कुछ बिखरी बातें

मैं अपने मुस्लिम दोस्तों से कुछ प्रश्न करना चाहता हूँ पूरी विनम्रता के साथ.
मुझे ऐतिहासिक जगहों में रूचि है. मैं कुतुबमीनार गया, वंहा एक मस्जिद है जो इलाक़े की पचासो मन्दिरों को तोड़ बनाई गयी थी. सभी खम्भों पर तोड़ी प्रतिमाएँ साफ़ दिखती हैं. मैं अगर हिन्दु हूँ मुझे कैसा लगना चाहिये? जाने माने राष्ट्रीय समाचार पत्र में । समाचार पढ़ता हूँ कि लाहौर में एक ऐतिहासिक जैन मन्दिर को गिरा दिया गया, मुझे क्या दुख नहीं होना चाहिये? इतिहास की कोई पुस्तक उठाता हूँ, अलाउद्दीन ख़िलजी, औरंगज़ेब, यहाँ तक टीपू सुल्तान तक का बल और भय द्वारा लाखों हिन्दुओं के धर्म परिवर्तन का ज़िक्र आता है यह कैसे न बुरा लगे. क्या इतिहास की किताबों से कोई भारत की सरकार उन अंशों को हटवा सकती है?
पिछली गरमी में हम श्रीनगर गये थे, रास्तें में आये खस्ता हाल मन्दिरों को देखा, चारों तरफ़ फैले जान हथेली पर लिये जवानों को देखा, क्या मुझे तकलीफ़ नहीं होनी चाहिये. कश्मीर घाटी का इतिहास इन्टरनेट पर देखा-एक सुल्तान द्वारा सभी हिन्दुओं के बल पूर्वक मुस्लिम बना देने की कहानी पढ़ी, क्या उसे ग़लत मानूँ ? मेरे मित्र अरोरा जी और बहुत हमउम्र जब पाकिस्तानवाले हिस्से से आते समय देखें भयानक साम्प्रदायिक दंगों की कहानी कहते हैं, मुझे क्या दुख नहीं होना चाहिये? आप में अधिकांश के ख़ून में आपके हिन्दु पूर्वजों का खून है, फिर क्यों है यह दुश्मनी और घृणा कुछ लोगों के बहकाने के कारण? आइये, हम भारत का नमन करें और कुछ ऐसा धर्म, जाति, भाषा, प्रांत के नाम पर न करें किसी तरह के बहकावे में पड़ जो भारत का नुकशान करें.
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अपने को दलित कहे जानेवाले दोस्तों से……!
आप अपने को दलित क्यों कहते हैं और फिर किसी के कहने पर मानते क्यों हैं? भारतीय संबिधान ने आपको सबकी बराबरी में बैठने योग्य बनाने के लिये संरक्षण दिया है हर स्तर पर, आप संबिधान के अधिकारों को ले अपने कर्तव्य से किनारा नहीं काट सकते. आज पूरा समाज आपके साथ खड़ा होने के लिये और किसी तरह की सहायता करने के लिये तैयार है, अगर अपनी मिहनत से कोई योग्यता प्राप्त कर लेता है. पटना का सुपर३०, शिव नादर का विद्या ज्ञान या डा. अच्युत सामंत का भुवनेश्वर का KISS और वैसे सैकड़ों व्यक्ति और संस्थायें आपको योग्य बनाने में लगी हैं. क़रीब एक साल पहले जब ग़रीब परिवार के दो जुड़वा भाई आई. आई.टी में आये और उनकी आर्थिक संकट का मीडिया में ख़बर आई, सैकड़ों सम्पन्न सामने आ गये सहायता के लिये. जब एक वेल्डर के लड़के को कुछ पढ़ाई में दिक़्क़त आई, दो शिक्षक आगे आये, सहायता किये , आज वह अमरीका में है माइक्रोसौफ्ट में. संरक्षण पिछड़े वर्ग के लोगों को शिक्षा और कार्य कुशलता या हुनर में अन्य वर्ग के बराबरी में लाने के लिये या उनसे आगे निकल जाने के लिये दिया गया है. इसका उपयोग पिछड़े वर्ग के आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर लोगों को आगे लाने के लिये प्राथमिकता से होना चाहिये. दलित वर्ग का भी कुछ दायित्व बनता है पाये अधिकारों के साथ. इस बिषय पर उन्हें राजनीति करने से बचना चाहिये. अब तो वैज्ञानिक प्रमाण भी मिल गया कि पाँचवी शताब्दी के पहले भारतीय समाज में जातिगत बिषमता नहीं थी. संरक्षण लोक हिताय हो, कमज़ोरों को समकक्ष लाने का हो, केवल जन्मगत जाति ही इसका अधिकार न ले और बिद्वेष का कारण न बने……जो आर्थिक दृष्टि से असल में कमज़ोर हैं, उन्हें तो संरक्षण मिलना ही चाहिये……
आज बहुत से पिछड़ी या अति पिछड़ी जातियों के परिवार हैं जो बहुत सम्पन्न हो चुके हैं, अब उन्हें अपने बच्चों के लिये संरक्षण नहीं लेना चाहिये, क्योंकि वे स्कूल स्तर से बढ़ियां से बढियां शिक्षक रख अपने बच्चों का शिक्षास्तर सबकी बराबरी में ला सकते हैं. जन्म, जाति गत बुद्धिमत्ता का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं. मेरे बिचार से सरकारी कामों में प्रवेश और फिर ऊपर बढ़ने में शिक्षा एवं कार्य कुशलता ही प्रधान होना चाहिये. संरक्षण युवकों की बेरोज़गारी का हल नहीं हो सकता.
