगा रहा है कि मनोज शुक्ला पैसे कमाने की धुन में कुछ भी लिखने के लिये तैयार लेखक हैं। हिन्दी के फ़िल्म निर्माता ‘आदिपुरुष’ चलचित्र को बनाने में पूरा दक्षिण भारतीय फ़िल्मों की शैली को अपनाये को अपनाये हैं। इस चलचित्र के नायक और नायिका और अन्य पात्रों के नाम एवं संवाद भी उन्हीं के मस्तिष्क की उपज है। यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है। क्यों असली ब्राह्मण बता हिन्दू धर्म की व्याख्या करनेवाला मनोज शुक्ला कैसे राज़ी हो गया प्रोड्यूसर के दबाव में ? मोदी के भक्त लगते मनोज लगता है तुलसीदास को भी भूल गये और उनके बाल कांड की प्रसिद्ध ‘ राम नाम की महिमा’पर लिखे दोहों और चौपाइयों को भी।
‘सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।’

बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
अर्थ- रघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूप से बीज है। वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है।

आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥
अर्थ:-दोनों अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिए सुलभ और सुख देने वाले हैं और जो इस लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह करते हैं।

एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥
अर्थ-श्री रघुनाथजी के नाम के दोनों अक्षर बड़ी शोभा देते हैं, जिनमें से एक (रकार) छत्ररूप (रेफ र्) से और दूसरा (मकार) मुकुटमणि (अनुस्वार) रूप से सब अक्षरों के ऊपर है।

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥

  • यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी देहली पर रामनाम रूपी मणि-दीपक को रख।
    फिर है- ‘ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।’

फिर सीता कौन हैं?
आदि कवि वाल्मीकि जी कहते हैं-
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥
-हे राम! आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकीजी (आपकी स्वरूप भूता) माया हैं, जो कृपा के भंडार आपका रुख पाकर जगत का सृजन, पालन और संहार करती हैं।
राम और सीता का नाम बहुत सोच समझ कर हमारे संतों, आदि कवि, और अन्य ऋषियों ने रखा था। कैसे चलचित्र के निर्माता या पट लेखक उस को बदल सकते हैं? यह मज़ाक़ है कि हमारे सगुन अवतारों के नाम और चरित्र के साथ ऐसी मनमानी की जाये। निराला जी की एक सर्व प्रसिद्ध कविता है ‘ राम की शक्ति- पूजा’। क्यों नहीं कोई उस पर आधारित चलचित्र बनाता- राम एक दम नया रूप और अद्वितीय कहानी सब रस लिये बन सकती है ?
आज नमस्कार में किये जाते ‘राम, राम’ या ‘जय सिया राम’ में व्यवहृत राम यों ही नहीं आया है। और फिर इस देह के अन्त होने पर अन्तिम यात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ बोलते जाना का ख़ास महत्व है। राम ब्रह्म है, अन्तिम सत्य है। क्या निर्माता या मनोज जी ‘राघव’ में वह पाते हैं?

हनुमान, विभीषण आदि युगपुरुष हुए। दोनों को हमारे ग्रंथों ने अमर कहा है और हर युगों में रहनेवालों में स्थान दिया है। हनुमान भक्ति की मिसाल है। फिर मनोज जी कैसे संवाद में उन चरित्रों से गलत सड़क छाप भाषा बुलवा सकते हैं। हिन्दी फ़िल्म जगत आज दक्षिणी भारतीय चलचित्रों की सफलता से प्रभावित हो कुछ भी करना चाहता पैसा कमाने के लिये। मनोज शुक्ला भी उसी के शिकार हो गये हैं। उन्हें अगर शिक्षित हिन्दी भाषी हर हिन्दू से श्रद्धा या इज़्ज़त पाना है तो उन्हें अपनी गलती के लिये माफ़ी माँगता चाहिये सभी मीडिया पर। हिन्दी फ़िल्म जगत दक्षिण भारत की नक़ल कर कभी नहीं अपना खोया स्थान पा सकता है। शरत चन्द्र चटर्जी के उपन्यास ‘देवदास’ पर कितनी फ़िल्में बनीं और हिट हुईं। रामकथा हर रूप में मर्यादा रखते हुए बनाई जा सकती है और हिट भी होंगी। दुर्भाग्य है हिन्दी और इसके आंचलिक भाषाओं के फ़िल्म जगत के लोग यह करने सक्षम नहीं हुए। आज भी अगर मानवीय संवेदना को ध्यान रख समाज के तत्कालीन स्थिति से उबरने के विषय पर अच्छी फ़िल्म बनाई जा सकती है। एक बार कोई दिनकर के ‘रश्मि रथी ‘ के कर्ण की कथा क्यों नहीं लेता। इतनी बडा हिन्दी समुदाय साहित्य, कला, नृत्य, नाट्य आदि आगे बढ़ने की जगह पिछड़ता ही जा रहा है। दुर्भाग्य है पर कोई बताये की हल क्या है।
राम के नाम का महत्व देखिये इस यूट्यूब में- https://youtu.be/zXZvZ-XG2rg

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