उपनिषदों के दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष-

उपनिषदों के दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष- जो दुनिया को बचा सकते थे,हैं अगर धर्म के सदस्य कम से कम यह मान लें जो बिल्कुल धर्मनिरपेक्ष दर्शन है।

भारत के ब्रह्मज्ञानी ऋषियों का दुनिया के सभी व्यक्ति-विशेष एवं अपने समाज,देश,पूरे विश्व की व्यक्तिगत एवं सामूहिक समृद्धि शान्ति के लिये अति आवश्यक संदेश है। साथ ही यह सब भूतों को श्रद्धा की दृष्टि से देखने एवं उनके अच्छे जीवन यापन पर ध्यान रखने की इस धरती की आबोहवा एवं वातावरण को हमारे जीवनयापन के अनुकूल करने का सर्वाधिक ज़रूरी आवश्यक संदेश
भी देता है। इसके अभाव का फल हमें भुगतना पड़ता है जैसे आज हमारे चारों ओर हो रहा हर समय हर जगह, क़रीब क़रीब हम सभी देश एवं मनुष्य जाति के सदस्यों के द्वारा।
उपनिषदों का पहला संदेश इसके एक अति प्राचीनों में एक ईशोपनिषद में है:
१. ‘ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्’- ‘ब्रह्म जगत के सबमें ब्रह्म का वास है।’ ‘īśā vāsyamidaṁ sarvaṁ yatkiñca jagatyāṁ jagat |‘ All in the world is enveloped by the Lord.’ आप शरीर में अशरीरी ‘आत्मा’ का वास है। एक इतने प्रसिद्ध केनोपनिषद् में इस शक्ति के बारे में कहा है-‘आत्मना विन्दते वीर्यं’,व्यक्ति को आत्मा से वीर्य (शक्ति) प्राप्त होता है; ’ātmanā vindate vīryaṁ’-by the self one finds the force to attain;(2.4)।उसकी महिमा एवं शक्ति को समझ एवं वह हर विधा में सर्व शक्तिशाली है। उसके की पूजा श्रद्धा कर अपने इस शरीर से अपनी इच्छित इच्छाओं को प्राप्त कर सकते हैं इसी जीवन है, जिसके उदाहरण इतिहास एवं आज भी भी आपके चारों ओर तरफ़ देख सकते हैं।उस आत्मा के बल से ही कहा गया है, ‘पङ्गुं लङ्घयते गिरीम्’, ‘पंगु चढ़ गिरिवर गहन’,It causes the lame to scale mountain tops’. आपके सामने है एक पैर कट जाने के बाद भी अरूनिमा सिन्हा एवरेस्ट पर चढ़ गईं।https://economictimes.indiatimes.com/magazines/panache/arunima-sinha-worlds-first-woman-amputee-to-scale-everest-now-has-a-doctorate/articleshow/66541484.cms?from=mdr.
प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफ़ेन हॉकिंग की Stephen Hawking की कहानी दुनिया हर बच्चा बच्चा जानता है-https://en.wikipedia.org/wiki/Stephen_Hawking.
दूसरा संदेश सबमें एकत्व है।
२. सभी जीवों में ब्रह्म है और मैं भी वही ब्रह्म हूँ । यह दिन चार वाक्यों में में तीन ब्रह्मवाक्य कहते हैं- १.
‘ॐ अहं ब्रह्मास्मि।’- ‘मैं ब्रह्म हूँ’ -बृहदारण्यको उपनिषद् १.४.१० यजुर्वेद से।

‘ॐ तत्त्वमसि।’- ‘वह ब्रह्म तू है’ – छान्दोग्योपनिषद् ६.८.७ सामवेद से।
‘ॐ अयमात्मा ब्रह्म।’- ‘यह आत्मा ब्रह्म है’- माण्डूक्योपनिषद् १-२ अथर्ववेद से।

सभी भूतों में एक ही आत्मा है जो ही ‘ब्रह्म’है- सभी मनुष्य, जीव, पेड़,पौधे, जलाशय, पर्वत, आदि…में बिना किसी देश,प्रदेश, जाति, धर्म, रंग, लिंग,गरीब, अमीर, मोटे पतले, बच्चा, युवा,वृद्ध आदि के अन्तर से। फिर क्यों आपसी द्वेष, कलह, युद्ध, घृणा, आदि नकारात्मक एवं हिंसा के भाव, क्यों इस बराबरी की, एकत्व की पहचान कराना सभी को हम हर एक का प्रथम धर्म हो। सबसे पहले हिन्दू समाज या अपने को हिन्दू कहने वाले नहीं समझते और समझाते। सबसे आश्चर्य की बात है कि जिनको इसे समझाने का अधिकार है वे ही इसे नहीं समझते।सदियों की ग़ुलामी एवं व्यापक ग़लत अशिक्षा का प्रसार और तथा कथित अज्ञानी पंडितों का स्वार्थ इसी शिक्षा पोषण इतना गहरे जा चुका है कि वह हमें केवल अंधकार अंधकार ही चारों ओर दिखता है। खैर, देश का विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व जिनके हाथ में है उन्हें ही यह करना होगा।
यहाँ हम इसके सम्बन्ध में प्राचीनतम ग्रंथों से हाल तक के उन दिव्य ग्रंथों से लिये श्लोकों एवं अन्य रूप में इस विषय पर ज़िक्र करूँगा ।
ईशोपनिषद् का हज़ारों साल पहले ही एकत्व भाव दो श्लोकों में साफ़ साफ़ यही निर्देश देता है-
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
ऐसा ही भाव क़रीब क़रीब सारे उपनिषदों में कहा गया है।

फिर महाभारत काल या उससे भी पहले की रचना भगवद्गीता में इस विषय ‘सबमें एक ही आत्मा की बात को बार बार विभिन्न रूपों क़रीब क़रीब सभी अध्यायों में कहा गया है। विशेषकर अध्याय ६ एवं अध्याय १३ में-
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥६.२९॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥६.३०॥
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥६.३१॥
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥६.३२॥
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥९.६॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्‌ ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥१३.२७॥
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्‌ ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्‌ ॥१३.२८॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥१३.३०॥
और उपरोक्त धर्मग्रंथों को बाद में अष्टावक्र रचित
अष्टावक्र गीता
सर्वभूतेषू चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥६॥
sarvabhūteṣu cātmānaṃ sarvabhūtāni cātmani |
vijñāya nirahaṃkāro nirmamastvaṃ sukhī bhava || 6 ||
Recognising oneself in all beings, and all beings in oneself, be happy, free from the sense of responsibility and free from preoccupation with ‘me’.
समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥६॥

All in the Self, the Self in All
Swami Sarvapriyananda https://youtu.be/qd-yq-j4VLw

अष्टावक्र गीता

सर्वभूतेषू चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥१५.६॥
Recognising oneself in all beings, and all beings in oneself, be happy, free from the sense of responsibility and free from preoccupation with ‘me’.
समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥६॥
इसके पहले अध्याय ६ के चौथे श्लोक में कहा है-‘अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभूतान्यथो मयि’ I am, indeed, in all beings and all beings are in Me, this the true knowledge.
Unity in Diversity: All in the Self, the Self in All
Swami Sarvapriyananda https://youtu.be/qd-yq-j4VLw

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उपनिषदों के दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष- जो दुनिया को बचा सकते थे,हैं

उपनिषदों के दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष- जो दुनिया को बचा सकते थे,हैं अगर धर्म के सदस्य कम से कम यह मान लें जो बिल्कुल धर्मनिरपेक्ष दर्शन है।

भारत के ब्रह्मज्ञानी ऋषियों का दुनिया के सभी व्यक्ति-विशेष एवं अपने समाज,देश,पूरे विश्व की व्यक्तिगत एवं सामूहिक समृद्धि शान्ति के लिये अति आवश्यक संदेश है। साथ ही यह सब भूतों को श्रद्धा की दृष्टि से देखने एवं उनके अच्छे जीवन यापन पर ध्यान रखने की इस धरती की आबोहवा एवं वातावरण को हमारे जीवनयापन के अनुकूल करने का सर्वाधिक ज़रूरी आवश्यक संदेश
भी देता है। इसके अभाव का फल हमें भुगतना पड़ता है जैसे आज हमारे चारों ओर हो रहा हर समय हर जगह, क़रीब क़रीब हम सभी देश एवं मनुष्य जाति के सदस्यों के द्वारा।
उपनिषदों का पहला संदेश इसके एक अति प्राचीनों में एक ईशोपनिषद में है:
१. ‘ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्’- ‘ब्रह्म जगत के सबमें ब्रह्म का वास है।’ ‘īśā vāsyamidaṁ sarvaṁ yatkiñca jagatyāṁ jagat |‘ All in the world is enveloped by the Lord.’ आप शरीर में अशरीरी ‘आत्मा’ का वास है। एक इतने प्रसिद्ध केनोपनिषद् में इस शक्ति के बारे में कहा है-‘आत्मना विन्दते वीर्यं’,व्यक्ति को आत्मा से वीर्य (शक्ति) प्राप्त होता है; ’ātmanā vindate vīryaṁ’-by the self one finds the force to attain;(2.4)।उसकी महिमा एवं शक्ति को समझ एवं वह हर विधा में सर्व शक्तिशाली है। उसके की पूजा श्रद्धा कर अपने इस शरीर से अपनी इच्छित इच्छाओं को प्राप्त कर सकते हैं इसी जीवन है, जिसके उदाहरण इतिहास एवं आज भी भी आपके चारों ओर तरफ़ देख सकते हैं।उस आत्मा के बल से ही कहा गया है, ‘पङ्गुं लङ्घयते गिरीम्’, ‘पंगु चढ़ गिरिवर गहन’,It causes the lame to scale mountain tops’. आपके सामने है एक पैर कट जाने के बाद भी अरूनिमा सिन्हा एवरेस्ट पर चढ़ गईं।https://economictimes.indiatimes.com/magazines/panache/arunima-sinha-worlds-first-woman-amputee-to-scale-everest-now-has-a-doctorate/articleshow/66541484.cms?from=mdr.
प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफ़ेन हॉकिंग की Stephen Hawking की कहानी दुनिया हर बच्चा बच्चा जानता है-https://en.wikipedia.org/wiki/Stephen_Hawking.
दूसरा संदेश सबमें एकत्व है।
२. सभी जीवों में ब्रह्म है और मैं भी वही ब्रह्म हूँ । यह दिन चार वाक्यों में में तीन ब्रह्मवाक्य कहते हैं- १.
‘ॐ अहं ब्रह्मास्मि।’- ‘मैं ब्रह्म हूँ’ -बृहदारण्यको उपनिषद् १.४.१० यजुर्वेद से।

‘ॐ तत्त्वमसि।’- ‘वह ब्रह्म तू है’ – छान्दोग्योपनिषद् ६.८.७ सामवेद से।
‘ॐ अयमात्मा ब्रह्म।’- ‘यह आत्मा ब्रह्म है’- माण्डूक्योपनिषद् १-२ अथर्ववेद से।

सभी भूतों में एक ही आत्मा है जो ही ‘ब्रह्म’है- सभी मनुष्य, जीव, पेड़,पौधे, जलाशय, पर्वत, आदि…में बिना किसी देश,प्रदेश, जाति, धर्म, रंग, लिंग,गरीब, अमीर, मोटे पतले, बच्चा, युवा,वृद्ध आदि के अन्तर से। फिर क्यों आपसी द्वेष, कलह, युद्ध, घृणा, आदि नकारात्मक एवं हिंसा के भाव, क्यों इस बराबरी की, एकत्व की पहचान कराना सभी को हम हर एक का प्रथम धर्म हो। सबसे पहले हिन्दू समाज या अपने को हिन्दू कहने वाले नहीं समझते और समझाते। सबसे आश्चर्य की बात है कि जिनको इसे समझाने का अधिकार है वे ही इसे नहीं समझते।सदियों की ग़ुलामी एवं व्यापक ग़लत अशिक्षा का प्रसार और तथा कथित अज्ञानी पंडितों का स्वार्थ इसी शिक्षा पोषण इतना गहरे जा चुका है कि वह हमें केवल अंधकार अंधकार ही चारों ओर दिखता है। खैर, देश का विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व जिनके हाथ में है उन्हें ही यह करना होगा।
यहाँ हम इसके सम्बन्ध में प्राचीनतम ग्रंथों से हाल तक के उन दिव्य ग्रंथों से लिये श्लोकों एवं अन्य रूप में इस विषय पर ज़िक्र करूँगा ।
ईशोपनिषद् का हज़ारों साल पहले ही एकत्व भाव दो श्लोकों में साफ़ साफ़ यही निर्देश देता है-
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
ऐसा ही भाव क़रीब क़रीब सारे उपनिषदों में कहा गया है।

