भारत की एक आध्यात्मिक यात्रा- एक सरल विवरण

उपनिषदों, यहां तक की भगवद्गीता में भी वैदिक काल के देवों के नाम ही है जैसे ईश्वर, रूद्र, अग्नि, वायु, सूर्य, फिर इन्द्र. उपनिषद् काल तक हिन्दू धर्म के त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव तथा उमा एवं काली का नाम मिलता है….पर वे सभी वेद् के सर्वश्रेष्ठ आदि देव- पुरूष या ब्राह्मण का ही अर्थ रखते हैं. शायद सबसे पुराना उपनिषद् ईशोपनिषद् है. इसके पहले ही श्लोक में ‘ईशा’ शब्द आया है ईश्वर के लिये…फिर पूषन्(श्लोक १५), एवं अग्नि (श्लोक १८)
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥१॥
कठोपनिषद के दूसरे वरदान में अग्नि के यज्ञीय बात आई है, जो ब्राह्मण से उत्पन्न हैं….पर फिर यमराज ने उपनिषद् के नायक नचिकेता को उसके तीसरे वरदान के फलस्वरूप अमरत्व के रहस्य को समझाते हुए विष्णु के धाम की बात कही है-
विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान्नरः।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्‌ ॥१.३.९॥
मुण्डकोपनिषद् का प्रारम्भ ही ब्रह्मा से हुआ है-
ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥
शंकराचार्य के प्रिय उपनिषद् -श्वेताश्वतरोपनिषद् जिसे बाक़ी मुख्य उपनिषदों से बाद का माना जाता है.आदि शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा है.
इसके प्रणेता ऋषि ने महेश्वर, शिव को प्रधानता दी है…
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम्‌।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्‌॥४.१०॥
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम्‌।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति॥४.१४॥
केनोपनिषद् में उमा, हेमवती के रूप में ब्राह्मण प्रकट हो इन्द्र को बताते हैं कि वह यक्ष ब्राह्मण ही थे जिन्होंने देवताओं को जीत दिलाई.उमा के रूप में ब्राह्मण ही थे जो पहले एक यक्षों रूप में अग्नि एवं वायु के शक्ति की परीक्षा लिये थे और फिर इन्द्र के नज़दीक आने पर अदृश्य हो उमा रूप में आये…
स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमां हैमवतीं तां होवाच किमेतद्यक्शमिति ॥३.१२॥
फिर मूंडकोपनिषद् में यज्ञाग्नि की ज्वालाओं निम्न रूप से वर्णन किया है
काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा।
स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः ॥१.२.४॥
उपनिषद् केवल इन देवताओं का अलग अलग नाम एवं रूप में एक ब्राह्मण की ही बात करता है जो हर जीव में आत्मा की तरह उपस्थित रहता है..
उपनिषदों के ऋषियों के उसी पुरूष और ब्राह्मण को भगवद् गीता में पुरुषोत्तम (अध्याय १५) को के नाम से बताया…. अद्वैत यही है…
पर उपनिषदों के इन धर्म,दर्शन,ज्ञान सम्बन्धी विचारों की जानकारी संस्कृत के जानकारों की कमी और शायद बौद्ध एवं जैन धर्म के राजकीय संरक्षण के कारण बाद के वर्षों में क्षीण होती गई…एक बार फिर जागरण काल आया शंकराचार्य से जिन्होंने उपनिषदों को ढूँढ निकाला..और उनकी रहस्यात्मकता को अपने सरल भाष्यों के द्वारा ख़त्म किया…गीता की, दस उपनिषदों की अपेक्षाकृत सरल संस्कृत में भाष्य लिखा. अपनी स्वतंत्र रचना भी की..हिन्दू घर्म को पुनः देश में बौद्ध एवं जैन धर्मों से आगे ले जाने में सफल रहे, अपनी छोटी उम्र में भी पूरे भारत के हर कोनों में शास्त्रार्थ द्वारा एवं चारों धामों एवं मठों को स्थापित कर. पर बाद में फिर नेतृत्व एवं धर्म से जुड़े लोगों की अज्ञानता और लगन के कारण, त्री देवों एवं देवियों को भी लोग अलग अलग स्वतंत्र वरिष्ठता दे बाँट दिये धर्म को. समाज में वैष्णव, शैव, शाक्त आदि अनुयायी वर्ग बने….यहाँ तक कि वर्चस्व के लिये घोर हिंसा का मार्ग भी अपनाया गया….१०- ११ वीं सदी तक देश के पराधीन हो गया, संस्कृत जनता से कटती गई….आंचलिक भाषाएँ पनपी और तब धर्म के उद्धार की ज़िम्मेवारी का काम भक्त कवियों ने लिया…..हिन्दू धर्म को फिर एक करने का काम तुलसीदास कृत रामचरितमानस एवं अन्य भाषा के भक्त कवियों की पुस्तकों द्वारा हुआ….तुलसी के आराध्य तो विष्णु के अवतार राम हुए, पर मानस में बार बार उन्होंने जिस तरह राम से शिव की बंदना, एवं शिव से राम की बन्दना कराई वह बहुत महत्वपूर्ण बनी विभेद मिटाने में….यही नहीं उन्होंने जो शिव पत्नी उमा एवं सीता के बारे जो लिखा ….वह उन देवियों को फिर उपनिषद् के सर्वोच्च ब्राह्मण के स्तर पर ले गया…केवल दो दोहा/चौपाइयों द्वारा- पहले बालकांड से उमा वर्णन जनकपुर के राजा जनक की पुष्पवाटिका का एवं दूसरा सीता का बल्मिकी द्वारा अयोद्ध्याकांड में बनवास के प्रारम्भ में राम सीता लक्ष्मण से भेंट होने पर स्तुति से दिया जा रहा है….इस समय….
पहला
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥
-आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥
दूसरा
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥
-हे राम! आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकीजी (आपकी स्वरूप भूता) माया हैं, जो कृपा के भंडार आपका रुख पाकर जगत का सृजन, पालन और संहार करती हैं।
राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।
-हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरंतर उसका ‘नेति-नेति’ कहकर वर्णन करते हैं॥
काश! भारत की नई पीढ़ी इनमें रूचि दिखातीं ….वेदान्त सोसाइटी, चिन्मयानन्द मिशन, आदि बहुत संस्थाएँ काफ़ी काम कर रही हैं….पर इन सबका आम जनता तक पहुँचाना नहीं हो पा रहा….देश में आर्थनीतिक बदलाव के साथ पुराने आध्यात्मिक ज्ञान एवं आचरण का समावेश भी ज़रूरी है….कुछ नक़ली गुरू देश में व्याप्त अशिक्षा के कारण लोगों को बरगला अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं…काश! शिक्षित एवं सम्पन्न वर्ग कुछ पहल करता….

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