विचारों के जंगल में-९

पता नहीं कुछ पढ़े लिखे लोगों केो पकौड़ेवाले या पानवाले इतने हीन क्यों लगते हैं. इसको एक काम या पेशेवर तरीके से करने में छोटा काम क्यों मानते हैं. मैं ज़िन्दगीभर आई. आई. टी खडगपुर से पास कर लोहे लकडवाला कहलाया जब तक जेनेरल मैनेजर नहीं बन गया. अब एक कलकत्ता के पार्क स्ट्रीट के पार्क हॉटेल के नीचे पान की दूकान की बात बताता हूँ. पार्क हॉटेल के मालिक लड़के के दिमाग़ में आया कि वह पान की दूकान ख़रीद ले जो उसे मुख्य दरवाज़े के पास आँख की किरकिरी लगती थी. बाप के मना करने के बावजूद वह पानवाले के पास जा उसकी दूकान ख़रीदने की बात कही. पहले तो पानवाला चुप एवं शान्त रहा , पर मालिक के बेटे के बार बार ख़रीदने की किसी दाम पर ज़िद करते रहने पर, वह बडी शान्त भाव से कहा, ‘ बेटा, मैं तो यह दूकान नहीं बेचूँगा, पर अगर आप हॉटेल बेंचना चाहो तो बताओ, मैं अभी कैस दे देता हूँ, तुम हॉटेल छोड़ दो.’ लडका हक्काबक्का रह गया और बाप के पास लौट आया और बाप को कहानी बताई. उसने शान्त भाव से ही कहा, ‘ किसी के भेषभूषा एवं पेशे से उसकी औक़ात मत मापो’. बहुत पानवाले, रब्बडीवाले, चायवालों की छोटी दूकान के आगे गाड़ियों की क़तार लगी रहती है. वैसे गाँव से भाग एक लड़का एक इंट जोड़नेवाले के साथ काम सीख मैसन बन गया, फिर ठीक्केदार और बिल्डर और एक दिन देश का सबसे धनी कम्पनी का मालिक. स्वब्यवसाय की दुनिया बहुत अजीब होती है और आदमी अगर काम कर सच्ची कमाई करना चाहता है तो कोई काम बडा छोटा नहीं है.आज की पढ़ाई जो कोचिंग सेंटर तक सिमटकर रह गई है, परीक्षा की सफलता तो दे सकती है पर कोई जरूरी नहीं कि ज़िन्दगी में भी सफल बनाये.हुनर सीखाने से तो पढ़ाई का मतलब ही नहीं रह गया है. यहाँ तक कि उस पढ़ाई का क्या मतलब जब एक स्नातक एक साधारण निवेदन पत्र नहीं लिख सकता, न कोई किसी विषय की किताब पढ़ कुछ समझ सकता है. एक बार सोचिये तो कि ग़लती क्या केवल स्कूल की है? आज ही एक ख़बर आई है कि यू. पी. वोर्ड में १५० स्कूलों के एक भी बच्चे पास नहीं हुये. कारण है इस बार परीक्षा में कोई नक़ल नहीं सम्भव हो पाया. क्या राजनीतिज्ञ भी कुछ सोचने को मजबूर होंगे. क्या अपने दौरों में स्कूलों में नियमित: जाकर विद्यार्थियों एवं अध्यापकों से बात करते रहने का प्रण लेंगे?क्या गाँवों के स्कूलों में विशेषकर खेती बारी की ७-८वीं कक्षा वैकल्पिक पढ़ाई की ब्यवस्था की जायेगी या कोई और हुनर सीखाने का काम करना जरूरी है.