फिर महाभारत काल या उससे भी पहले की रचना भगवद्गीता में इस विषय ‘सबमें एक ही आत्मा की बात को बार बार विभिन्न रूपों क़रीब क़रीब सभी अध्यायों में कहा गया है। विशेषकर अध्याय ६ एवं अध्याय १३ में-
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥६.२९॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥६.३०॥
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥६.३१॥
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥६.३२॥
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥९.६॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्‌ ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥१३.२७॥
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्‌ ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्‌ ॥१३.२८॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥१३.३०॥
और उपरोक्त धर्मग्रंथों को बाद में अष्टावक्र रचित
अष्टावक्र गीता
सर्वभूतेषू चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥६॥
sarvabhūteṣu cātmānaṃ sarvabhūtāni cātmani |
vijñāya nirahaṃkāro nirmamastvaṃ sukhī bhava || 6 ||
Recognising oneself in all beings, and all beings in oneself, be happy, free from the sense of responsibility and free from preoccupation with ‘me’.
समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥६॥

All in the Self, the Self in All
Swami Sarvapriyananda https://youtu.be/qd-yq-j4VLw

अष्टावक्र गीता

सर्वभूतेषू चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥१५.६॥
Recognising oneself in all beings, and all beings in oneself, be happy, free from the sense of responsibility and free from preoccupation with ‘me’.
समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥६॥
इसके पहले अध्याय ६ के चौथे श्लोक में कहा है-‘अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभूतान्यथो मयि’ I am, indeed, in all beings and all beings are in Me, this the true knowledge.
Unity in Diversity: All in the Self, the Self in All
Swami Sarvapriyananda https://youtu.be/qd-yq-j4VLw

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कैसा हो कैसे एक सच्चे भारतीय नागरिक का चरित्र


मेरा सरकार के प्रधान मंत्री एवं शिक्षा मंत्री से एक ज़रूरी जिज्ञासा है। क्या हम एक पुरानी एवं प्रसिद्ध सभ्यता की संतान, उपनिषदों के शिष्यों के लिये बतायें इन में नीचे दिये गये आवश्यक गुणों को, जो आज की शिक्षा प्रणाली में किसी भी विषय में पारंगत होने के लिये ज़रूरी है, कुछ संशोधन के साथ स्थान दे सकते हैं? अगर वे इसे मानते हैं तो स्कूल स्तर पर जातक कथाओं या हितोपदेश की कथाओं की तरह सरल भाषा में कहानी या कविता या लेख के ज़रिये ही विद्यार्थियों को आचरण या चरित्र के लिये ज़रूरी उन गुणों को बताने का काम शुरू करना चाहिये।बिना अच्छे चरित्र या आचरण के हम अच्छे या एकनिष्ठ दुनिया के स्तर के वैज्ञानिक, इंजीनियर, या लेखक या यहाँ तक कि प्रजातंत्र की सुरक्षा के लिये अच्छे नागरिक भी नहीं बना सकते। पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे चरित्र एवं सदाचरण का स्तर नीचे जा रहा है।
कुछ उपनिषद् के बच्चों नचिकेता, सत्यकाम आदि की कहानियाँ पाठ का हिस्सा बन सकती है। उच्च या उच्चतर कक्षाओं के लिये उपनिषदों एवं गीता के पाँच से बीस श्लोकों हर साल जानकार लोगों से सही अर्थ एवं व्यक्त विचार के साथ सिखाया जा सकता है।
दुख की बात है कि गाँवों एवं शहरों के ग़रीबों को केवल सदियों से वे पंडित ही मिलते जा रहे हैं जिन्हें न उपनिषद् या गीता का एक भी श्लोक पढ़ाया गया हो। उनको शायद केवल साधारण कर्मकांड पढ़ाया जाता है जो उनकी रोज़ी रोटी का साधन है और इसके बारे में भी संदेह है। अधिकांश पंडितों एवं पुजारियों का उनका ज्ञान न के बराबर है एवं वह समाज में धर्म के बारे में ग़लत भ्रान्तियाँ फैलाता रहा है सदियों से। यही हाल गाँव एवं शहरों के करोड़ों मन्दिरों एवं धर्मस्थलों का भी जहां के पुजारी साल में अरबों की तादाद में तादाद में हिन्दू जाते हैं, वहाँ के पुजारी पंडित शायद ही उपनिषद्, गीता आदि को जानते हैं। कर्मकांड भी शायद पूरी तरह से नहीं जानते।
आज के समाज के बढ़ते विवाद, स्वार्थ, झगड़े, मिहनत न करने की आदतों, बेईमानी द्वारा कार्य सिद्धि करने का हर कोशिश आदि से बुरे आचरणों से कैसे उबरा जा सकता है? कौन उसे सीखाता है। गीता के कर्म योग को सरल तरीक़े से भी समझाया जा सकता है हमारी शिक्षा में या पुजारियों द्वारा प्रवचनों में।गीता से अन्य बताने की चीजें हैं वर्ण एवं आश्रम पद्धति, यज्ञ, दान, तप, व्यक्ति के तीन गुण, दैवी या असुरी स्वभाव – आज के संदर्भ में सही ढंग से समझाये जा सकते हैं। इसे वेदान्त के शंकराचार्य, विवेकानन्द या रामकृष्ण के विचारों के अनुसार अगर किया जाये तो अच्छा असर पड़ेगा।

यह अदभुद् लगता है कि प्रारम्भ के जिन सब धार्मिक संस्थाओं ने हिन्दू धर्म फैलाने का काम किया है विशेषकर पिछली तीन ३-४ शताब्दियों में या इससे पहले भी वे राजा, विद्वान, धनी नागरिक तक ही सीमित रह गये। कोई गाँवों एवं ग़रीबों तक तक गये ही नहीं। भक्तिकाल के लोगों ने ज़रूर यह किया। तुलसीदास तो गाँव गाँव तक पहुँच गये अपने रामचरितमानस से। पर आम शिक्षा के अभाव में इसे शान्ति एवं मोक्ष के लिये ही पढ़ा गया। पर असर बच्चों बच्चों तक गया। रामचरितमानस की जानकारी उत्तर भारत के बच्चों तक पहुँचा। और विदेश भेजे जा रहे मज़दूर भी इसे अपने साथ ले गये। यह गाया जाना लगा, अंताक्षरी में व्यवहार होने लगा। मेरे जमाने में भी यह था। हम पढ़ते थे, याद करते थे। बाद में बड़े होने पर भी मैं जब गाँव जाता कलकत्ता से गाँव के लोग हमसे रामायण पर शंका समाधान या शायद मेरे ज्ञानी परीक्षा के लिये मुझसे प्रश्न करते थे, उनमें मेरे पिताजी भी थे। स्वभावत इसका प्रभाव पड़ा पूरे जीवन पर।विवेकानन्द ने इस पर बहुत कहा है। वे चाहते थे कि उपनिषदों के सार गाँव तक पहुँचाया जाये। कुछ धार्मिक संस्थाएँ इस पर काम कर रहीं हैं। पर यह उनकी चाह के हिसाब से ज़रूरी आम आदमी, या स्कूलों तक पहुँच नहीं पा रहा है। उन्होंने कहा था-
Swamiji has said about the idea of potential divinity to enter all the strata of the society, “ These conception of the Vedanta must come out, must remain not only in the forest, not only in the cave, but they must come out to work at the bar and the bench, the pulpit, and in the cottage of the poor, with the fishermen that are catching fish, and with the students that are studying. They call call to every man, woman,and child, whatever be their occupation, wherever they may be. The way has been shown….If the fisherman thinks that he is the Spirit, he will be a better fisherman; if the student that he is the Spirit, he will be a better student. If a lawyer thinks that he is the Spirit, he will be a better lawyer, and so on.(3.2.45)
**
उपनिषद्, गीता एकदम धर्म निरपेक्ष हैं एवं इनके सार को आम जनता तक पहुँचाना ज़रूरी है देश में।
काश! अब इस तरह का काम प्रारंभ किया जाता, और बिरला, अम्बानी, अदानी आदि अन्य अतिसमृद्ध उद्योगपति इसमें सहायता करते। यही कारण है कि अमरीका के पढ़े लिखे लोग उपनिषद्, गीता को भारत के हिन्दूओं से ज़्यादा जानते हैं।समय के साथ हमारी शिक्षा देश की भाषा से पूर्ण रूप से अंग्रेज़ी पर निर्भर हो गई, और उन देशों के नक़ल पर ही चलती रही।

किसी व्यक्ति के चरित्र एवं आचरण की नींव डालनें माँ-बाप,एवं घर परिवार,दोस्त, मेलजोल में रहने वाले लोग ही कारण होते हैं।नींव तो बचपन में स्कूलों में ही पड़ती है,अधिकांश शिक्षक आम नागरिक से तो अच्छे ही होते हैं। उन्हें इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिये, और आम जनता को इसमें मदद करनी चाहिये। वैसे शिक्षकों के चयन में आचरण सम्बन्धी जानकारी को भी महत्व मिलना चाहिये। आज बच्चे तीन साल या पहले भी किसी न किसी तरह के स्कूलों में चले जाते हैं। इनके आचरणों की ज़िम्मेवारी उन्हीं स्कूलों पर पड़ती है। क्या वे इसका ध्यान रखते हैं ओर माँ- बाप के बात करते हैं। साथ ही माता भी बच्चों के आचरणों के लिये सबसे बड़ी ज़िम्मेवार होती हैं।क्या गरीब से गरीब अशिक्षित महिलाओं को शिक्षा प्रणाली लीची कुछ मदद मिल सकती है? शायद एक अच्छे माँ बाप बच्चों को अच्छे आचरण सीखा कर उनके भविष्य को बेहतर बना सकते है। यह विषय बहुत महत्व रखता है, अगर समय रहते कदम उठाने का काम नहीं किया, हम एक मज़बूत राष्ट्र की कल्पना नहीं कर सकते।
The requirements for the students was prescribed in the Vedic times, particularly for studying Vedanta or more so specifically the Upanishads:
“As demanded by the Vedanta, for student approaching a teacher for the knowledge of Brahman, the four must are-

  1. discrimination( Viveka) between the real and the unreal.
  2. Renunciation ( vairaagyam) of the unreal
  3. Six Virtues- calmness of mind(sama), withdrawal of sense organs from their objects (dama), keeping the mind undisturbed by external objects (uparati), patient bearing of all afflictions(titiksha),faith in the words of the teacher( Shraddha), and unceasing concentration of the mind on Brahman(samadhaana), and longing for Freedom(mumukshutaa)
    वैदिक काल में छात्रों के लिए आवश्यकता निर्धारित की गई थी, वेदांत या विशेष रूप से उपनिषदों के अध्ययन एवं ब्रह्म का अनुभव करने के लिए:
    “वैदिक साहित्य के अनुसार, ब्राह्मण के ज्ञान के लिए एक शिक्षक के पास जाने वाले छात्र के लिए, चार गुण होना चाहिए-
  4. वास्तविक सत्य और असत्य के बीच भेद (विवेक)।
  5. असत्य का त्याग (वैराग्यम्)
  6. और छह अन्य गुण- मन की शांति (सम), इंद्रियों को अपने विषयों से दूर करना (दम), बाहरी वस्तुओं से मन को विचलित नहीं करना(उपरति), सभी कष्टों को सहन करना(तितिक्षा), शिक्षक के उपदेश में विश्वास करना (श्रद्धा), और आत्म-निपटान, या ब्रह्म (समाधान) प्राप्ति के लिये निरंतर एकाग्रता, और स्वतंत्रता की लालसा (मुमुक्षुता)
    प्राचीन कठोपनिषद् कहता है-
    नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
    नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्‌ ॥१.२.२॥
    जो दुष्कर्मों से विरत नहीं हुआ है, जो शान्त नहीं है, जो अपने में एकाग्र नहीं है अथवा जिसका मन शान्त नहीं है ऐसे किसी को भी यह ‘आत्मा’ प्रज्ञा द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता।
    One who is indulged always in vicious actions, and desirous of various sensual enjoyments, and who has got no concentrated mind, can’t attain Atman through the knowledge by hearing the discourse not by just one’s intelligence.
    Request all parents to read it and comment on it or talk to me for any clarification.
    उपनिषदों में जितने शिष्यों को ज्ञान देने के लिये तैयार होते थे विशेषकर ब्रह्मज्ञान उन्हें इन गुणों को अपने में लाने के लिये एक नियत समय के लिये इन गुणों के जीवन का आश्रम में रह अभ्यास करने के लिये गुरू निर्देश देते थे। प्रश्नोपनिषद् में पाँच अपने पास आये शिष्यों को कहते हैं, ‘ ”आप लोग पुनः एक वर्ष ब्रह्मचर्य, श्रद्धा एवं तपस्यापूर्वक व्यतीत करिये फिर जो चाहें प्रश्न पूछिये, और मैं यदि उस विषय में जानता होऊँगा तो निःसंदेह बिना कुछ गुप्त रखे आप लोगों को सब बताऊँगा।’ फिर गुरू की परीक्षा में सफल होने पर ही ज्ञान का पाठ प्रारंभ किया जाता था।देवराज इन्द्र एवं असुर राज विरोचन को भी यह करना पड़ा। नचिकेता की तो यमराज बराबर परीक्षा करते जाते थे विभिन्न प्रलोभनों से। आज के विद्यार्थियों की एसी शिक्षा में क्या हो इस पर एक प्रबुद्धों की कमिटी निर्णय ले सकती है।