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मुझे आश्चर्य भी होता है और भयंकर डर भी लगता है. एक तथाकथित उच्च वर्ग के ब्यक्ति की फ़ेसबुक पर संरक्षण की माँग पर मैंने यह प्रति क्रिया की : “आरंक्षण की माँग जाति को अपमानित करना और पतन का द्योतक है, कृपया छोटे बनाने की राजनीति करने वाले, अपना उल्लू सीधा करनेवालों को रोकने का हर सम्भव प्रयास कीजिये, अनुरोध है.” मेरी बात का यक़ीन कीजिये, किसी एक ब्यक्ति ने भी मेरे बिचार से सहमति नहीं जताई. क्या यह डर की बात नहीं है? कंहा तक ले जायेगा यह बिद्वेष का बातावरण ? क्या शिक्षित नई पीढ़ी अपने सामर्थ्य, परिश्रम और बुद्धिमत्ता के बल पर आगे बढ़ना चाहती है या संरक्षण के बल पर? अगर प्राइवेट क्षेत्र में भी राजनीतिक दबाव में संरक्षण स्वीकार कर लिया गया तो क्या हालत होगी? क्या कोई इस बिषय पर राष्ट्र को सही राह नहीं दिखा सकने वाला पैदा नहीं हो सकता? संरक्षण से आगे बढ़ कर कोई सम्मानित नहीं महशूश कर सकता जीवन भर. उदाहरण है कर्ण की जीवन कथा, क्या पूरे जीवन उस संरक्षण के बोझ तले उसे नहीं जीना पड़ा? अगर चाहता तो प्रतियोगिता सभा में भाग लेने के पहले अपने सामर्थ्य से एक राज्य जीत कर भाग ले सकता था सम्मान को बचाये रख.
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पिछले दिनों मैं हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, जादवपुर, जे. एन.यू के बारे में पढ़ता और वंहा की घटनाओं को टी.वी पर देखता रहा हूँ . कुछ प्रश्न बराबर मुझे परेशान करते रहे हैं, जो शायद मेरे जैसे अन्य पूर्व अभिभावकों को भी कुछ इसी तरह सोचने को बाध्य किये होंगे. इन फ़ोटो में अगर मेरी जानपहचान का कोई होता तो मैं ज़रूर परेशान हो जाता. शायद मैं किसी हालत में अपने लड़के या लड़की को यह नहीं करने देता. कोई भी अपने गाढ़ी कमाई के पैसे का यह उपयोग तो ग़लत ही समझता और रोकने की कोशिश करता. फिर अगर यह पता चलता कि बच्चों के शिक्षक ही इन कार्यों के पीछे हैं तो पहले तो मेरी तकरार होती उनसे, फिर मैं अपने लड़के को वंहा से निकाल लेता. और अगर लड़का फिर भी ज़िद करता तो कम से कम मैं उसका ख़र्च तो नहीं उढ़ाता. आज के अभिभावक क्या मेरी तरह नहीं सोचते? क्या उनकी राय में ये लड़के ठीक कर रहें हैं अपने या देश के लिये? मैं प्रेसीडेन्सी और खडगपुर आई.आई.टी में पढ़ा, तब कोई- छात्र या शिक्षक- ऐसी हिमाक़त करने की सोच भी नहीं सकते थे. कलकत्ता में और भी बहुत कालेज थे, जंहा आये दिन कुछ न कुछ बारदात होती रहती थी. हम अछूते रहते. क्या हम अच्छे नागरिक नहीं बने? अच्छा कालेज हर छात्र का स्वप्न होता है, अच्छे अध्यापक के बिना यह सम्भव नहीं. फिर उनको शिक्षक की तरह हम कैसे स्वीकार सकते हैं जो देशद्रोह की शिक्षा दें. समाज जोड़ने की बातें न कर तोड़ने की बात करे. कोई कर्तव्यपरायणता की बात न सीखा केवल अधिकार की बात बताये ज़िन्दगी में । मैंने बहुत अबिभावकों को देखा है उनके अपने बच्चों सम्बंधित सपनों को टूटते हुये, क्योंकि वे सक्षम होते हुये भी बच्चों को दिशा न दिखा सके…..इतना राष्ट्रीय धन ख़र्च कर हम शिक्षा संस्थानों को दुनिया में श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, क्यों नहीं ये कुछ अति भाग्यवान शिक्षक और छात्र देश के इस महायज्ञ में बढ़ चढ़ कर भाग लेते? हर भारतीय का यह दायित्व है कि पहले अपना दायित्व निभाये ईमानदारी से फिर अधिकार की बात करे. दुख की बात है शिक्षा क्षेत्र की राजनीति और संरक्षण का दुरूपयोग देश को दुनिया की पहली पंक्ति में आने ही नहीं देगा. हाँ , एक बात और उच्च शिक्षा में किसी तरह का संरक्षण ख़त्म करना ही होगा यथाशीघ्र. यही उच्चतम न्यायालय भी चाहता है. जे.एन.यू के कुछ छात्रों ने भारत का नाम पिछले दिनों के कारनामों से दुनिया के कोने कोने में फैला दिया. क्या वे इस संस्था के विश्व स्तरीय शैक्षिक कारनामों से भी यह करने की कुब्बत रखते हैं? कर के दिखायें.
