प्राचीन भारत के उपनिषदों के ज्ञानी ऋषियों ने ज्ञान के प्रति एकनिष्ठा द्वारा और सूक्ष्मदर्शी बुद्धि से अपने उस सत्यतत्त्व गूढात्मा का दर्शन या अनुभव किया (‘दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:- केवल सूक्ष्मतत्त्वों को समझनेवाले व्यक्तियों द्वारा ही अति सूक्ष्म तीक्ष और केन्द्रित बुद्धि से देखा जाता है’ (कठोपनिषद् 1.3.12)’। और उन्होंने आत्मा को सच्चिदानन्द (सत्- चित्- आनन्द) ब्राह्मण, ब्रहम, पुरूष, परमात्मा, पुरुषोत्तम, ईश्वर, परमेश्वर आदि नाम दे वर्णन किया।
ईशोपनिषद् सबसे प्राचीनतम उपनिषदों में एक है और अपने आप में अनूठा है। दुनिया के बहुत महापुरूष इससे प्रभावित हुए और उसकी प्रशंसा किये। उसके मंत्रों का प्रभाव कुछ अन्य उपनिषदों मे, और बाद में भगवद्गीता एवं अन्य धर्म ग्रंथों में भी साफ़ दिखता है। यह कुल 18 मंत्रों (श्लोकों) उपनिषद् सबसे छोटे उपनिषदों में दूसरा है। इसके रचनाकार ऋषि ने इसके मंत्रों में दुनिया को एकत्व-दृष्टि से देखने और मोक्ष का मार्ग बताया है। और यही मार्ग दुनिया का पहला और एकमात्र सम्पूर्ण संसार के प्राणियों एवं प्राकृतिक संसाधनों को बचाये रखने के साथ ही सुख एवं शान्ति के साथ आपसी सौहार्दपूर्ण जीवन यापन का मार्ग भी है।
अब देखिये ईशोपनिषद् ने कैसे अपने मंत्र 1, 4, 6-7 से विश्व शान्ति और सौहार्द लाने का दर्शन दिया। यह प्रकृति के सभी भूतों में (प्राणियों, वस्तुओं- चल-अचल, घरेलू-जंगली छोटे बड़े जानवरों और अन्य जीव, वृक्ष, जंगल, जलाशय, सागर, नदी-नाले, पहाड़, ज़मीन आदि) एक ही आत्मा का अनुभव करने की शिक्षा देता है और जीवन में एक दूसरे का कोई नुक़सान न करते हुए जीने और आदर करने की ज़रूरत भी बताता है।
- पहला मंत्र– विश्व के कण में ईश्वर, भगवान
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥1॥
पहले मंत्र के पहली पंक्ति में ‘ईशा वास्यमिदं सर्व’ यत्किञ्च जगत्यां जगत्’ से किया। अर्थ है- ‘इस जगत मे जो कुछ भी हम चारों ओर देखते उसमे हर एक में एक ही ईश्वर (आत्मा, ब्रह्म) का वास है, या सबमें वही व्याप्त है।’ यही ‘एकमात्र नित्य और सत्य’ है। ईशोपनिषद् ने इसे ईश्वर और कठोपनिषद् के ऋषि ने श्लोक 2.3.2 में ‘आत्मा’ का व्यवहार किया है- ‘एको वशी सर्वभूत्मान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति- ‘ और एक ही बात का प्रतिपादन किया- ‘निसृतम् यदिदं किं चजगत्सर्वं– (परब्रह्म परमेश्वर से) निकला हुआ यह जो कुछ भी सम्पूर्ण जगत् हैं’।
इसी भाव को बाद में भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता के 7.7 में ‘मयि सर्वमिदं प्रोतम्– यह सम्पूर्ण जगत् मेरे में ही ओतप्रोत है’, और फिर 7.29 में ‘वासुदेव:सर्वमिति– सब कुछ परमात्मा का है’ द्वारा अर्जुन को समझाया।विष्णुपुराण (3.7.32) में तो साधक को भी भगवत्स्वरूप कहा गया- ‘सकलमिदमहं च वासुदेव:– वास्तव में दीखनेवाला संसार ही भगवत्स्वरूप नहीं है, वल्कि देखनेवाला भी भगवत्स्वरूप है।’ और यही सत्य ज्ञान है जिसे मद्भागवत में इस तरह कहा गया है- ‘सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्याऽऽत्मनीषया ।परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वतो मुक्तसंशय:॥ (11.29.18) जब ‘सब कुछ भगवान ही हैं’- ऐसा निश्चय हो जाय, तब साधक इस अध्यात्मविद्या- (ब्रह्मविद्या)- के द्वारा सब प्रकार से संशयरहित होकर सब जगह भगवान को भलीभाँति देखता हुआ, इस चिन्तन से भी ऊपर उठ साक्षात् भगवान ही दीखने लगें।’