बलात्कार का अभिशाप

पिछले दिनों कुछ समय से मीडिया रिपोर्टस् एवं समाचार के टी वी चैनलों को खोलते ही लगता है, देश में बलात्कारों की बाढ़ आ गई है. यह दयनीय और शर्मनाक सामयिक समाजिक समस्या है. मोदी शायद ठीक हीं कहते हैं लड़कियों पर हर माँ बाप कड़ी निगाह रखें हैं और ‘यह न करो , वह न करो से’ का अंकुश चलाते रहे हैं, पर लड़कों को कोई शायद ही ऐसी निगरानी में रखता है या नसीहत देता है. वह कहाँ जाता है, क्या करता है- के बारे में शायद ही कोई माँ बाप पूछताछ करते हैं. आख़िर यह बलात्कार की घटनायें क्यों यह रूप ले रही है, क्या यह पुलिस की लापरवाही या ढिलाई का नतीजा है? क्या पुलिस चाहने पर भी रोक सकती है बलात्कारों को, अगर उनकी संख्या दुगनी या तीनगुनी कर दी जाये? देश की केन्द्रीय सरकार के अनुरोध पर राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश को मान्यता दे दी जिसमें बारह साल से कम उम्र के बच्च्चों के यौन शोषण के अपराधी को मृत्युदंड की ब्यवस्था की गई है.बलात्कार के केशों में ज़मानत ख़त्म कर दी गई है.और दंडों को भी बढ़ा दिया गया है या सख़्त कर दिया गया है.इस कड़ाई की माँग जन साधारण से थी. क्या सब पार्टियाँ यह निश्चित आश्वासन देंगीं कि बलात्कार या स्त्री संत्रास के किसी मामले में हस्तक्षेप नहीं करेंगीं और पुलिस को सख़्ती से काम करने देंगी, उनके ज़रूरतों को पूरा करेंगी.बलात्कार के सभी घिनौना वारदात एक समाजिक समस्या है जो हर व्यक्ति के पारिवारिक संस्कार, जीवन शैली, अच्छे चरित्र और सामाजिक मर्यादा पर निर्भर है. बढ़ते बच्चों की सठीक देखरेख,चारित्रिक शिक्षा का भार परिवार, शिक्षक एवं समाज पर है. अगर सभी अपनी ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ लें एवं सरकार और पुलिस पर सब ज़िम्मेदारी थोप दे तो इससे बड़ी ग़लती कोई न होगी. पुलिस इन लाखों व्रतों को रोकने में कभी सक्षम नहीं होगी. यह सामाजिक रोग पुराना है और कुछ इसे ही कलियुग की निशानी मानते हैं. लड़कियों को भी अपने को सशक्त बनाने में गौरव महसूस करना चाहिये, अबला बन कुछ नहीं हो सकता. कहां गया वह समाज जहाँ हम सभी लड़कियों, महिलाओं को बहन, दीदी, भाभी, चाची, माम, फुआ कहते थे मुँह से नहीं मन से. १५वीं सदी में लोकनायक भक्तकवि तुलसीदास जी ने कलिकाल के बारे में लिखे हैं मानस के उत्तर कांड में उसके पहले उन्होंने रामराज्य की बात कही है- “…..कलिकाल बिहाल किए मनुजा।नहीं मानत क्वौ अनुजा तनुजा”…. . हम क्या चाहते हैं कलि को चरितार्थ करना या रामराज्य को…”सब नर करहिं परस्पर परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।”.