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गाँव में रहते समय मैं भी पीढ़े पर दो पैरों पर बैठ खाना खा सकता था । पिताजी बड़ी शालीनता से बैठते थे पीढ़े पर । अब तो गाँव में भी वैसे शायद ही बैठ कोई खाता होगा । ऐसा ही हाल देशी क़िस्म के संडास में आज होता है । ख़ैर, अब तो पहले ही पता लगा लेता हूँ क्या ब्यवस्था है ।
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सात समन्दर पार आने के बाद भी उन्नत प्रौद्योगिकी हमें भारत और भारत सम्बन्धी समाचारों से नज़दीक़ बनाये हुये है, कभी अच्छा लगता है , पर अधिकांशत: बुरा. आज एक समाचार है, ‘देश को दुर्गति की ओर लगातार तेज़ गति से ढकेलती उच्चतर शिक्षा के संस्थानों में संरक्षण की ब्यवस्था को उच्चत्तम न्यायालय ने ‘राष्ट्रीय हित’ में बन्द करने को कहा है’. ख़ुशी होती है . पर भोट की गहरी पैठी राजनीति के चलते यह शायद कभी सम्भव न हो. आश्चर्य की बात है कि अधिकांश समाचार पत्रों में यह समाचार नहीं छपा है. केवल जे.एन.यू, हैदराबाद और यादवपुर हीं नहीं सभी प्रमुख शिक्षा संस्थान इस बीमारी के कुफल से प्रभाहीन होते जारहे हैं, अच्छे शिक्षकों का अभाव और राजनीतिज्ञों का हस्तक्षेप अन्य कारण हैं शैक्षणिक स्तर के गिरावट क, नये नये विश्वस्तरीय अनुसंधानों के नहीं आने का. अमरीका के विश्वविद्यालयों में तो ऐसे छात्र संगठन नहीं है, फ़ैक्टरियों में आज यूनियन न के बराबर हो गया है, पर गुणवत्ता, उत्पादकता, सम्पन्नता में अमरीका और अमरीकन शिरमौर हैं. इनके बिश्वबिद्यालय सबसे श्रेष्ठ हैं, कब समझ में आयेगी यह बात, जब करने को कुछ बचेगा ही नहीं ,जब देश के धर्म और जाति के नाम पर सौ टुकड़े हो जायेंगे और करवानेवाले बिदेशों में जा बसेंगे तुम्हारा रूपया ले आराम की ज़िन्दगी जीते हुये.
http://www.dnaindia.com/india/report-supreme-court-tells-modi-govt-to-scrap-reservations-from-institutes-of-higher-education-2139383
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अस्टिन, टेक्साज, अमरीका, मार्च ५, भारत भारती के ज़माने का हूँ तो देश से लगाव है, हर प्रधान मंत्री प्यारे रहे, हर प्रगति प्यारी रही, देश की हर हार पर रोया भी हूँ, पर आज की मानसिकता को समझ ही नहीं पा रहा हूँ . हिन्दी के सीरियल और समाचार चैनलों में कोई अन्तर ही नहीं है. दोनों को देख सरदर्द करने लगता है. न सीरियों में कोई कथा है , न समाचारों में किसी सुन्दर, स्वच्छ, सम्पन्न भारत का कोई आधार दिखता है. बेटे कहते हैं सीरियल के लिये पाकिस्तानी चैनलें देखिये, समाचार के लिये BBC या फिर History पर Aliens. पर मन है कि मानता नहीं, क्या अपने चैनलों में बदलाव नहीं आ सकता?

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