ईशोपनिषद् के हज़ारों साल बाद फिर जनता की भाषा में संत तुलसीदास ने लिखा- ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध’ (रामचरितमानस मानस 7.112 ख)। सबमें परमात्मा को देखने से सम्पूर्ण भूतों में समानआदरभाव अपने आप आ जाता है; क्योंकि अपने आराध्य परमात्मा से विरोध सम्भव ही नहीं है।
पहले मंत्र में दो और महत्वपूर्ण उपदेश हैं सभी मनुष्य जाति के लिये महत्वपूर्ण हैं- पहली सलाह ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा– इन सभी वस्तुओं का उपभोग करो पर हरदम त्याग भावना के साथ’, और फिर दूसरी सलाह- ‘माँ गृध: कस्विद् धनम्– किसी अन्य के धन का लालच न करो।’
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस पहले श्लोक को हिन्दू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण मंत्र की संज्ञा दी और अपने जीवन को उसी के अनुसार ढाल दिया। और भी बहुत महान पुरूष हुये जो इसी विचार के साथ जीवन यापन किये। एक उनमें राजा जनक का नाम आता है। यही कर्मयोग भी है।
फिर ईशोपनिषद् के मंत्र 1 के ‘ईशा’ को मंत्र 4 में समझने के लिये कहा- ‘तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः-वही ‘इस सबके भीतर है और इस सबके बाहर भी है।’इसी बात को भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता में अनेकों श्लोकों में कहा है- ‘अहम् आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः-अर्जुन, मैं समस्त प्राणियों और पदार्थों की हृदयगुहा में निवास करने वाला आत्मा हूँ।’
2. सबमें में एकत्वता का प्रतिपादन और उसका फल
और फिर ईशोपनिषद् के ऋषि ने मंत्र 6 और 7 में फिर सभी भूतों (जीव,चल-अचल) में एक ही परमात्मा को देखने से कैसे यह संसार एकत्व भावना से आपस में जुड़ जायेगा और संसारिक द्वेष, शोक, मोह नष्ट हो जायेगा बताया।
मंत्र हैं-
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥6॥
जो मनुष्य सभी भूतों (प्राणिमात्र) को आत्मा (परमात्मा) में ही निरन्तर देखता है, और सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मा (परमात्मा) को देखता है, उसके बाद वह (कभी भी) किसी से घृणा या द्वेष नहीं करता।
मंत्र 6 के भाव को ही दूसरी तरह से कहा गया है मंत्र 7 में-
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥7॥
‘जिस स्थिति में आत्मा को भलीभाँति जाननेवालेके (अनुभव में) सभी प्राणी एकमात्र आत्मस्वरूप ही हो चुकते हैं; उस अवस्था में उस एकता का- (सभी एकमात्र परमात्मा का निरन्तर) साक्षात् करनेवाले मनुष्य के लिये कौन सा मोह, कौन सा शोक हो सकता है।’
मंत्र 16 में, जो भगवान के दर्शन के लिये प्रार्थनारूप है, आख़िरी में ऋषि कहते है- ‘योऽसावसौ पुरूष: सोऽहमस्मि– जो वह है, वह परम पुरूष (आपका ही स्वरूप है) मैं (भी) वहीहूँ।’
ईशोपनिषद् के मंत्र 1 के बाद इन दो मंत्र- 6 और 7 में धर्म, पंथ, देश, जाति, रूप रंग आदि से विभक्त हुए मनुष्य जाति और बाक़ी जीवों में ही नहीं वल्कि ‘सभी भूतों में एक ही आत्मा होने का’ सत्य बता एक अद्वितीय दर्शन का सूत्र प्रतिपादन करते हैं जिससे सभी दुनिया के सब भूतों में बराबर का श्रद्धा और आत्मीयता बनी रहे। जब हम सब समझ जायें कि हम सभी में एक ही आत्मा उपस्थित है तो दुनिया में सुख शान्ति बनी रहेगी। फिर आपसी ईर्ष्या, द्वेष, झगड़ा, हिंसा क्यों होगी। दुख और अशान्ति कहाँ से पैदा होगी और रहेगी।