९.४.२०१८ पता नहीं राहुल गांधी को कौन दिशानिर्देश देता है हर चीज़ का बिरोध १४ साल से वे यही कर रहे हैं. मनमोहन का सरकारी ऑर्डनैन्स फाड़ना, जातिवाद करने का सँभल प्रयोग गुजरात चुनाव में किये हार्दिक पटेल, नेमानी, राठौर के तीन जातियों का, मुस्लिम की टोपी छोड़ अब जनेऊधारी बन गये मठ , मन्दिर घूमते हैं पैसेवालों के पीछे पीछे अग़ल बग़ल पुजारियों के साथ फोटों छपवाते हैं, हिन्दूओं की एकता तोड़ते हैं लिंगायत को अल्पसंख्यक बता कर , यह कभी वरदास्त नहीं किया जाना चाहिये. दलितों को पीड़ित करनेवाले उन्हीं के दल के हैं देखिये दोगलागिरी फ़ोटो में अपने सेनापतियों के साथ, हाँ एक काम तो उन्हें ज़रूर करना चाहिये एक उत्तर द्वारा पिछले ७० सालों में जब वे पैदा भी नहीं तब से और विशेषकर पिछले१३-१४ साल में अपने दोनों सांसद क्षेत्रों में वहाँ के शतप्रतिशत दलितों को वे शिक्षित क्यों न कर सके, कोई सम्मानित जीवनयापन का हुनर क्यों नहीं सिखवा सके, पूरे देश के दलितों की बात वे क्यों करते हैं, ३+ साल में वे मोदी से क्यों उम्मीद करते हैं कि वे सदियों की रूढ़ियों को तोड़ सकने में समर्थ हों, एक पागल को भी यह बात समझ में आना चाहिये, पर कांग्रेस के उनके चमच्चों कैसे आ सकती है? अभी वे सबके प्रति मुँह का दुख दिखलाता हैं, वे कुछ न कर पाये हैं , न कर पायेंगे…केवल माहौल को और बिगाड़ रहे हैं, देश के लफ़ंगों को सह दे रहे हैं, बन्द करें प्रजातंत्र के नाम पर यह बकवास और कहीं भी कुछ काम तो करें…..एक ग़लत बात को सैकड़ों बार बोल कर भोट लिया जा सकता है पर लोगों को स्थायी लाभ नहीं दिया जा सकता, क़र्ज़ माफ़ कर के देश की अर्थनीति को तो बिगाड़ा जा सकता है, पर रोज़गार नहीं बढ़ाया सकता, उन्हीं की राह पर चल यह सरकार आज संकट में पड़ीं है, बड़े छोटे ब्यवसायिओं को उन्होंने उनके साथी अखिलेश मायावती ने सब छूट दीं मोदी ने नहीं, चिट फंडस् , मकान निर्माताओं ने उन्हीं के काल में मध्य वर्ग को लूटना चालू किया और करते रहे, जॉब देने के नाम पर जौहरीरियों ने एक लाख के ऊपर पैन न. देने के नियम का बिरोध किया, नोट बन्दी, जी. एस. टी को लागू करने का काम सब तकलीफ़ों को जानते हुये मोदी कर सकते थे, तीन तलाक़, वहुविवाह , या भ्रूण हत्या पर निर्णय लेने की शक्ति भी मोदी में ही थी. राहुल को किसान किस पेशे को कहते हैं मालूम नहीं, मोदी ही किसानों की आमदनी दूगना करवा सकते हैं, खेती की उत्पादकता बढ़ा कर, लागत कम करके, राहुल उन सबको न जानते हैं, न जानने की कोशिश कर सकते हैं, अपनी जवानी से एक ख़ास वर्ग के महिलाओं में ज़रूर लोकप्रिय हो सकते हैं….मैं अगर ग़लत हो तो आइये और बहस करिये आमने सामने…पर उसके लिये बुद्धि और प्रतिभा चाहिये……लगातार २० घंटे काम करने की ताक़त चाहिये…..