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कैसा हो एक सच्चे भारतीय नागरिक का चरित्र और कैसे


मेरा सरकार के प्रधान मंत्री एवं शिक्षा मंत्री से एक ज़रूरी जिज्ञासा है। क्या हम एक पुरानी एवं प्रसिद्ध सभ्यता की संतान, उपनिषदों के शिष्यों के लिये बतायें इन में नीचे दिये गये आवश्यक गुणों को, जो आज की शिक्षा प्रणाली में किसी भी विषय में पारंगत होने के लिये ज़रूरी है, कुछ संशोधन के साथ स्थान दे सकते हैं? अगर वे इसे मानते हैं तो स्कूल स्तर पर जातक कथाओं या हितोपदेश की कथाओं की तरह सरल भाषा में कहानी या कविता या लेख के ज़रिये ही विद्यार्थियों को आचरण या चरित्र के लिये ज़रूरी उन गुणों को बताने का काम शुरू करना चाहिये।बिना अच्छे चरित्र या आचरण के हम अच्छे या एकनिष्ठ दुनिया के स्तर के वैज्ञानिक, इंजीनियर, या लेखक या यहाँ तक कि प्रजातंत्र की सुरक्षा के लिये अच्छे नागरिक भी नहीं बना सकते। पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे चरित्र एवं सदाचरण का स्तर नीचे जा रहा है।


कुछ उपनिषद् के बच्चों नचिकेता, सत्यकाम आदि की कहानियाँ पाठ का हिस्सा बन सकती है। उच्च या उच्चतर कक्षाओं के लिये उपनिषदों एवं गीता के पाँच से बीस श्लोकों हर साल जानकार लोगों से सही अर्थ एवं व्यक्त विचार के साथ सिखाया जा सकता है।


दुख की बात है कि गाँवों एवं शहरों के ग़रीबों को केवल सदियों से वे पंडित ही मिलते जा रहे हैं जिन्हें न उपनिषद् या गीता का एक भी श्लोक पढ़ाया गया हो। उनको शायद केवल साधारण कर्मकांड पढ़ाया जाता है जो उनकी रोज़ी रोटी का साधन है और इसके बारे में भी संदेह है। अधिकांश पंडितों एवं पुजारियों का उनका ज्ञान न के बराबर है एवं वह समाज में धर्म के बारे में ग़लत भ्रान्तियाँ फैलाता रहा है सदियों से। यही हाल गाँव एवं शहरों के करोड़ों मन्दिरों एवं धर्मस्थलों का भी जहां के पुजारी साल में अरबों की तादाद में तादाद में हिन्दू जाते हैं, वहाँ के पुजारी पंडित शायद ही उपनिषद्, गीता आदि को जानते हैं। कर्मकांड भी शायद पूरी तरह से नहीं जानते।


आज के समाज के बढ़ते विवाद, स्वार्थ, झगड़े, मिहनत न करने की आदतों, बेईमानी द्वारा कार्य सिद्धि करने का हर कोशिश आदि से बुरे आचरणों से कैसे उबरा जा सकता है? कौन उसे सीखाता है। गीता के कर्म योग को सरल तरीक़े से भी समझाया जा सकता है हमारी शिक्षा में या पुजारियों द्वारा प्रवचनों में।गीता से अन्य बताने की चीजें हैं वर्ण एवं आश्रम पद्धति, यज्ञ, दान, तप, व्यक्ति के तीन गुण, दैवी या असुरी स्वभाव – आज के संदर्भ में सही ढंग से समझाये जा सकते हैं। इसे वेदान्त के शंकराचार्य, विवेकानन्द या रामकृष्ण के विचारों के अनुसार अगर किया जाये तो अच्छा असर पड़ेगा।

यह अदभुद् लगता है कि प्रारम्भ के जिन सब धार्मिक संस्थाओं ने हिन्दू धर्म फैलाने का काम किया है विशेषकर पिछली तीन ३-४ शताब्दियों में या इससे पहले भी वे राजा, विद्वान, धनी नागरिक तक ही सीमित रह गये। कोई गाँवों एवं ग़रीबों तक तक गये ही नहीं। भक्तिकाल के लोगों ने ज़रूर यह किया। तुलसीदास तो गाँव गाँव तक पहुँच गये अपने रामचरितमानस से। पर आम शिक्षा के अभाव में इसे शान्ति एवं मोक्ष के लिये ही पढ़ा गया। पर असर बच्चों बच्चों तक गया। रामचरितमानस की जानकारी उत्तर भारत के बच्चों तक पहुँचा। और विदेश भेजे जा रहे मज़दूर भी इसे अपने साथ ले गये। यह गाया जाना लगा, अंताक्षरी में व्यवहार होने लगा। मेरे जमाने में भी यह था। हम पढ़ते थे, याद करते थे। बाद में बड़े होने पर भी मैं जब गाँव जाता कलकत्ता से गाँव के लोग हमसे रामायण पर शंका समाधान या शायद मेरे ज्ञानी परीक्षा के लिये मुझसे प्रश्न करते थे, उनमें मेरे पिताजी भी थे। स्वभावत इसका प्रभाव पड़ा पूरे जीवन पर।विवेकानन्द ने इस पर बहुत कहा है। वे चाहते थे कि उपनिषदों के सार गाँव तक पहुँचाया जाये। कुछ धार्मिक संस्थाएँ इस पर काम कर रहीं हैं। पर यह उनकी चाह के हिसाब से ज़रूरी आम आदमी, या स्कूलों तक पहुँच नहीं पा रहा है। उन्होंने कहा था-
Swamiji has said about the idea of potential divinity to enter all the strata of the society, “ These conception of the Vedanta must come out, must remain not only in the forest, not only in the cave, but they must come out to work at the bar and the bench, the pulpit, and in the cottage of the poor, with the fishermen that are catching fish, and with the students that are studying. They call call to every man, woman,and child, whatever be their occupation, wherever they may be. The way has been shown….If the fisherman thinks that he is the Spirit, he will be a better fisherman; if the student that he is the Spirit, he will be a better student. If a lawyer thinks that he is the Spirit, he will be a better lawyer, and so on.(3.2.45)
**
उपनिषद्, गीता एकदम धर्म निरपेक्ष हैं एवं इनके सार को आम जनता तक पहुँचाना ज़रूरी है देश में।
काश! अब इस तरह का काम प्रारंभ किया जाता, और बिरला, अम्बानी, अदानी आदि अन्य अतिसमृद्ध उद्योगपति इसमें सहायता करते। यही कारण है कि अमरीका के पढ़े लिखे लोग उपनिषद्, गीता को भारत के हिन्दूओं से ज़्यादा जानते हैं।समय के साथ हमारी शिक्षा देश की भाषा से पूर्ण रूप से अंग्रेज़ी पर निर्भर हो गई, और उन देशों के नक़ल पर ही चलती रही।

किसी व्यक्ति के चरित्र एवं आचरण की नींव डालनें माँ-बाप,एवं घर परिवार,दोस्त, मेलजोल में रहने वाले लोग ही कारण होते हैं।नींव तो बचपन में स्कूलों में ही पड़ती है,अधिकांश शिक्षक आम नागरिक से तो अच्छे ही होते हैं। उन्हें इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिये, और आम जनता को इसमें मदद करनी चाहिये। वैसे शिक्षकों के चयन में आचरण सम्बन्धी जानकारी को भी महत्व मिलना चाहिये। आज बच्चे तीन साल या पहले भी किसी न किसी तरह के स्कूलों में चले जाते हैं। इनके आचरणों की ज़िम्मेवारी उन्हीं स्कूलों पर पड़ती है। क्या वे इसका ध्यान रखते हैं ओर माँ- बाप के बात करते हैं। साथ ही माता भी बच्चों के आचरणों के लिये सबसे बड़ी ज़िम्मेवार होती हैं।क्या गरीब से गरीब अशिक्षित महिलाओं को शिक्षा प्रणाली लीची कुछ मदद मिल सकती है? शायद एक अच्छे माँ बाप बच्चों को अच्छे आचरण सीखा कर उनके भविष्य को बेहतर बना सकते है। यह विषय बहुत महत्व रखता है, अगर समय रहते कदम उठाने का काम नहीं किया, हम एक मज़बूत राष्ट्र की कल्पना नहीं कर सकते।
The requirements for the students was prescribed in the Vedic times, particularly for studying Vedanta or more so specifically the Upanishads:
“As demanded by the Vedanta, for student approaching a teacher for the knowledge of Brahman, the four must are-

  1. discrimination( Viveka) between the real and the unreal.
  2. Renunciation ( vairaagyam) of the unreal
  3. Six Virtues- calmness of mind(sama), withdrawal of sense organs from their objects (dama), keeping the mind undisturbed by external objects (uparati), patient bearing of all afflictions(titiksha),faith in the words of the teacher( Shraddha), and unceasing concentration of the mind on Brahman(samadhaana), and longing for Freedom(mumukshutaa)
    वैदिक काल में छात्रों के लिए आवश्यकता निर्धारित की गई थी, वेदांत या विशेष रूप से उपनिषदों के अध्ययन एवं ब्रह्म का अनुभव करने के लिए:
    “वैदिक साहित्य के अनुसार, ब्राह्मण के ज्ञान के लिए एक शिक्षक के पास जाने वाले छात्र के लिए, चार गुण होना चाहिए-
  4. वास्तविक सत्य और असत्य के बीच भेद (विवेक)।
  5. असत्य का त्याग (वैराग्यम्)
  6. और छह अन्य गुण- मन की शांति (सम), इंद्रियों को अपने विषयों से दूर करना (दम), बाहरी वस्तुओं से मन को विचलित नहीं करना(उपरति), सभी कष्टों को सहन करना(तितिक्षा), शिक्षक के उपदेश में विश्वास करना (श्रद्धा), और आत्म-निपटान, या ब्रह्म (समाधान) प्राप्ति के लिये निरंतर एकाग्रता, और स्वतंत्रता की लालसा (मुमुक्षुता)
    प्राचीन कठोपनिषद् कहता है-
    नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
    नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्‌ ॥१.२.२॥
    जो दुष्कर्मों से विरत नहीं हुआ है, जो शान्त नहीं है, जो अपने में एकाग्र नहीं है अथवा जिसका मन शान्त नहीं है ऐसे किसी को भी यह ‘आत्मा’ प्रज्ञा द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता।
    One who is indulged always in vicious actions, and desirous of various sensual enjoyments, and who has got no concentrated mind, can’t attain Atman through the knowledge by hearing the discourse not by just one’s intelligence.
    Request all parents to read it and comment on it or talk to me for any clarification
    उपनिषदों में जितने शिष्यों को ज्ञान देने के लिये तैयार होते थे विशेषकर ब्रह्मज्ञान उन्हें इन गुणों को अपने में लाने के लिये एक नियत समय के लिये इन गुणों के जीवन का आश्रम में रह अभ्यास करने के लिये गुरू निर्देश देते थे। प्रश्नोपनिषद् में पाँच अपने पास आये शिष्यों को कहते हैं, ‘ ”आप लोग पुनः एक वर्ष ब्रह्मचर्य, श्रद्धा एवं तपस्यापूर्वक व्यतीत करिये फिर जो चाहें प्रश्न पूछिये, और मैं यदि उस विषय में जानता होऊँगा तो निःसंदेह बिना कुछ गुप्त रखे आप लोगों को सब बताऊँगा।’ फिर गुरू की परीक्षा में सफल होने पर ही ज्ञान का पाठ प्रारंभ किया जाता था।देवराज इन्द्र एवं असुर राज विरोचन को भी यह करना पड़ा। नचिकेता की तो यमराज बराबर परीक्षा करते जाते थे विभिन्न प्रलोभनों से। आज के विद्यार्थियों की एसी शिक्षा में क्या हो इस पर एक प्रबुद्धों की कमिटी निर्णय ले सकती है।
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प्रकृति की एक पुकार

मेरे कुछ घंटे से बरसने से,
अस्त व्यस्त हो जाता
तुम्हारा जीवन
तुम मुझको कभी,
कभी सरकार को कोसते हो
पर उसमें तुम्हारी तरह ही हैं
जानते केवल चुनाव शब्द
यही है काम उनका,
कुछ भी कर सकते
हैं उसके तो लिये।
न नालियाँ बनायेंगे,
न उनकी मरम्मत होगी
न कुछ तुम्हें जगायेंगे
जब मेरा चैन हर जाता
मेरा यह रूप होता
तुम न तो कोई रावण हो,
न राम ही बन पाये
बीच में लटकते हुए
असहाय बने रहते हो
तुम सोचो मेरे हित कुछ
मैं मैली होती जाती हूँ
तुमने ज़हरीले गैसों से
भर दिया सारा आसमान
क्या मैं क्रोध हीन बनूँ
देख तुम्हें करते सब,
सब समय नालायक हरकत
तब मुझे इसी तरह बरसना
पड़ता है।
मत करो मुझे तंग अब ज़्यादा
न तो जल प्लावन बन आऊँगा
तुममें नहीं कोई नूह या मनु
जो तुम्हें बचायेगा।
जब हर तुम बन सकते ब्रह्म
क्यों असुर बनते जाते हो
सोचों अपने ऋषियों को
जो सब तुम्हें बतायें हैं।
सब में है एक ब्रह्म
पेड़ पशु जल जीव
छोटे से छोटे में
बड़े की तो बात छोड़ो।
समय रहते चेत जाओ
न बनो मेरा शिकार
बचा लो प्यारी धरती को।
होगा बड़ा वह आत्मघात
कर्म समझो या की पाप।
उठो, जागो, सुनो बात
अब तो बदल जाओ
समय रहते स्वार्थ त्याग।

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My Project and Resolution to complete in 2022

I got a taste for the Ramcharitamanas and some of the popular Slokas of Bhagavad Gita in my early school days, when my grandfather would reinforce his advice by quoting some Sanskrit Slokas. He often used the following well-known shloka from the Gita
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन, ..’ and

‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी’, when offering his sage advice.