प्रसिद्ध केनोपनिषद् के श्लोक 5 में ईशोपनिषद् के मंत्र 6-7 के इस भाव को प्राप्त एवं व्यवहार से साधकों को अमरत्व प्राप्त करने की बात कही गई है-‘भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति– बुद्धिमान व्यक्ति प्राणी-प्राणी में (परब्रह्म को) समझकर इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं’।अन्य उपनिषदों ने भी इसकी पुष्टि की।
इन मंत्रों के एक ही ‘आत्मा’ का दायरा मनुष्यों तक सीमित न रख, चर, अचर प्राणियों- थल, जल और हवा में स्थित सभी जीवों जैसे पशु, पक्षी की सभी जातियों; पेड़, पौधों, जंगल; जलाशयों से भी है। और सर्वोत्तम मनुष्य जाति के लोगों को सबको बराबर आदर के अपनी प्राकृतिक रूप में बनाये रखने में ध्यान रखने को कहता है। मनुष्य को उनको नुक़सान न पहुँचाने का भी आग्रह किया जिससे प्रकृति में जगत हित आवश्यक संतुलित बातावरण बनाये रखा जा सके और मनुष्य जाति को उसके अनादर से उत्पन्न प्रकोप को न सहना पड़े। आज के बढ़ते तापमान, असमय असंतुलित बरसात, तूफ़ान, वर्फवारी आदि के प्रकोपों के कारणों में हम मनुष्य की गलती देख सकते हैं। हम वायु, पानी, आकाश, नदी, पर्वत को साफ़, शुद्ध, रखने पर ध्यान दें, उनको गन्दा न करें। आज मनुष्य जाति के स्वार्थ, सुख सुबिधा के लिये उठाये कदम, प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ रहे हैं और उससे हम दुखी हो रहे हैं और प्रकृति को दोष देतें हैं। ऋषियों ने ‘भूत’ शब्द का व्यवहार किया है। उसमें सब देश, काल, चल-अचल वस्तु, व्यक्ति, जलचर-थलचर-नभचर जीव पशु, पक्षी,पदार्थ, परिस्थिति, घटना, आदि सब दृश्य, अदृश्य, संज्ञाएँ आकाश, जलाशय, पर्वत, समुद्र, नदी, जंगल, पेड़, पौधे आदि आ जाते हैं।
**
इन दोनों मंत्रों- 6-7 के भाव को उपनिषदों के बाद के भगवद्गीता गीता, श्री मद्भागवत, मनुस्मृति और बाद के अनेक ग्रंथों- अष्टावक्र गीता, रामचरितमानस आदि में भी इसी महत्व के साथ दुहराया गया है। बहुतों ने उपनिषद् के इन दोनों श्लोकों को क़रीब क़रीब इन्हीं शब्दों में रख दिया है।
यहाँ नीचे भगवद्गीता के कुछ श्लोकों में कैसे ईशोपनिषद् के मंत्रों का प्रभाव झलकता है-
ईशोपनिषद् की तरह ही भगवद्गीता में पहले ‘सबमें एक ही आत्मा’ की बात कही गई। ब्रह्म कृष्ण ने कहा- ‘येन सर्वम् इदम् ततम्’ (2.17, 8.22, 18.46) या थोड़े अन्तर के साथ ‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्– 10.39। इसे बार बार दुहराया पूरी गीता में।
ईशोपनिषद् के मंत्र 6 और7 को ही गीता में भगवान कृष्ण ध्यान-योग के अध्याय 6 में कहते हैं-
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥6.29॥
-सब जगह अपनी आत्मा) को देखनेवाला अपने स्वरूप (आत्मा) को सभी प्राणियों में स्थित देखता है और सभी प्राणियों को अपने स्वरूप (आत्मा) में देखता है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥6.30॥
जो सबमें मुझे (ब्रह्म) देखता है और मुझमें (ब्रह्म) सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥६.३१॥
(मुझमें) एकीभाव से स्थित हुआ जो योगी सभी प्राणियों में मुझे स्थित देखता हुआ मेरा भजन करता है, वह सब कुछ करते हुए भी मुझमें ही नित्य स्थित है।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥6.32॥
