रविवार, १० नवम्बर को नोयडा के मेघदूतम् पार्क में ९.३० प्रात: श्री बिनोद अग्रवाल एवं ‘सम्वाद’ की सम्पादक श्रीमती शिखा सिन्हा द्वारा एक साहित्यिक अनुष्ठान का आयोजन किया गया. वक्ता थीं डा.प्रतिभा जैन, संस्कृत, हिन्दी की विद्वान अध्यापक, लेखक, कवि, एवं कलाकार, अभिनेत्री, राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित।विषय था, ‘मेघदूतम् पार्क और महाकवि कालिदास का जगत प्रसिद्ध, विश्व साहित्य का शायद पहला और सर्वश्रेष्ठ खंडकाव्य मेघदूत’. डा. जैन द्वारा विषय की सुन्दर चर्चा बड़ी भावुकता, स्पष्टता एवं कुछ नये तरीक़े से किया गया जो सभी श्रोताओं को बहुत पसन्द आया. प्रारम्भ डा. जैन ने मेघदूतम् पार्क का मेघदूत में वर्णित उज्जैयनी के वाटिकाओं के वृक्षों और सजावट के साथ साम्यताओं से की. फिर कालिदास के एक लकड़हारा युवक से कपटी राज्य सभा के पंडितों द्वारा एक मौनी ज्ञानी बनाने, उसके सांकेतिक सरल उत्तरों को ठीक बता विजयी घोषित करने, फिर राजकुमारी विदुषी विद्योत्तमा से विवाह कराने एवं पहली रात को ही विद्योत्तमा का अपने संस्कृत में किये प्रश्न के उत्तर न देने के कारण कालिदास को पंडित बन आने को कह निष्कासित करने की कहानी डा. जैन ने बहुत मार्मिक ढंग से बताया. फिर कालिदास के अज्ञातवास,महान कवि,नाटककार बनने और मेघदूत की रचना की बात कही. मेघदूत में कुबेर के एक नौकर यक्ष के निर्वासन एवं पत्नी से अलगाव में मेघ को दूत बना अपनी पत्नी को अपना संदेश भेजने की कहानी है, जिसमें एक प्रेमी की कोमल भावना है और है रामगिरि से अलकापुरी तक के पथ में आनेवाले पर्वतों, शहरों, वहाँ की वाटिकाओं एवं वहाँ के नवयुवक, नवयुवतियों के सुन्दरता एवं प्रेम का चित्रण. डा. जैन ने मेघदूत के मूल संस्कृत के श्लोकों एवं हिन्दी में नागार्जुन द्वारा अनूदित काव्य को उद्धृत करते हुये विषय को बहुत ही आकर्षक ढंग से पेश किया. सभी मग्न हो उसका लाभ उठायें.प्रश्नोतर भी हुये…बहुत मज़ेदार रही वार्त्ता…उपस्थिति कम थी, पर बहुत ज़्यादा होने की आशा भी नहीं थी…जब देश के लोगों में पढ़ने की रूचि इतनी कम होती जा रही है. हाँ,क्रम चलते रहना चाहिये….
नागार्जुन ने कालिदास पर लिखा है-
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घटाएँ
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब
चित्रकूट से सुभग शिखर से
भेजा था अपना संदेशा
पुष्करावर्त मेघों के द्वारा
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास! सच-सच बतलाना
प्रिया पीर से पूर-पूर हो
धवल गिरि के तुंग
शिखर पर
रोया यक्ष कि तुम रोये थे!
कालिदास! सच-सच बतलाना!