In my high-school days, Sanskrit used to be offered as a subject for the school final examinations (a major exam you had to take at the end of Class 10 or 10th grade). I took Sanskrit as a subject for a full four years. However, years later when I tried to recall my Sanskrit, I realized I had forgotten everything. The only things I could recall easily were my own work-related technologies and management techniques in which I had specialised in on my own during my 40-year professional career.

Interestingly, at IIT, Kharagpur, where I got my Bachelor’s degree, the Institute’s motto was ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ (yogah karmasu kausalam). This, my grandfather had explained to me, was one of the famous Slokas from Chapter 2 of the Bhagavad Gita.

Later on, after my wife joined me in Hindustan Motors residential colony, and because of her, I gradually started becoming more and more spiritually inclined.

I don’t recall exactly when I started doing morning puja (prayers) and reading some portions of the Ramcharitamanas on a daily basis. In later years, I tried to read some passages of the Bhagavad Gita too, particularly regarding the स्थिप्रज्ञता in chapter 2. This interest grew with time.

I had seen my grandfather finish a complete reading of the Ramcharitamanas every month (Masaparayana) and then even in nine days (Navaparayana) during the two Navratri festival times in a year.

By 1990, I too started down that path, and my spiritual interest grew deeper over the years. I carried on with the daily practice of reading the Ramcharitamanas without fail, no matter what the conditions were like. This continued even while travelling within the country, or abroad, which at one point of my work-life at Hindustan Motors had become a regular part of my assignments. This spiritual fervour grew till my heart attack in 1999 December end in Noida.

At that time I was working, after my retirement from Hindustan Motors, as the President of a factory. It was sudden, and came as a big shock. This changed my life in a big way.

One day, the 27th of April 2000, I came across and bought a little book – ‘The Curative Powers of the Holy Gita’ – with about 33 Slokas compiled by one T. R. Seshadri. This was a time when I was still recovering from my open-heart surgery which was done by Dr. Naresh Trehan of the Escorts Heart Hospital.

I started reading the slokas from this little book every morning during my puja. In October, the same year, we went to our house in Salt Lake City in Kolkata that I had built while still working at Hindustan Motors. There, we decided collectively – with our children – that I must resign from my job and live a carefree retired life, enjoying the years left.

We decided to live in Noida, close to Delhi. Upon the insistence of my wife, we bought a house in Sector 41, Noida, in 1998, and moved in . We preferred Noida over Salt Lake as I found it more cosmopolitan, with better amenities like hospitals and proximity to New Delhi International Airport, which was much better connected, something we missed while we were in Kolkata. With my three sons living in the US, this was another big plus.

After my retirement, I completed writing – ‘Latest Trends in Machining’- my last book on technical topics. Thereafter, I had to decide my daily schedule of activities in order to stay busy during the day, which, for a work-oriented person like me, appeared quite daunting at that time.

To my daily Puja, in addition to reading Slokas from the book I mentioned earlier, I added Ashram Bhajanavali of Mahatma Gandhi and Sundar Kand from the Ramcharitamanas. Later on, I started a deeper study of the spiritual texts that I already had in abundance in my personal library by then.

It was only in 2019-20 and more so with the onslaught of the Covid-19 pandemic and the total lockout that followed, that I switched gears – getting on with serious study of the Bhagwad Gita and thereafter the major Upanishads. I procured the commentaries by a number of reputed writers for both the texts – in English and Hindi. Starting early in the morning, every day, I spent hours studying these commentaries one by one, often reading them again and again. I kept jotting down, in my yellow notebook some of the Slokas that struck a chord and also started memorising them. Perhaps, due to my advancing age, I started appreciating these more and more, often seeing some new light shine through every time I picked up and read or re-read the slokas.

Having built a culture of diving deep to understand the engineering issues, and pouring my sweat and toil in breaking any technical challenges, during my work years, I now found new meaning in those experiences with these texts as my guide. Trying to plumb the depths of what the sages were trying to relay, I found that what we are seeking in “real life” (as in, during our frantic/hard-working professional years), has many parallels with the ultimate search – the search for true ‘divinity’.

Shrimad Bhagwad Gita is a part of the great epic of the world, the Mahabharata, known to have been penned down by Ved Vyasa, thousands of years ago. The Mahabharata has a total of one hundred thousand Slokas in its eighteen parvas (chapters). In Mahabharata, the Bhagavad Gita with its 700 Slokas, was in Bhishma Parva of the Shri Bhagavad Gita Parva’ (designated ‘up-parva’), and starts from chapter 23 and ends in chapter 40.

Perhaps Shankaracharya was the first one to have taken the Bhagavad Gita “out” of the Mahabharata epic, sometime in the eighth century AD, and accorded to it its own identity – freeing it in some ways from the Mahabharata.

He also wrote its first ‘bhasya’ – a commentary – in simpler Sanskrit prose, for its 700 verses with a profound introduction. He considered the Bhagavad Gita as the collected essence of the messages of all Vedas- ‘समस्तवेदार्थसारसंग्रहभूतम्’ (samast vedarth saar sangrahabutam). Some consider Gita as an Upanishad too. The Bhagwad Gita itself at the end of each chapter says, ‘श्रीमद्भगवगदगीसूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायो योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवाद……’ ( ..shrimadbhadvad Gita Su upanishadsu bhramavidyayo yogashastre Shri Krishnarjun samvad..). Also, at the end of the name of all the chapters (as suffix) it uses the word ‘योग’ (Yog), कर्मयोग (Karmayoga), ज्ञानयोग (Jnanyoga), etc.

Bhagavad Gita got designated as one of the three Hindu scriptures of प्रस्थानत्रयी, prashthantrayi- which includes the Upanishads, the Brahma Sutra, and the Bhagavad Gita.

The Bhagwad Gita is universally considered as a unique treatise, providing a detail handbook of the essence of all the 108 or more of the Upanishads, perhaps, of all the Vedas and other earlier scriptures for the use of all people – no matter which country or culture they come from. Swami Vivekananda, the Hindu monk who opened the eyes of the West and his beloved India to this great spiritual heritage, says in his ‘Complete Works’,

“no better commentary on the Vedas than Gita has been written or can be written. The essence of the Shrutis, or the Upanishads, is hard to understand. There were so many commentators, each one trying to interpret in his own way. Then the Lord (Krishna) Himself comes, He who is the inspirer of the Shrutis, to show us the meaning of them, as the preacher of the Gita, and today India wants nothing better than that type of interpretation.”

Some commentators give credit to Anand Giri, who first declared that the Bhagavad Gita illustrates the detailed message of one of the four mahavakyas of the Upanishads- ‘Tat Tvam Asi’ –‘That Thou Art’. The Gita provides a deep understanding of the profound truth of the Upanishads. Each word of the mahavakya has been explained in the Bhagavad Gita.

The first six chapters, from the first to sixth, talk of ‘tvam’-‘Thou’, the Atman, and deal with the nature of the real eternal Self in every being. The next six chapters, from the seventh to the twelfth, dwell on ‘Tat’ – ‘That’: Brahman, the Supreme Reality underlying all creation. The last six chapters from the thirteenth to the eighteenth focuses on ‘Asi’, ‘is’ – the relationship between ‘Tvam’ and ‘Tat’- the relation of the the eternal Self in every beings with the Supreme Reality, which unites all existence into one whole- ‘Ekstavam’. Gita provides the guidelines for discovering one’s real Self and then, if one wishes, can progress further to realise the indivisible unity of life and get united with the Supreme Reality, the Brahman.

Madhusudan Saraswati (1590-1607AD), credited by many as the best commentator of the Bhagavad Gita after Adi Shankaracharya, divides the eighteen chapters in the same three sections with each dealing successively with Karma Yoga or the yoga of action (Chapters 1-6), Bhakti Yoga or the yoga of love of the Supreme (Chapters 7-12), and finally Gyan Yoga (Chapters 13-18) or the yoga of knowledge. However, Adi Shankaracharya did not mention the above categories in his commentary of the Bhagavad Gita.

My Need for This Collection

Interestingly, Swami Vivekananda in ‘The Mission of Vedanta’ writes –
“ …Aye, if there is anything in the Gita that I like it is these two verses, (XIII 27,28) coming out strong as the very gist, the very essence, of Krishna’s teaching” :

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥13.27॥
samaṁ sarveṣu bhūteṣu tiṣṭhantaṁ parameśvaram
vinaśyatsvavinaśyantaṁ yaḥ paśyati sa paśyati.
He who sees the supreme Lord dwelling in all beings, the Imperishable in things that perish, he sees indeed.

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥13.28॥
samaṁ paśyanhi sarvatra samavasthitamīśvaram,
na hinastyātmanātmānaṁ tato yāti parāṁ gatim.
For seeing the Lord as the same, present everywhere, he does not destroy the Self by the self, and thus he goes to the highest goal.”

The presence of Self in every being is one of the main topics of Upanishads. However, the Slokas of Bhagavad Gita above remind of the similar Slokas 6 and 7 in Isopanisad, the one of the oldest Upanishads:

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥6॥
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥7॥

Swami Sivanand of The Divine Society has brought to our attention another Sloka, in his commentary on the Bhagavad Gita, and called it एकश्लोकीय गीता (ek slokiya gita). This is the last Sloka 78 of Bhagavad Gita – Chapter 18, by which Sanjaya concludes his narration of the Bhagavad Gita in Kurukshetra to the blind King Dhritrashtra in his capital city of Hastinapur:

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
हे राजन! जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है.

Wherever is Krishna, the Lord of Yoga, wherever is Partha, the archer, there is prosperity, victory, happiness and sound policy; this is my conviction.

Swami Sivanand has also selected seven Slokas that contain the essence of the whole Gita and called it सप्तश्लोकी गीता with 7 Slokas (8-13, 11-36,13-13,8-9,15-1,15-15,9-34).

A visiting Pandit (wise man) once requested Bhagavan Ramana Maharshi to select a few key Slokas out of the total of 700 Slokas of Bhagavad Gita, which will be enough to remember and understand the core message of the Bhagavad Gita. For an average person it is difficult to remember and retain all the seven hundred verses in memory, the Pandit explained. The Pandit then continued, ‘Is there one verse that could be remembered as the quintessence of the Gita?’ Bhagavan Raman thereupon mentioned the verse 20 of Chapter X as that verse:

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥

हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा
संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ॥

‘I am the Self, Oh Gudakesa (Arjun), dwelling in the Heart of every being; I am the beginning, and the middle, and also the end of all beings.’

Later, after a few years, Maharshi Ramana, who had named the above Sloka as the essence of the Bhagavad Gita, also selected forty-two verses that represent the essence of the whole message of the Gita, and can also be easily remembered by those interested. I found that those forty two Slokas did not meet my specific needs, as audacious as this may sound.

I, therefore, while going through various commentaries of the Bhagavad Gita by five to six well-known spiritual gurus, thought of preparing a selection of the Slokas from the Hindu scriptures for my own practise, and for my family members wherever they resided – in the US, and their friends.

I started my process of selecting and preparing a comprehensive collection of Slokas from the Bhagavad Gita and the Upanishads that covered all its chapters, in my own way. I intended to limit myself to some 150-200 Slokas. I wanted to memorise them. These selected slokas collectively would help in understanding the universal messages of the Upanishads and Bhagavad Gita – such was my thought process. Another idea was to build my own spiritual strength, and train myself to work without desire for any fruit, giving up as much as I can.