अर्जुन, जो अपने शरीर की आत्मा की तरह सब जगह मुझे समान देखता है और सुख वा दु:ख को भी समान देखता है, वह महान योगी है।
(श्लोक 9.29 मे ‘समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः, मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान हूँ, उनमें न कोई मेरा द्वेषी है और कोई प्रिय है।’
श्लोक 10.20 की पहली पंक्ति में कहते है- ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः– अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ।’)
‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग’ अध्याय 13 के दूसरे श्लोक में कहते हैं, ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत, क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम’-अर्जुन, तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ (आत्मा) भी मुझे ही जान और मेरे मत में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ (शरीर-शरीरी, देह, देही, क्षर, अक्षर) को तत्व से जानना ही ज्ञान है।’
फिर
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥23.27॥
जो नष्ट होते हुए सभी प्राणियों में परमेश्वर को नामरहित और समरूप से स्थित देखता है, वही वास्तव में देखता है।
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥१३.२८॥
क्योंकि सब जगह समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखनेवाला मनुष्य अपने-आप से अपनी हिंसा नहीं करता, इसीलिये परम गति के प्राप्त हो जाता है।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥13.30॥
जब योगी प्राणियों के अलग अलग भावों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है और उस प्रकृति से ही उन सबका विस्तार देखता है, उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
मनुस्मृति में इसी तरह का एक इसी भाव का श्लोक है-
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
समं पश्यन्नात्मयाजी स्वराज्यमधिगच्छति॥
और उपरोक्त धर्मग्रंथों के बाद के ‘अष्टावक्र गीता’ में भी यही बात इस तरह कही गई है-
सर्वभूतेषू चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥15.6॥
समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ।
भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता के अन्तिम 18वें अध्याय में 18 अध्यायों की विषय वस्तु को संक्षेप में रखा है। भगवान कृष्ण ने सभी भूतों में एकत्व के ज्ञान को ही सात्त्विक ज्ञान कहा है-
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥18.20॥
भगवान ने समदर्शिता का उपदेश दिया है कि वे सभी भूतों में स्थित हैं और वे मनुष्य के सब वर्गों में कोई भेद नहीं करते और सभी को एक तरह की ही परम गति देते हैं।
भगवान कृष्ण ने समदर्शिता को समाज में फैले भ्रान्तियों को हटाने के लिये बार बार समता को वरण करने का उपदेश दिया, जो आज के भारत में भी उतना ही ज़रूरी है जितना तब होगा।
