भगवद् गीता- जीवन की शान्ति एवं सुख कैसे मिले?

गीता कामनाहीन बनने की सीख देती है, पर साथ ही हर आम व्यक्ति एक शान्तिपूर्ण सुखमय जीवन की कामना भी रखता है. भगवद् गीता के अध्याय २ में स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताते हुये यह प्रकरण आता है और शान्ति एवं सुख कैसे मिलेगा बताया गया है.कामनाओं के नियत्रंण के साथ साथ मन को राग-द्वेष, मम-भाव, अहंकार,स्पृहा से रहित बनाने के प्रयत्न से हम जीवन को शान्तिपूर्ण बनाने में सफल हो सकते हैं.

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥2.64॥

व्यक्ति अपने वश में की हुई राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करते हुये भी अन्तःकरण की प्रसन्नता प्राप्त करता है.

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥2.65॥

अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर सभी दुःखों का नाश हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर भलीभाँति स्थिर हो जाती है.

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।

न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥2.66॥

मन और इन्द्रियों को न जीत सकनेवाले वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और ऐसे व्यक्ति के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?॥66॥

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-

समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे

स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥2.70॥

जैसे नाना नदियों से आता जल समुद्र को विचलित न करते हुए ही उसमें समा जाता हैं, वैसे ही अगर सब प्रकार की कामनाएँ अगर व्यक्ति के मन में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं करती वह परम शान्ति को प्राप्त करता है, भोगों को चाहने वाला और उसके बशीभूत होनेवाला कभी शान्ति नहीं पा सकता.

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।

निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥2.71॥

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वह शान्ति को प्राप्त है.

भक्तियोग के अध्याय १४ में भगवान की प्राप्ति के तरीक़े का वर्णन करते हुये कृष्ण ने सर्व कर्मों के फल का त्याग करने से परम शान्ति की प्राप्ति होती है, की बात कही है.हम अपने कर्मों के फलों पर ज़्यादा ध्यान देने के कारण अशान्त रहते हैं. अपने हर काम को पूरी दक्षता, कुशलता से करने पर ही अपना पूरा ध्यान लगाना चाहिये. क्या किसी परीक्षा के बाद उसकी चिन्ता कर हम परिणाम को बदल सकते हैं? यह चिन्ता की आदत एक कमजोरी है जिससे उबरना चाहिये. हमें शान्ति मिलेगी.

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥14.12॥

अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है.

अध्याय १८ में सात्विक, राजस, एवं तामसिक सुखों का ज़िक्र है.

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌॥18.36-37॥

अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास में लगा रहता है और जिससे उसके दुःखों का अंत हो जाता है.जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के समान प्रतीत होता है, परन्तु अन्तिम परिणाम अमृत के तुल्य होता है, वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है.

फिर इसी अध्याय में कृष्ण कहते हैं-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌॥18.62॥

तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को प्राप्त होगा.

कामनाएँ कभी नित्य सुख, शान्ति नहीं दे सकती..क्योंकि हर तरह का भोग एक बहुत ही अस्थायी क्षणिक सुख देती है..और हमारी अशान्ति बढ़ती जाती है…कामनाओं का संयमन कर हम नित्य शान्ति पा सकते हैं….आश्चर्य है हम आज वाणप्रस्थ एवं सन्यास के उम्र में भी कामनाओं से छुटकारा लेने का कोई प्रयास नहीं करते और सदा अशान्त रहते हैं…

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