By repeating the Slokas of the Upanishads, the Bhagavad Gita and the Ramcharitamanas, as is done in bhakti yoga by chanting the name of the Supreme or a mantra, I thought I maybe able to develop the means to attain goodness and true spirituality in my conduct indirectly and help me in becoming a better human being. This compilation is the result of that attempt. I have tried to memorise most of them.

I have started repeating the memorised Slokas as many times as I have the opportunity to, once every morning in front of the statue of Mother Saraswati, the goddess of knowledge. Because of the pandemic, I have been walking alone in the morning and evening. This helps me keep my mind preoccupied with goodness I think, and I repeat these slokas while walking inside or outside the apartment, or in the walkway downstairs.

Sometimes, I have discovered a newer, inspiring insight into my weaknesses, and the way to overcome them, to become a better person, a good citizen. It gives me great satisfaction and happiness, because of a hope that maybe I will succeed in the remaining years of my physical existence in this bodily form, to become better, if not enlightened, in this very lifetime.

Perhaps, The Slokas that I have excluded will not affect me much. I tried to limit or exclude those slokas that dwell on negative aspects, such as those that detail the shortcomings of Rajshik , Tamasik, and Aasuri nature. Anyone interested in knowing about them, can always go back to the original Slokas of the Gita in Sanskrit, and the wise commentaries in many languages by respected spiritual people. Every Indian, from any walk of life, of any caste, region, or faith can go through it.

To give a broader glimpse of the ancient Hindu Scriptures, I also added a few Slokas from the Vedas, and more from a few of the major Upanishads. Then, I thought that by including some portions from the Ramcharitamanas, the most popular religious, literary creation of the Hindi belt of India, I would enrich it further. With these additions, I hope my collection is more complete.

The Vedas are the root books of all Hindu religious scriptures. The 108 Upanishads were basically integrated into the four Vedas. The Ramcharitamanas of Goswami Tulsidas, has taken the story from the earliest Sanskrit epic of Valmiki Ramayana.

The Rishis who created the Upanishads and then the Bhagavad Gita, and much later in history, Tulsidas with Ramcharitamanas, have each added their own perspectives on the spiritual path propounded in the four Vedas, about the Ultimate Reality. Through their own spiritual realisation, research and experiences they prepared these works to correct many perversions in social values that had come about in their own times in the name of the Vedas and other spiritual texts, largely because of the unlearned teachers and their undue, large influence in their contemporary societies, that eventually resulted in superstitions and other wrong practises in the name of religion due to incorrect interpretations by these social leaders.

Some of the Upanishads are in verse and some in prose. The entire Bhagavad Gita, in verse, is an evolution, I think. The scriptures evolved on the essence of the basic ideas of the key answers to the spiritual questions raised by brilliant seekers and answered by the ancient, wisest of saints and Rishis from the time of the Vedas and more importantly during the times of the Upanishads.

Many Slokas in the Gita are the same or similar, with only very small variations from the Upanishads. In Ramcharitamanas, some Dohas and chaupais are almost verbatim translations of the same core messages, with a small variation, of the essence of the Vedas, Upanishads, and then Bhagavad Gita. But the uniqueness of Ramcharitamanas is that it was written in the language of the common people from the part of the Indian subcontinent where Tulsidas was from – the Gangetic northern region. However, it has now spread all across the world through its many beautiful translations.

I hope it will be useful for my children and their friends in the US or elsewhere, who live far away from India where people of Indian origin, at large, are more and more getting educated in the English medium only. I am confident people will gradually get interested in spiritual knowledge too.alParticularly after reaching a stage in life, as we age, we start losing our interest in what we had been focused on during our ‘working years’, and yearn for some knowledge about something more than scientific/ professionally geared ‘knowledge’ that we work hard to gain over years.

I hope this collection will generate curiosity to gain more spiritual knowledge for everyone, of all ages, especially those that trace a part of their family tree to India, or are just interested in learning more about the great spiritual quest that the accomplished spiritual seekers and practitioners from the ancient times set off on.

Before I end this long introduction, I would like to emphasise that those verses that are not a part of this collection from the three most important scriptures, and the Ramcharitmanas, the story of Rama by Tulsidas, are of no lesser importance . I therefore appeal to those seriously interested, to go through such a journey on their own, and build a collection customized to their own selves, and to leave back a spiritual legacy.

For this collection, I intend to keep some blank pages at the end of the main sections, so that the readers that want to, can add some of their own selected slokas. I would love to get comments at my email regarding this and other thoughts, as you go through this : irsharma@gmail.com.

Note- This would have been finished last year itself. On request of adding meaning of words in English and Hindi, I could not. As I keeping on reading more and more on the subjects covering very wide horizon, I feel like editing and minor adding and subtracting all the time. I could not win over this temptation.

To your quest for knowledge.

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आइये कुछ नई तरह से इतिहास एवं आज को समझे- कुछ सोच, कुछ विचार

आइये कुछ नई तरह से इतिहास एवं आज को समझे- कुछ सोच, कुछ विचार

मेरे ब्रह्म मुहूर्त के अध्ययन मनन से कुछ नई सोच निकलती रहती है। ऋषि परशुराम को भी दशावतारों में एक माना जाता है। शायद वे सतयुग के थे पर त्रेता में भी दिखे। तभी तो राम से सीता के परिणय के लिये आयोजित धनुष भंग की प्रतियोगिता के आयोजन सभा में वे राम-लक्ष्मण से मिले। और धनुष तोड़ने वाले राम या लक्ष्मण पर अपनी क्रोधाग्नि बरसाईं और फिर समय की नाजुकता को समझ राम के अवतरित होने को मान देते हुए अपना धनुष दे विदा हो गये। पर शायद परशुराम को उनकी अन्दरूनी क्रोध और क्षमा भाव की हीनता एवं पिता की अनुचित आज्ञापालन कर अपनी जननी का बध करने के कारण उन्हें दूरदर्शी कवियों ने कोई स्थान नहीं दिया, न जनता ने उनको पूजा योग्य समझा, न उनका मन्दिर बना। परशुराम ब्रह्म नहीं माने जा सकते, क्योंकि ब्रह्म जातिवाद को नहीं मानता। उसकी लड़ाई किसी महान कार्य एवं एक न्याय संगत व्यवस्था बनाने के लिये होती है। अपनी ब्राह्मण शक्ति को दिखाने के लिये बना किसी अन्य उपायों को अपनाये ही क्षत्रिय राजाओं का परशुराम ने नरसंहार किया और उनके राज्यों को ब्राह्मणों को दे दिया। शायद वे पहले जातिवाद का प्रारंभ करनेवाले बने।और जिनको उन्होंने वे राज्य दिये, वे पहले लोगों से भी बुरे बन गये।अगर वे सबमें एक सबसे योग्य की तलाश करते और भारतवर्ष का राज्य दिये रहते चाणक्य की तरह, अखंड भारत की नींव डालने की कोशिश एवं सशक्त उत्तराधिकार की पद्धति छोड़ जाते तो शायद भारत ग़ुलाम नहीं बनता कभी। पर चाणक्य भी यह नहीं कर सके।चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ भी ऐसा हुआ अशोक के बाद।चाणक्य का अर्थशास्त्र भी कुछ समाधान नहीं कर सका।

द्वापर में भी परशुराम कर्ण के गुरू बने, यहाँ भी उनका वही क्रोध दिखता है, ब्राह्मण वाली दया, क्षमा उनमें थी ही नहीं; न वह ब्रह्मज्ञान था जिससे वे विद्यार्थी की चारित्रिक कमजोरी को शिष्य बनाने के पहले ही समझ सकने की शक्ति थी।ज्ञान देकर फिर श्राप देना तो समझ नहीं आता वह भी एक अवतार पुरूष ब्राह्मण का।

शायद परशुराम उन पाँचों महानों में हैं जिन्हें कुछ ग्रंथों ने अमर बताया है। पता नहीं तब क्यों नहीं वे कलियुग में आये, जब अपने देश में सबसे शक्तिशाली समझने वाले राजस्थान के राजपूत राजा एवं पंजाब की समर्थ सिख सम्प्रदाय केवल एकत्व के अभाव,अहंकार एवं आपसी द्वेष के चलते देश को विदेशी, इस्लामी, एक अंग्रेज कम्पनी को देश का मालिकाना थम्हा दिया। आक्रमणों और उसके परिणाम में देश को सदियों के लिये ग़ुलाम कर दिया। वहीं एक छोटे हिस्से के राणा प्रताप ने अकबर एवं शिवाजी ने आततायी औरंगजेब को कभी अपने पर हावी होने नहीं दिये। यहाँ भी शिवाजी के समर्थ गुरू थे उनकी शक्ति के पीछे, पर राणा प्रताप के साथ कोई चाणक्य नहीं मिला, हाँ भामासाह तो मिल गया। सदियों की ग़ुलामी के लिये सबसे ज़्यादा ब्राह्मण एवं क्षत्रिय ही ज़िम्मेदार रहे।

परशुराम से एक दम अलग थे राम …बचपन में वशिष्ठ से पूर्ण शास्त्र ज्ञान पाये उनके आश्रम में, और युवक होते ही विश्वामित्र से शस्त्र ज्ञान। करुण भाव कूट कूट भरा था बचपन से, सबके प्यारे बने। पर फिर आततायी मायावी ताड़का को मारने से भी नहीं झिझके ऋषियों के शान्ति के साथ ज्ञान की खोज में बाधक होने के कारण। आगे एक वर्षों की अज्ञानता के अंधकार में पड़ी अहिल्या को अपने सूक्ष्म ज्ञान से नया जीवन दिया। राजर्षि जनक और जनकपुर को सशक्त दामाद दे इज़्ज़त दी। पिता के धर्म विरूद्ध आदेश का भी सम्मान एवं श्रद्धा से पालन किया। तीनों माताओं को, चारों भाइयों को आदर्श इज्जत एवं प्यार दिया….सभी ज्ञानियों से ज्ञान लिया। अति पिछड़े वर्ग केवट, निसाद,कोल-भील, जटायु गिद्ध, बानर, भालू, और फिर रावण के ही भाई की सहायता ली, उन्हें भाइयों से भी बड़ा कहा, सभी संकटों के बावजूद कभी बनवास के शर्तों को नहीं तोड़ा.. और चौदह साल का लम्बा बनवास काट अयोध्या लौटने के पहले पूरा सात्विक साधुओं का जीवन जिया।युद्ध में तत्कालीन युद्ध धर्म के विरूद्ध में कुछ नहीं कहा। गृहस्थ जीवन में एक आदर्श भाई, पति, पुत्र, राजा का वैदिक धर्म के अनुसार व्यवहार किया और फिर एक पत्नी, एवं दो पुत्रों के पिता बन आदर्श स्थापित किया।
एक आश्चर्य की बात ज़रूर नज़र आती कि किसी स्वजातीय शक्तिशाली राजा ने उनके रावण के विरूद्ध धर्मयुद्ध में मदद नहीं की। शायद इसीलिये स्वयंवर में राजा जनक ने पूरे वीरों में किसी से जब वह शिव धनुष नहीं टूटा, यहां तक की हिला भी नहीं तो सबको सुना ‘बीर विहीन धरा मैं जानी’ कह दिया। और क्षत्रिय राजाओं का यही समाज एवं देश के दुश्मनों के विरूद्ध एक न हो पूरे देश को सदियों ग़ुलाम बना रखा।

मेरी राय में मौर्य साम्राज्य के चंद्रगुप्त,अशोक और बाद गुप्त काल के प्रसिद्ध राजा, फिर हर्षवर्धन, राजा कृष्णदेव राय ने राजा राम को ही आदर्श मान कर राज्य का विस्तार किया और प्रसिद्धि पाई। और हाँ चाणक्य की तरह भारत को एक अखंड साम्राज्य का पथ दिखानेवाले भी नहीं मिले। ब्राह्मणों से ब्राह्मण ज्ञान एवं शक्ति जाती रही थी एवं आज की तरह वे सभी दैवी सम्पदा को छोड़ असुरी सम्पदा में आनन्द लेने लगे और यह आकर्षण बढ़ता गया समय के साथ आजतक।