सम्पूर्ण जीवों में एकता स्वीकार करने पर सर्वत्र आत्मभाव यानि ब्रह्मभाव हो जायेगा- ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्योपनिषद् 3.14.1)। अनेकरूप से जो जीव है, वही एक रूप से ब्रह्म है अर्थात् जीव और ब्रह्म एक ही है-‘अयमात्मा ब्रह्म’। यह माडूक्योपनिषद् के पहले मंत्र में है और उपनिषदों के चार महा वाक्यों में एक है।विभिन्नता का भाव मनुष्य ने अपने राग-द्वेष से पैदा किया है।जगत्, जीव, और परमात्मा – तीनों में अनेक भेद पैदा कर लिये हैं जो इसके सभी दुखों और कलह और यहाँ तक की मृत्यु का कारण बन जाता है। और आपस में परायापन लाता है, मानता है, किसी का बुरा चाहता, देखता तथा करता है और प्रकृति का नुक़सान भी पहुँचाता है।जीव परमात्मा का ही अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता 15.7)। इसीलिये भगवान कृष्ण ने पूरी गीता में बार बार ‘समत्वं योग उच्यते– समता ही मुक्ति है’ को विभिन्नता में एकत्व या समता को हमें समझने की ज़रूरत बताया और समदर्शी, समबुद्धि बनने को कहा। द्वन्दरूप मोह से रहित होने को कहा और सबमें उनकी (ब्रह्म) उपस्थिति का संदेश दिया , ‘वासुदेव: सर्वम्’ कहकर।
समझिये नीचे दिये गीता के तीन श्लोक, जो इस बात को साफ़ कह रहे हैं-
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥5.18॥
ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखनेवाले होते हैं।
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥6.9॥
सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियों में तथा साधु-आचरण करनेवालों में और पाप-आचरण करनेवालों में भी समबुद्धिवाला मनुष्य श्रेष्ठ है।
‘समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:-(9.29) मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान हूँ। उनमें न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है।’
और फिर इसीलिये
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥9.32॥
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो भी पापयोनिवाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र हों वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर नि:सन्देह परम गति को प्राप्त करते हैं।
फिर कोई हिन्दू या किसी वर्ग के भी कुछ अज्ञानी, कुछ स्वार्थ के कारण सदियों से किये जाते इन विभेदों को क्यों तूल देते जा रहे हैं, जब भगवान खुद इनमें कोई अन्तर मानते? आज हमारी रक्षा वाहिनी के हर अंग के लोग क्षत्रिय नहीं है? क्या भारतीय की खेलों में भाग लेने वालों को जाति के आधार पर बाँटा और उनसे बड़े छोटे का वर्षावन किया जा सकता है? अगर आज का हिन्दू समाज जाति प्रथा को तूल देते रहेगा तो हम वहीं के वहीं रह जायेंगें? आज हर वर्ण के लोग शिक्षा और आचरण से ब्राह्मण बन सकते हैं और अपने को पतित कर शूद्र? अगर अपने ऋषियों की बात नहीं मानेंगे क्या हिन्दू कहलाने के योग्य रहेंगे?
हमारा धर्म और दर्शन पूरे संसार का एक मात्र धर्म वह दर्शन है जो सबको जोड़ता है, श्रद्धा करता है, और यहाँ उपनिषद् काल से केवल ज्ञानी को ही महत्व दिया जाता रहा है। काश! हम भारतीय वह परम्परा निभा पाने में समर्थ होते।
जहाँ तक दूसरे धर्मों की बात है। केवल बौद्ध, जैन, सिख का हिन्दूओं के ही इस एकता के दर्शन में समान भाव नहीं है वल्कि इस्लाम और ईसाई धर्म में भी ऐसा ही कहा गया है- अनुयायियों को समझने की ज़रूरत है। फिर सनातन सत्य तो सबके लिये लागू होता है। हमें यह समझना चाहिये कि उपनिषदों में भी असुरों, असंतों, असाधु की संख्या देवों, संतों, साधुओं असंख्य बड़ी थी।अब तो हज़ारों साल के पतन के बाद और भी ज़्यादा होती जा रही है।