२.४.२०१८ कल मुझे लगा सारा देश जल रहा है. गन्दी स्वार्थी राजनीति देश के प्रजातंत्र को जला कर ही दम लेगी? क्या चर्चिल की भविष्यवाणी सच कर देंगे ग़ुलामी की आदत पाले भारतीय. जिस जाति के विषय को मैं और सभी समाज के सत्पुरुष मिटा देना चाहते हैं, पर हर जगह एक विकृत विकार के कुछ ब्यक्ति हैं जिन्हें जनता नेता कहती हैवे सब फ़िल्मों में दिखाये हथकंडों का प्रयोग कर रहे हैं और वैमनस्य फैला रहे हैं उद्देश्य केवल एक है चुनाव जीतना या जीतवाना. आज फिर कुछ ऐसे लोग समाज और देश को देश बिरोधी तत्वों, लोगों की अशिक्षा, ग़लत वयानी का सहारा ले अफ़वाहें फैला अशान्ति फैला रहे हैं. न वे ख़ुद देश के संविंधान, क़ानून और नियमों का पालन करते हैं, न आम जनता को करने देना चाहते हैं. देश के ऐतिहासिक सफलता इनका दिल दुखाती है, केवल इसलिये कि दस्तों के शासन के बाद वे कुछ न पाये थे. तकलीफ़ तब होता है जब संविधान के स्तंभों में दीमक लग गया है. न्यायपालिका की बात मानी नहीं जाती, सरकार को हर क़दम पर ग़लत ठहराया जाता है, स्वच्छता और बेटी पढ़ाओ की तरह की चीज़ों का भी बिरोध होता है, न शराब बन्दी की जा सकती है, न अव्यस्क बच्चों की शादियाँ, न तिलक, न तल्लाक , न बहु बिबाह, न जनसंख्या नियंत्रण. पढ़ना नहीं है , नक़ल की आज़ादी चाहिये, कुछ जानते नहीं न पढ़ना, न लिखना, न कोई हुनर पर सरकार काम दे. कुछ काम न करके परोमोसन चाहिये, सबको संरक्षण चाहिये चाहे जितनी कमाई हो खेत हो या पोज़ीशन हो. पैदावार का दाम चाहिये पर कैसे पैदावार की उत्पादकता बढ़ाई जाये, उस बारे में सीखेंगे, जानना चाहेंगे. सरकारी बैंक से क़र्ज़ा लिये हैं यह क्यों लौटाना ज़रूरी है, टैक्स आजतक नहीं दिये अब क्यों, बिजली पानी आजतक चुराया उसका रेंटल क्यों दें, परीक्षा के प्रश्न पत्र लीक हो गये तो रास्ते पर बिरोध, तैयारी में नहीं लगेंगे….माँ बाप भी बिरोध में साथ, उनके बच्चों की क्या ग़लती, जैसे लीक कभी हुआ ही न हो और लोग लीक करनेवालों को जानते नहीं…..एक नया तरीक़ा शायद पहली बार एक महिला मुख्य मंत्री उठाई है…..१५ वें फिनांन्स कमीशन का बिरोध सारे देश में करेंगी. संसद नहीं चलने देंगी. एक दिन में भी संसद में उपस्थित हो बिना कोई काम किये , न औरों को करने देने के बावजूद लाखों में कमाना ठीक है……कबतक चलेगा…..एक बनाम सब की लड़ाई तकलीफ़ देती है….और ये पार्टियाँ कौन हैं अधिकांश पारिवारिक फ़ायदे के लिये बनीं, चलीं, साधारण लोगों को बेवक़ूफ़ बनाती रहीं ……

समझ में नहीं आता कि सरकारी या ग़ैर सरकारी संस्था किसी फ़ार्म में जाति/ धर्म , विशेषकर जाति के विवरण को देने को अनिवार्य क्यों रखती है. यह हमारी इच्छा पर हो नी चाहिये कि हम धर्म या जाति लिखें या नहीं. मैं अपनी चाहे तो लिखूँ या नहीं. वैसे भी हममें शायद धर्म के नाम पर खरे उतरे. जातियों का नाम तो पिता / माँ की जाति पर चलता आ रहा है जो जीवनयापन के पेशे से ताल्लुक़ रखता था. आज २१वीं सदी के प्रथम चरण में बहुत सी जातियाँ तो मर गईं है, फिर आने वाले दिनों में वे और भी बदल जायेगा

मुझे कोई तो बतायेगा संरक्षण कितने साल चलेगा ७० साल हुये या ७००. या जब तक सभी बाक़ी निम्न तम १% आय में न आ जायें..वैसे यह बहुत शीघ्र हो जायेगा, अगर कबतक देश बचा रह गया..एक सीमा तो होनी चाहिये….

संरक्षण एक संक्रामक रोग है , हम समय रहते चुक गये, किसी को इसके हानिकारक पक्ष का ख़्याल न था, हरिजन एवं बनजन के बाद आये अन्य पिछड़े वर्ग जो सुरसा के मुँह की तरह बढ़ते गये झूठे प्रमाण पत्र द्वारा, १५ साल के लिये बना क़ानून आज सत्तर साल तक चलता रहा है और ७०० साल बाद भी इस धरती पर कोई लाल पैदा न होगा जो उसे समाप्त करने में सक्षम हो, और देश को गर्त में जाने से रोक सके…अब तो टरम्फ ने भी रोक लगा दी , कहाँ जायें भागकर …

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