समय के साथ राज्य बंटते गये, छोटे होते गये, अनगिनत रानियाँ, जायज़ एवं नाजायज बच्चे, राज धर्म के रास्ते से हट अशिक्षित पंडितों के बताये अवैज्ञानिक शास्त्रों एवं कर्मकांडों को बढ़ावा, घड़ी लग्न के पचड़े में पड़ ये सभी राजा नपुंसक एवं स्वार्थी एवं देशद्रोही बनते गये। बहुत जयचन्द, शक्ति सिंह बन गये, मिल कर युद्ध न कर आततायियों से मिल गये, अपनी बेटी बहनों को उनको दे राज दरबार में बड़े बड़े ओहदे लेने में लगे रहे और विधर्मी बादशाहों के मंदिरों, मूर्तियों को तोड़ने में सह देते गये।
आज भी स्वतंत्रता के बाद देश में हज़ारों राजनीतिक दल बन गये हैं। इनमें एक दो को छोड़ सभी पर किसी न किसी परिवार का मालिकाना है। कैसे बचेगा यह प्रजातंत्र जहां ५०० रूपये पर वोट बिकते हैं,जब शिक्षक, डाक्टर केवल पैसे कमाने की सोच में अपने धर्म एवं कर्म को छोड़ कुछ भी करने को तैयार हैं। कहीं कोई असहायों, वृद्धों के प्रति दया भाव नहीं दिखता, न सहायता में लोग आगे आते हैं। परिवार तो टूट ही गया पूरी तरह से। हम मनुष्य का रास्ता छोड़ पशु, पक्षियों के रास्ते पर बढ़ते जाते हैं। बन, जंगल, पेड़, पौधों को नष्ट धन इकट्ठा करने में लग गये। पशुओं की सैकड़ों प्रजातियाँ को अपनी लिप्सा का शिकार बनाते गये और और उसका दंड पूरे देश को मिल रहा प्राकृतिक विपदाओं के रूप में।


कौन कब नई पीढ़ी के लिये कोई राम पैदा करेगा यह देश असुरों की बढ़ती संख्या का विनाश के लिये इस पवित्र धरती पर सत्य पर आधारित प्रजातंत्र को स्थापित करने के लिये। कब कोई शंकराचार्य आयेंगे फिर से ऋषियों के प्रतिपादित वेदान्त को जन जन तक फैलाने के लिये और लोगों को अविद्या एवं विद्या एक साथ अध्ययन करने किये। समाज के सभी वर्गों के विभेद को नष्ट कर ब्राह्मण ज्ञान दे एकत्व का पाठ पढ़ाने के लिये और सत् आचरण की ज़रूरत और उसमें श्रद्धा जगाने के लिये हिन्दू वर्ग में फैले ग़लत मूल्यों का विनाश करने के लिये। बतायें कोई आशा है? क्या दीपावली के दिये राष्ट्र को प्रकाश में ला सकते हैं आज की बढ़ती राजनीतिक कुप्रभावों से?
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥४.७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४.८॥

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Akbar- The Great and his Greatness?

Akbar- The Great and his Greatness?
Yesterday I was reading the introduction of a book the English translation of an Indian scholar – Madhusudan Sarswati’s commentary of ‘The Bhagavad-Gita with the Annotation ‘Gudhartha Dipika’. It was translated by well-known Swami Gambhirananda. I found an interesting story about Madhusudan Saraswati related to his meeting Akbar, the Great: Prof J. N. Farquhar recorded this historically important event at Benares in Akbar Era in an article, ‘The Organizations of the Sannayasins of Vedanta’ in the Journal of the Bombay Branch of the Royal Asiatic Society, July 1925 (pages 479-86):
One of the notorious practices of Muslim priests, as good Muslims, was to frequently attack and kill the Hindus lay and monastic, especially at pilgrim centres such as Benares. Those priests were protected by a faulty law that exempted them from any legal punishment! So the hapless Hindus approached Madhusudan to do something to stop this injustice. Since Madhusudan was well known at the durbar of Emperor Akbar (who ruled between 1556-1605), he met the Emperor though Raja Birbal and narrated to him the religious atrocities at Benares. As a solution, the Emperor suggested that Madhusudan should organise a militant band of sannyasins to defend Hinduism and its followers. At the same time, he promulgated a law that henceforth protected the Hindu sannyasins too, like the Muslim priests, who were outside the purview of legal action. Thus was born at the hands of Madhusudan, the much respected, and feared Naga sect of Vedantic sannayasins. The recruits were mostly from the Kshatriya caste. They lived in monasteries called Akhadas, and were trained in the martial arts.

Now, with that sort of highly discriminatory law, would not have Akbar, called ‘The Great’ would have banned the law rather than giving the same ease for a religious group of Hindus created on his suggestion to be at war with the people of the other major religion freedom for religious killings and tortures instead of taking legal path. Can an Emperor who suggest such criminal acts be called ‘Great’ even by mistake? Will some friends interested in history let me enrich my knowledge why did our historian call him Great to make equal in rank with Ashoka?
अकबर- महान और उसकी महानता
कल मैं अकबर काल के एक भारतीय विद्वान मधुसूदन सरस्वती द्वारा किये भगवद् गीता के भाष्य ‘गूढ़ार्थ दीपिका’ के अंग्रेज़ी अनुवाद में दी गई विस्तृत भूमिका पढ़ रहा था। यह अंग्रेज़ी अनुवाद भी प्रसिद्ध स्वामी गंभीरानन्द द्वारा किया गया है। ये विवेकानन्द परम्परा के हैं। इन्होंने ही आदि शंकराचार्य के ८वीं शताब्दी में किये सबसे पहले भगवद् गीता के संस्कृत भाष्य का भी बहुत ही सुन्दर अंग्रेज़ी में भी अनुवाद किया है। मधुसूदन सरस्वती के भाष्य को शंकराचार्य के बाद का सबसे अच्छा भाष्य माना जाना जाता है।
मधुसूदन सरस्वती का काल १५९०- १६९७ ई. माना जाता है। भूमिका में एक ऐतिहासिक लेख से लिया अंश भी है। इसमें मुझे मधुसूदन सरस्वती के बारे में उनकी अकबर, महान से मुलाकात से संबंधित एक दिलचस्प कहानी मिली: प्रोफेसर जेएन फ़रक्वार ने इस ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण घटना को अकबर काल के बनारस में होते हिन्दू विद्वानों एवं भक्तों की धार्मिक स्थानों में मुसलमानों के धार्मिक तथाकथित मुल्लाओं के सह पर किये अत्याचार का वाक़यों के बारे में अपने एक लेख में बताया गया है। उनका यह लेख,’जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी’ के जुलाई १९२५ अंक के पृष्ठ ४७९-८६ पेज पर है।
‘अच्छे मुसलमानों के रूप में मुस्लिम पुजारियों की कुख्यात प्रथाओं में से एक था, हिंदु पुजारियों एवं मठवासियों पर हमला करना और उन्हें मार डालना, विशेष रूप से बनारस जैसे तीर्थस्थलों में । उन मुस्लिम मुल्लाओं को एक दोषपूर्ण कानून द्वारा संरक्षित किया गया था जो उन्हें किसी भी कानूनी सजा से छूट देता था! असहाय हिंदुओं ने इस अन्याय को रोकने के लिए कुछ करने के लिए मधुसूदन से संपर्क किया, चूंकि मधुसूदन का सम्राट अकबर (जिन्होंने 1556-1605 के बीच शासन किया था) के दरबार में आना जाना था, वे राजा बीरबल के माध्यम से सम्राट से मिले और उन्हें बनारस में धार्मिक अत्याचारों के बारे में बताया। एक समाधान के रूप में, सम्राट ने सुझाव दिया और अमल किया वह आश्चर्यचकित किया मुझे। अकबर ने मधुसूदन सरस्वती को हिंदू धर्म और उसके अनुयायियों की रक्षा के लिए अपने संन्यासियों के एक हथियार बन्द दल गठित करने को कहा। साथ ही, उन्होंने एक कानून की व्यवस्था की जो आगे इस हिंदू संन्यासियों को भी वैसी ही रक्षा प्रदान करता था, जैसा क़ानून मुस्लिम पुजारी को कानूनी कार्रवाई के दायरे से बाहर रखता था अपराध के बाद। इस प्रकार मधुसूदन के हाथों संगठित हुआ वेदांती संन्यासियों में हथियारबन्द नागा संप्रदाय। इस उस समय ज्यादातर क्षत्रिय जाति के लोग इसमें लिये गये थे। वे अखाड़ा नामक मठों में रहते थे, और उन्हें मार्शल आर्ट में प्रशिक्षित किया गया था।
अब, उस तरह के अत्यधिक भेदभावपूर्ण कानून के साथ, अकबर, जिसे ‘द ग्रेट’ कहा जाता है, एक वर्ग के लोगों के साथ दूसरे वर्ग द्वारा हिंसक बर्ताव को बन्द करने के लिये पुराने क़ानून को बदल नहीं सके किस कारण, बल्कि हिन्दुओं को बदला लेने के लिये हिंसा कर मुक्त रहने का रास्ता खोल दिया और दोनों धर्म के लोगों में बैर भाव को आग देने का क़ानून बना दिया। कैसे महान करानेवाला सम्राट ऐसा कर सकता है। पर हमारे वामपंथी इतिहासकार अकबर ही नहीं अन्य मुग़लों की धार्मिक क्रूरता की कभी निन्दा नहीं किये। क्या इस तरह के आपराधिक कृत्यों का सुझाव देने वाले सम्राट को गलती से भी ‘महान’ कहा जा सकता है? क्या इतिहास में रुचि रखने वाले कुछ मित्र मुझे अपने ज्ञान को समृद्ध करने में मदद देंगे, हमारे इतिहासकार ने उन्हें अशोक के साथ बराबरी करने के लिए महान क्यों कहा? वैसे सर यदुनाथ सरकार ने नागा साधुओं के प्रारम्भ के बारे में इन्हीं बातों का उल्लेख किया है।
The article of Prof. J. N. Farquhar ‘ The Organizations of the Sannayasins of Vedanta in the Journal of the Bombay Branch of the Royal Asiatic Society, July 1925 (pages 479-86).

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महाभारत के बाहर की दो महत्वपूर्ण

महाभारत के बाहर की दो महत्वपूर्ण गीता
पिछले तीन-चार महीनों में मैंने ‘अष्टावक्र गीता’ एवं ‘अवधूत गीता’ पढ़ी।दोनों अद्वैत दर्शन के महत्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते हैं। अष्टावक्र गीता में २० अध्याय हैं, पहले १८ अध्यायों में अष्टावक्र का उपदेश या विचार है वेदान्त पर, और अध्याय १९ और २० में राजा जनक का, जो स्वयं ब्रह्मज्ञानी हैं, वेदान्त के अनुसार ब्रह्म ज्ञानी के चरम अवस्था का वर्णन है, जो पूर्ण ब्रह्म ज्ञान का आख़िरी लक्ष्य या ध्येय हो सकता है। अध्यायों के नाम हैं- साक्षी, आश्चर्यम्, आत्माद्वैत, सर्वमात्म, लय, प्रकृतेः परः, शान्त, मोक्ष,निर्वाण,वैराग्य, चिद्रूप, स्वभाव, यथासुखम्, ईश्वर, तत्त्वम्, स्वास्थ्य, कैवल्य, जीवन्मुक्ति,स्वमहिमा,अकिंचनभाव हैं ।
राजा जनक के ज्ञान के बारे में उपनिषदों में बहुत चर्चा है, भगवद्गीता में भी उन्हें श्रेष्ठों में उदाहरण कहा गया । हमारे ऋषियों ने उनके ज्ञानी होने और ज्ञान को समझने एवं ज्ञानियों को संरक्षण करनेवाला माना और इतना ऊँचा दर्जा दिया। अत: एक सांसारिक गृहस्थ के लिये भी राजा जनक आदर्श बन सकते है। अपने ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए भी व्यक्ति ब्रह्म ज्ञानी बन सकता है।


१. अष्टावक्र गीता
गीता में श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है वैसे ही अष्टावक्र गीता में राजा जनक और बालऋषि अष्टावक्र की। भगवद्गीता गीता में कर्म, ज्ञान और भक्ति- तीनों मार्ग का विवरण है जबकि अष्टावक्र गीता में केवल ज्ञान योग का ही विवेचन हुआ है।
अष्टावक्र के नाना ऋषि उद्दालक का छान्दोग्य उपनिषद् में एक ब्रह्मज्ञानी के रूप में उल्लेख किया गया है। वेदांत के सबसे महत्त्वपूर्ण महावाक्य तत्त्वमसि का उपदेश इनके नाना उद्दालक के द्वारा इनके मामा श्वेतकेतु को दिया गया है जो अष्टावक्र के समवयस्क हैं, अतः अष्टावक्र उपनिषद् कालीन ऋषि हैं।
अष्टावक्र गीता’ के बारे में, टिपण्णी करनेवालों में से एक लिखते हैं, ‘उपनिषद निरपेक्ष की पूर्णता को स्पष्ट रूप से संप्रेषित करने के लिए हकलाते हैं,ब्रह्मसूत्र अपने आप में समाप्त हो जाते हैं और भगवद गीता एक क्षम्य शर्म के साथ झिझकती है, अष्टावक्र गीता शब्दों के माध्यम से संवाद करने में अपनी भव्य सफलता और स्पष्टता के लिए प्रशंसा की पात्र है।’ शायद प्रस्थान त्रय (ब्रह्मसूत्र,उपनिषद्,गीता) की तुलना में सर्वोच्च वास्तविकता(स्वयं आत्मा)की पूर्णता अष्टावक्र गीता में अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई है। (स्वामी सर्वप्रियानन्द का एक अष्टावक्र गीता पर प्रवचन, https://youtu.be/d6eKWLM0mHE)