दुर्भाग्य से सदियों से कुछ ज्ञानियों, पैगम्बरों के लोकप्रिय हुये कुछ अनुआइयों में केवल उनके योग्यता का ह्रास ही नही हुआ, वल्कि वे अपने स्वार्थ के लिये अपने कुछ अपने गुरुओं के सत्य विचारों को न समझने की चेष्टा की वल्कि अपने बेचारों के क्रियान्वयन से दुनिया के विभिन्न समाजों, देशों में अलग धर्म, पंथ, जाति आदि के नाम पर विभिन्नता लाये और मनुष्य जाति का जीवन दुख, शोक, अशान्ति, क्रोध, हिंसा, द्वेष आदि के मनोभावों से भरता गया। और वैसे लोग आज भी हर देश और समाज में हैं और बड़ी संख्या में अज्ञानी पंडित अभी भी उसी तरह समाज में ज़हरीला भाव फैलाने का काम करते जा रहे हैं।
आज भारत के आम हिन्दू को इस महान दर्शन को न अपने जानते हैं, न जानने की कोशिश करते हैं। अपने बच्चों को कैसे उसे बतायेंगे। इस नई पीढ़ी को हमारे सदाचार, सच्चरित्र की ज़रूरत को न घर में बताया जाता है, न विद्यालयों में पढ़ाया जाता है, न कोई स्वाध्याय से इसे जानने और समझने की कोशिश करता है। हाँ, आश्चर्य तब होता है जब हम पाते हैं कि सदियों पहले हमारे देश से विदेशों में जहां भी भारतीय गये या भेजे गये, वे वहाँ रामचरितमानस ले गये और सामूहिक गान द्वारा उसे ज़िन्दा रखे।
हमारे गाँवों में या गाँवों से आये शहरी परिवारों के कुछ अनुष्ठानों में हम आज भी उस प्राचीन एकत्व की भावना देख सकते हैं। भक्तिकाल कवियों जन जन में इसे जगाये रखा। रामचरितमानस के ब्रह्म राम ने केवट, निषाद, कोल, भील, गिद्ध जटायु, बानर, भालू, राक्षस, नीच जाति की भक्त स्त्री सबरी, गिलहरी आदि सभी से सहायता ले उनको को अपनाया और मान दिया। गंगा, समुद्र आदि सब जलाशयों की पूजा की। आज भी हम देखते हैं लोगों कों चींटियों के मांदों में उनके खाने के लिये आटा डालते हुए और कबूतर आदि पक्षियों के उचित जगह पर उनको आहार के अनाज फैलाते हुए।जब ब्रह्म जाति लिंग भेद नहीं करता तो हम क्यों करते हैं? फिर आज देश के हिन्दूओं में चार वर्णों के बदले विभिन्न जातियों की संख्या हज़ारों में पहुँच चुकी है? और देश के राजनीतिक पार्टियों के नेता चुनाव जीतने के अपनी जातियों का वोट बैंक बना बना और आरक्षण की व्यवस्था जातियों में आपसी बैमनस्य भी बढ़ाते जा रहे है। अगर ब्राह्मण परशुराम को अपनी जाति का बनाए और राजा होने के कारण राजपूत राम को क्षत्रिय कहें या लोग कृष्ण को ग्वाला, तो क्या वे उनकी मर्यादा बढ़ाते या छोटा करते हैं?
आज सारी दुनिया हर हालत में केवल धन कमाने एवं जमा करने में लगी है और फिर अपने धन का उपयोग अचल पर पूर्णतः अनित्य सम्पति खड़ा करने में लगाती है। फिर दुनिया के सबसे दामी मकान, सभी दामी गाड़ी, सबसे महँगे कपड़े और भोजन आदि में। पता नहीं दो या अन्त में बचे केवल एक आदमी के लिये इतना क्यों? उन्हें पता नहीं नहीं देश में कितने लोग जिन्हें रहने का आश्रय नहीं, खाने के लाले हैं, असाध्य बीमारी से ठीक होने के लिये धन नहीं…।
ज़रूरत है भारत के इन प्राचीनतम से प्रारम्भ कर मध्यकाल के भक्त कवियों, ऋषियों और ज्ञानी पंडितों ने जो कहा उसे देश विदेश में बच्चों से लेकर बूढ़ों में सभी धर्म, पंथ, रंग, रूप आदि के भेद का त्याग कर फैलाया जाये और समत्व-एकत्व का भाव दृढ़ रूप से हर व्यक्ति के मानस में बैठा दिया जाये। यही एकमात्र विश्व की स्थायी शान्ति का मार्ग है।