क्या है अष्टावक्र गीता में?
पहले अध्याय के पहले श्लोक में राजा जनक अष्टावक्र से पूछते हैं-
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति ।
वैराग्यं च कथं प्राप्तं एतद् ब्रूहि मम प्रभो ॥१.१॥
Teach me this, O Lord! how can Knowledge be acquired? How can liberation come? How is renunciation achieved?
हे स्वामी! ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है? मुक्ति कैसे मिल सकती है? संन्यास कैसे प्राप्त होता है?
फिर जनक ही इसी अध्याय के ११वें श्लोक में वह कुछ कहते हैं जो एक शिष्य द्वारा साधारणत: पूछे जानेवाले सवालों से कुछ अलग और विस्मित करनेवाला है-
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि ।
किंवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥१.११॥
He who considers himself free becomes free indeed and he who considers himself bound remains bound. ‘As one thinks, so one becomes’, is a proverbial saying in this world and it is indeed quite true.
जो स्वयं को मुक्त समझता है वह वास्तव में मुक्त हो जाता है और जो स्वयं को बंधा हुआ समझता है वह बंधा रहता है। ‘जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है’ (या मति: सा गति) यह एक प्रचलित कहावत है और यह वास्तव में एक सत्य है जो उपनिषद् भी कहते हैं।
हाँ, अध्याय १९ के तीन या चार एवं २० का एक श्लोक में दिये राजा जनक के अनुभव की गहराई को समझने के लिये मैं नीचे उन्हें उद्धृत कर रहा हूँ-
क्व स्वप्न: क्व सुषुप्तिर्वा क्व जागरणं तथा।
क्व तुरीयम् भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य में॥१९.५॥
Where are dreams? Where is deep sleep? Where is wakefulness? And also where is the fourth state of Consciousness? Where is even fear for me, who abide in my own grandeur?
श्वपनावस्था(सपने दिखनेवाली नींद)कहाँ हैं? सुसुप्तावस्था(गहरी नींद)कहाँ है? जाग्रत अवस्था कहाँ है? और फिर चैतन्य की चौथी अवस्था, तुरीयम् कहाँ है? मेरे लिए भय भी कहाँ है, जो मेरी ही ऐश्वर्य में रहता है?
क्व मृत्युजीर्वितं क्व लोका: क्वास्य लौकिकम्।
क्व लय: क्व समाधिर्वा स्वमहिम्नि स्थितस्यमे॥१९.७॥
Where is life or where is death? Where are the worlds or where are the worldly relations? Where is dissolution of Consciousness? Where is samadhi for me, who in my own grandeur abide?
जीवन कहाँ है या मृत्यु कहाँ है? संसार कहाँ हैं या सांसारिक सम्बन्ध कहाँ हैं? चेतना का विघटन कहाँ है? मेरे लिए समाधि कहाँ है, जो मेरी ही भव्यता में निवास करती है?
अलं त्रिवर्गकथया योगस्य कथयाप्यलम्।
अलं विज्ञानकथया विश्रान्तस्य ममात्मनि।।19.8।।
For me, who repose in the Self, talks about the three goals of life (dharma, artha, kama) are useless, and even talks about direct knowledge are needless.
मेरे लिए, जो स्वयं में विश्राम करता है, जीवन के तीन लक्ष्यों (धर्म, अर्थ, काम) के बारे में बात करना बेकार है, और यहां तक ​​कि प्रत्यक्ष ज्ञान की बात करना भी बेकार है।
और
क्व चास्ति क्व च वा नास्ति क्वास्ति चैकं क्व च द्वयम्।
बहुनात्र किमुक्तेन किञ्चिन्नोत्तिष्ठते मम।।20.14।।
Where is existence or where is ‘non-existence’?Where is the one(unity) and where is duality?What need is there to say more? Nothing indeed emanates from me.
अस्तित्व कहाँ है या ‘अस्तित्व’ कहाँ है? एक (एकता) कहाँ है और द्वैत कहाँ है? अधिक कहने की क्या आवश्यकता है? वास्तव में मुझसे कुछ भी नहीं निकलता है।

अष्टावक्र गीता के २० अध्यायों की विषय सामग्री अद्वैत वेदांत की व्याख्या है। स्वामी नित्यस्वरुपानंद ने अपने 1940 के अपने अंग्रेजी अनुवाद के परिचय में इसके बारे में एक किस्सा लिखा था, जिसके अनुसार रामकृष्ण ने उन्हें नरेंद्रनाथ दत्त (विवेकानन्द का असली नाम)में वेदांत के प्रति उत्सुकता जगाने के लिए अष्टावक्र गीता का बंगाली में अनुवाद करने के लिए कहा था। अब अष्टावक्र गीता पर स्थानीय भाषाओं और अंग्रेजी में भी बहुत अनुवाद और व्याख्यायें उपलब्ध हैं।
मेरे द्वारा पढ़ी पुस्तक स्वामी चिन्मयानन्द की लिखी अंग्रेज़ी में चिन्मय मिशन द्वारा प्रकाशित है। अष्टावक्र गीता, जिसे अष्टावक्र संहिता के रूप में भी जाना जाता है, भगवद गीता के बाद रचित, जनक और अष्टावक्र के बीच एक संवाद है, जो बीस अध्यायों की अष्टावक्र गीता के पहले १८ अध्यायों में चलती है। इसमें पहले अठारह अध्यायों में शिष्य राजा जनक और गुरू अष्टावक्र हैं। अष्टावक्र १८वें अध्याय में अपने पहले १७ अध्यायों में बताये विचारों का निष्कर्ष रखते है। फिर जनक ही शिक्षक के रूप में दिखते हैं। राजा जनक ब्रह्म ज्ञानी हैं। इस गीता के १९वे एवं २० वे अध्याय में जनक अपने विदेह एव अपनी आत्मा के ब्रह्मरूप के अन्तिम अनुभव बता इस गीता की समाप्ति करते हैं।
https://openthemagazine.com/voices/janakas-questions/

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तुलसीदास का रामचरितमानस एवं उपनिषद्, भगवद्गीता


कुछ दिनों से मैंने, अपना एक साहित्यिक दुख, जो अपनी मातृ भाषा हिन्दी या आंचलिक भाषाओं के बारे में है, बहुत हिन्दी के पंडितों, मित्रों से साझा किया है।क्यों हमारे हिन्दू धर्म के मूल ग्रंथों- उपनिषदों, भगवद्गीता या अष्टावक्र गीता आदि का सरल हिन्दी में अनुवाद नहीं हुआ? और आज हिन्दी का शायद पतन काल आ गया है और उम्मीद नहीं है कि हिन्दी इससे उबरे। आज यहाँ अगर और ग्रंथों को छोड़ दिया तब ही यह पीड़ादायक लगता है कि जब रामचरितमानस का सरल अंग्रेज़ी में बहुत ही अच्छा अनुवाद हुआ पिछले कुछ साल में ही, पर सरल हिन्दी में नहीं। ये अनुवाद हैं, पहला इंफ़ोसिस के संस्थापक प्रसिद्ध उद्योगपति श्री नारायनमूर्ति के पुत्र रोहन मूर्ति के ‘मूर्ति क्लासिकल लाइब्रेरी फ़ाउन्डेशन’ के प्रयत्न से अमरीकन हिन्दी विद्वान फ़िलिप लूटेनजेनडौफ ( Philip Lutgendorf)द्वारा The Epic of Ram हार्वरड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा, जिसका शायद चा खंडों में अयोध्याकांड तक किया जा चुका है। दूसरा अनुवाद का प्रकाशन पेनग्यून क्लासिक के अंतर्गत रोहिणी चौधुरी द्वारा ‘तुलसीदास रामचरितमानस’ नाम से तीन खंडों में किया गया है।दोनों अच्छे लगे।पर रोहिणी चौधरी ने मूल को साथ साथ नहीं दिया है, जब पहले में मूल भी है, अत: हिन्दी जानने वालों को शायद अच्छा लगेगा।


यह तो अच्छा है कि गीता प्रेस के चलते पहले केवल मूल, फिर भावार्थ सहित,और फिर विशद व्याख्या करते हुए रामचरितमानस पर अलग अलग सस्ते इतनी रामचरितमानस का प्रकाशन हुआ कि यह अब सबके लिये सरल और शायद सब हिन्दू परिवारों में एक या अधिक उपलब्ध है। एक बहुत महत्वपूर्ण प्रकाशन है बहुत भारी भरकम ‘मानस-पीयूष’ सात खंडों में है।


क्या सरल हिन्दी में एक अनुवाद नहीं किया जा सकता था केवल मूल रामचरितमानस के दोहे छन्द, सोरठा, चौपाइयों का या मंगलाचरण का। वैसे भगवद्गीता का अनुवाद प्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन ने ‘नागर गीता’ के नाम से किया था, मैंने ख़रीदा भी पर वह बहुत ही क्लिष्ट था, मैं नहीं समझ सका। भगवद्गीता का तो अंग्रेज़ी में हज़ार के आसपास एवं अन्य क़रीब क़रीब सब विदेशी भाषाओं में बहुत बढ़िया सरल अनुवाद हुआ है उस भाषा के जानकारों के लिये। एक भारतीय दक्षिण भारतीय एकनाथ एश्वरन् ने, जो अमरीका में जा अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर हो गये थे,उपनिषदों एवं भगवद्गीता गीता का बहुत ही सरल सहज अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। हमारे यहाँ के हिन्दी के प्रोफ़ेसर लेखकों, कवियों ने इसकी ओर ध्यान क्यों नहीं दिया। एक मृदुल कीर्ति जी की उपनिषदों का अनुवाद देखा हूँ, पर कुछ समझ नहीं आता।


तुलसीदास पर मेरी श्रद्धा है,वे हिन्दी जगत में सबसे लोकप्रिय हैं। हिन्दी को इनकी तरह का रामचरितमानस को महाकाव्य की तरह लिखनेवाला शायद ही कोई भक्त ज्ञानी मिला या मिलेगा।यह मेरा विचार है। तुलसीदास के रामचरितमानस से परिचय पहली बार अपने शिक्षक और साहित्य-प्रेमी दादा जी द्वारा हुआ अपने बचपन में ही। फिर उस समय के मेरे घर में रहनेवाले हमारे प्राइमरी स्कूल के शिक्षक पाण्डे जी ने उसे कविताओं की अंत्याक्षरी के खेल से बढ़ाया पढ़ने के लिये कलकत्ता आने के पहले तक, यद्यपि दादाजी के साथ तो बहुत सालों रहा और इस पर चर्चा भी चलती रही। उन्हें रामचरितमानस का मासापरायण नवरात्र में करते देख बहुत अच्छा लगता था। हिन्दुस्तान मोटर्स में सालों तक मैंने भी मासापरायण और बहुत बार नवरात्र में नवापरायण की। फिर बाद में केवल प्रतिदिन सुन्दरकांड पर सीमित हो गया और देश विदेश सब जगह चलता रहा। वही आज तक चलता आ रहा है। अब स्नान के बाद और दोपहर के खाने के पहले सुन्दर कांड का पाठ करता हूँ। इसके अलावा गीता, उपनिषद् के साथ रामचरितमानस के चुने हुए तीन चार अंशों का सबेरे उठकर ही नित्य सबेरे पाठ करता हूँ। कोविद-१९ काल में घूमते हुए नित्य एक से ज़्यादा बार भी यह क्रम चलता रहता है केवल उनका जो मेरी याददाश्त में आ गया है।

तुलसीदास हिन्दू धर्म के महान ग्रंथों के सर्जक ऋषिओं के परम्परा के शायद आख़िरी व्यक्ति हैं। यह क़रीब क़रीब निश्चित हो चुका है कि उपनिषदों के ज्ञान का अगला सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ लोकमान्य महाभारत में समाविष्ट भगवत् गीता है भगवान वेद व्यास का। उसके बाद अगर कोई ग्रंथ इतना लोकप्रिय हुआ तो वह रामचरितमानस मानस ही हुआ। और शायद भगवद्गीता की तरह केवल रामायण ही हाथ में रख सत्यता की शपथ को मान्यता है हिन्दुओं के लिये कचहरियों में।

इन तीनों कृतियों के समय काल में बहुत बड़े समय की खाड़ी रहीं हैं। अत: इन तीनों ग्रंथों में विषय अपने समय के समाज और उसकी सामाजिक समस्याओं की आवश्यकताओं को देखते हुए उसी तरह उठाया गया है। समय के साथ समाज बदला और लोगों के आचरण भी बदले। समाज एवं देश के बदलते समाजिक बदलाव को ऋषियों ने अपने अनुभवों से समाज को सही दिशा देने के लिये प्रयत्नों को अपनी रचनाओं में समाविष्ट किया।


मुख्य दस उपनिषदों का समय काल अनुमानतः १०००-५०० बी.सी ,महाभारत एवं भगवद्गीता को शायद तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व और तीसरी शताब्दी सीई के बीच संकलित किया गया माना जाता है,जबकि भक्त तुलसीदास का रामचरितमानस सदियों बाद क़रीब अकबर एवं जहांगीर के समय १७वीं सदी में रचा गया। रामचरितमानस के अनुसार ही तुलसीदास उसके प्रारंभ करने का दिन था विक्रम संवत् १६३१ के चैत्र मास की रामनवमी जो राम का जन्मदिन माना जाता था। यह १५७४ ईस्वी है। बहुत हद तक तुलसीदास ने अपने समय के सामाजिक मान्यताओं की चुनौतियों को ललकार और अपना रास्ता निकाला और दिखाया।
देश की आज़ादी के पहले के दिनों में उपनिषदों, भगवद्गीता एवं रामचरितमानस की महत्ता को समझा जाने लगा। स्वतंत्रता के बाद भी इन ग्रंथों को हर व्यक्ति के जीवन की समस्याओं को सुलझाने में सहायक बनाने की बात कही गई विशेषकर महात्मा गांधी द्वारा जिन्हें देश ने राष्ट्रपिता बनाया।यह तब तक चला, जब तक देश में दूरदर्शन का प्रचार प्रसार आज की तरह नहीं हुआ।गाँवों,शहरों में रामायण गान एवं इस पर प्रवचन चलते रहे।दुनिया में जहां जहां
तुलसीदास ने अपने कृति द्वारा एक अनोखा क्रान्तिकारी बदलाव लाया।संस्कृत के पंडित होते हुए संस्कृत में न लिख अपनी क्षेत्रीय भाषा अवधी में अपने मशहूर रामचरितमानस की रचना की। संस्कृत का भी मंगलाचरण आदि में ही उपयोग किया, शायद अपने विरोधी संस्कृत विद्वानों को यह बताने के लिये कि उनका संस्कृत ज्ञान भी उतना ही प्रगाढ़ था जिसमें वे रचना कर सकते थे उतनी ही सरलता से, पर फिर उससे जन जन में ज्ञान का प्रकाश नहीं पहुँच पाता।


तुलसीदास क़रीब क़रीब अनाथ थे। माँ मर गई जन्म देने के थोड़े दिनों बाद, पर पिताजी ने भी समाज के भविष्य बतानेवालों के लड़के को माता-पिता के मरण योग के साथ पैदा होनेवाला बताने के कारण त्याग दिया। पर दैविक कृपा से कुछ अच्छे ज्ञानी पंडितों की दृष्टि उन पर पड़ी, और उनको वे असाधारण लगे। वे उनको संस्कृत एवं प्राचीन शास्त्रों की शिक्षा दिये और तुलसीदास ने असाधारण गुरू भक्ति और बुद्धि के कारण सभी ग्रंथों को पूर्ण तरह से आत्मसात् किया।उनके पहले तक सभी ब्राह्मण विद्वानों ने अपने ग्रंथों को संस्कृत में ही लिखा था। और वे ग्रंथ केवल तत्कालीन समाज के एक नगण्य लोगों तक ही जा पाता था, क्योंकि सबकी समझ के बाहर था संस्कृत शिक्षा। पर तुलसीदास ने जब अपनी राम कथा रामचरितमानस को लिखने का निर्णय लिया तो उसे क्षेत्रीय भाषा अवधी में लिखा जन जन तक पहुँचाने के लिये और समय ने यह सिद्ध किया वे बहुत दूरदर्शी थे।


एक बहुत ही लोकप्रिय संस्कृत श्लोक हैं भगवान की महत्ता बताते हुए-
मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्॥
तुलसीदास ने उसका अवधी अनुवाद किया और अपने बालकांड में निम्न रूप में रखा है-
मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥

तुलसीदास ने रामचरितमानस में उपनिषदों एवं भगवद्गीता के संस्कृत के श्लोकों का विचार अपनी अवधी में इतनी सरलता से रखा है कि वह सबकी समझ में आ जाता है बहुत गूढ़ विषय होते हुए भी। मैं थोड़े उदाहरण लोगों तक पहुँचाने की चेष्टा करना चाहता हूँ शायद सबको अच्छा लगे।


ईशोपनिषद के पहले श्लोक की प्रसिद्ध प्रथम पंक्ति,’ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌’
बालकांड के प्रारम्भ के दोहे ७-ग में ही इस तरह कहा है तुलसीदास ने-‘जड़ चेतन जंग जीव जंतु सकल राममय जानि।’ फिर ‘सीय राममय सब जग जानी।करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।’ अयोद्ध्या कांड के १२७ दोहा बाल्मिकी का उत्तर:
‘पूछेहु मोहि कि रहौं कहं मैं पूंछत सकुचाउं। जहं न होहु तहं देहि कही तुम्हहि देखावौं ठाउं॥’ फिर नवधा भक्ति बताये हुए, ‘सातंव सम मय जग देखा।…’ अर्थात् ‘मेरे सातवें प्रकार के भक्त मुझे व्यापित पूरे जग को देखते हैं।’


ईशोपनिषद् में सोलहवें श्लोक में अंतिम पंक्ति है- ‘योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ॥’ तुलसीदास रामचरितमानस ने इसको उत्तरकांड में दोहा ११७ घ के बाद की पहली चौपाई में व्यवहार किया है इस तरह-
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥
फिर कठोपनिषद् के श्लोक —
यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृद्स्येह ग्रंथय: अथ मर्त्यों ऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम्।॥२.३.१५॥
जब हृदय की सभी ग्रंथियाँ पूरी तरह खुल जातीं है, मनुष्य उस ब्रह्म को पा लेता है।-का विषय रामचरितमानस में इस तरह आया है।
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई॥
छोरत ग्रंथ जानि खगराया। बिघ्न नेक करइ तब माया॥
राम ब्रह्म है और तुलसीदास ने राम के लिये भी उपनिषद् की ‘नेति नेति’ कहा रामचरितमानस में एक से ज़्यादा जगहों पर और


फिर कैसे मिलते हैं ब्रह्म? मुंडकोपनिषद के ३.२.३ श्लोक के दूसरी पंक्ति में कहा है,
‘यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌’॥ यह ब्रह्म जब किसी साधक पर अनुग्रह करता है तब ही वह अपने स्वरूप को दिखाता है।
और बाल्मिकी श्री राम की प्रार्थना में कहते हैं,
“सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥’
-वही आपको जानता है, जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं।

मंगलाचरण में ही अपने इष्टदेव राम के बारे में लिखे श्लोक में एक उपनिषद् और अद्वैत विचारधारा में काफ़ी बार व्यवहृत हए। वह श्लोक ५ की पहली दो पंक्ति और उसका हिन्दी अर्थ इस तरह है-
यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति ‘सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः’।
जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से ‘रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति’ यह सारा दृश्य जगत्‌ सत्य ही प्रतीत होता है…..
इसे बालकांड के ही दोहा सं.१११ के बाद की चौपाई में व्यवहार किया इस तरह-
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥
जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है।


इसी तरह उपनिषदों द्वारा परम ब्रह्म के लिये व्यवहृत शब्द ‘सदचिदानन्द-(सत्-चित्-आनन्द) के राम के लिये तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में बार बार किया है।
तुलसीदास के राम सगुन हैं पर तुलसी दास ने सगुन और निर्गुण में कोई अन्तर माना और समझाते हुए बार बार कहा है। उदाहरण के तौर पर बालकांड के ही दोहा ११५ के बाद की चौपाइयों में-
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥
-सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है॥1॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
-निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।)
इसी क्रम फिर एक बार सच्चिदानन्द का भी व्यवहार यहीं आगे की चौपाई में किया है- ‘राम सच्चिदानंद दिनेसा।…और आगे फिर-‘राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना।…’


तुलसीदास के ‘सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा’ निर्णय को भी ईशोपनिषद् के ऋषि ने अपने श्लोक १४ में इस तरह कहा था-
सम्भूतिञ्च विनाशञ्च यस्तद्वेदोभयं सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते ॥१४॥
वैसे इस श्लोक में असम्भूति को अगुन है एवं विनाशम् से सगुन का मतलब है। और दोनों को एक साथ पूर्ण रूप से जानने की हिदायत है पूर्ण ज्ञानी व्यक्ति को। और फिर उसकी मृत्यु को पार कर लेने एवं अमरता (अमृत) को पा लेने की इच्छाओं में क्या अन्तर है?

पर मुझे सबसे बड़ा आश्चर्य तब हुआ जब अरण्य कांड में अत्रि ने सोरठा में गाये श्लोक ९ में राम की प्रार्थना में ‘तुरीयमेव’ शब्द का व्यवहार किया जो निम्न तरह से है-
तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। ‘तुरीयमेव’केवलं॥9॥ उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं।
यह उपनिषदों में सबसे छोटे (कुल केवल १२ श्लोक) मांडूक्योपनिषद्,जिसे जगद्गुरु शंकराचार्य ने सबसे महत्वपूर्ण उपनिषद् माना और जिसका शंकराचार्य के गुरू के गुरू गौडपाद ने २१५ श्लोकों की कारिका लिखी और ७वें श्लोक में कहे चौथी अवस्था का नाम तुरियम् दिया।
ईशोपनिषद के पहले श्लोक की प्रसिद्ध प्रथम पंक्ति,’ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌’
बालकांड के प्रारम्भ के दोहे ७-ग में ही इस तरह कहा है तुलसीदास ने-‘जड़ चेतन जंग जीव जंतु सकल राममय जानि।’ फिर ‘सीय राममय सब जग जानी।करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।’ अयोद्ध्या कांड के १२७ दोहा बाल्मिकी का उत्तर:
‘पूछेहु मोहि कि रहौं कहं मैं पूंछत सकुचाउं। जहं न होहु तहं देहि कही तुम्हहि देखावौं ठाउं॥’ फिर नवधा भक्ति बताये हुए, ‘सातंव सम मय जग देखा।…’ अर्थात् ‘मेरे सातवें प्रकार के भक्त मुझे व्यापित पूरे जग को देखते हैं।’
ईशोपनिषद् में सोलहवें श्लोक में अंतिम पंक्ति है- ‘योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ॥’ तुलसीदास रामचरितमानस ने इसको उत्तरकांड में दोहा ११७ घ के बाद की पहली चौपाई में व्यवहार किया है इस तरह-
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥
फिर कठोपनिषद् के श्लोक —
यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृद्स्येह ग्रंथय: अथ मर्त्यों ऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम्।॥२.३.१५॥
जब हृदय की सभी ग्रंथियाँ पूरी तरह खुल जातीं है, मनुष्य उस ब्रह्म को पा लेता है-का विषय रामचरितमानस में इस तरह आया है।
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई॥
छोरत ग्रंथ जानि खगराया। बिघ्न नेक करइ तब माया॥
राम ब्रह्म है और तुलसीदास ने राम के लिये भी उपनिषद् की ‘नेति नेति’ कहा रामचरितमानस में एक से ज़्यादा जगहों पर। और फिर कैसे मिलते हैं ब्रह्म? मुंडकोपनिषद के ३.२.३ श्लोक के दूसरी पंक्ति में कहा है,
‘यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌’॥ यह ब्रह्म जब किसी साधक पर अनुग्रह करता है तब ही वह अपने स्वरूप को दिखाता है।
और बाल्मिकी श्री राम की प्रार्थना में कहते हैं,
“सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥’
-वही आपको जानता है, जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं।

अब भगवद्गीता के रामचरितमानस पर प्रभाव की बात देखी जाये।
सबसे पहले दो लोकप्रिय श्लोक गीता के जो नीचे हैं-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥8॥
जिसको रामचरितमानस में निम्न तरीक़े से कहा गया है-
“जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु।।”
जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते है । और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं।वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने (श्वास रूप) वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। श्री रामचन्द्रजी के अवतार का यह कारण है॥


अगर कोई पाठक शिव पत्नी सती द्वारा सीता के विरह में दुखित वनवासी राम की परीक्षा लेनेवाले प्रसंग को पढ़ता है, तब एक बार भगवद्गीता के कृष्ण के विश्वरूप वाले अध्याय ११ की याद आ जाती है। आप भी पढ़िये- राम के उस स्वरूप के वर्णन की एक झलक:
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥
दो- सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥


तुलसीदास के विचारों की महत्वपूर्ण चीज है उनकी ब्रह्म के राम, कृष्ण या अन्य किसी नाम की महिमा की बखान जो सामान्य से सामान्य व्यक्ति द्वारा भी अगर पूर्ण रूप से पूरी श्रद्धा के साथ किया जाए तो ब्रह्म को पाया जा सकता है। और शायद यह उपनिषदों में वर्णित ॐ शब्द को ब्रह्म मानने से आया है। और हर व्यक्ति के लिये अपने इष्ट के नाम में लीन हो जाना आसान है और ॐ की तरह उसके सठीक उच्चारण की ज़रूरत नहीं है।


यह मेरी तुलसीदास के प्रति अपनी श्रद्धांजलि है।

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