स्कूल फ़ाइनल की परीक्षा के बाद मेरे नज़दीकी दोस्त पूछते थे, कहाँ पढ़ना है आगे, कुछ जानकारी न रहते भी बड़े बिश्वास से कहता था, प्रेसीडेंसी कॉलेज में । सच कहता हूँ मुझे कुछ पता नहीं था प्रेसीडेंसी के बारे में । बाद में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज के अभूतपूर्व इतिहास के बारे में जाना और उसका आशिक हो गया ।बंगाल की सारी महान बिभुतियाँ वहीं से पढ़ कर निकलीं थीं ।
मार्च १९५५में स्कूल फाइनल के बाद मैं गांव चला गया था और मेरे सभी बिरोध के बावजूद भी मेरी शादी यमुना से कर दी गयी थी । हम जब वापस आये बिरलापुर तबतक रिज् लट निकल गया था। मार्क्स सीट आने पर मैं दादा जी के साथ कलकत्ता के कॉलेजों में भर्ती के लिये गया । सेंट जेवियर और Scottish Church फार्म दे दिये और प्रवेश परीक्षा की तिथि बता दिये । हम प्रेसीडेंसी पहुंचे ।काउंटर पर बैठा ब्यक्ति पूछा, ‘मार्क सीट लाये हो’। मैंने दे दिया । “फीस का पैसा भी”। दादाजी ने पैसे बढ़ा दिये, भर्ती हो गयी उस कॉलेज में जहां देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद भी पढ़े थे । वहाँ से निकल हम कॉलेज के छात्रावास इडेन हिन्दु हॉस्टेल गये । बिरलापुर से रोज़ कॉलेज आना जाना तो सम्भव नहीं था अच्छी तरह पढ़ाइ के लिये ।वहाँ भी कुछ थोड़ी फीस दे प्रवेश मिल गया । यहीं डॉं राजेन्द्र प्रसाद भी रहते थे । हॉस्टल के बाहर दरवाजे पर ही एक संगमरमर की पट्टिका इस सूचना के साथ लगी थी । हम बड़े प्रसन्न थे और शाम तक बिरलापुर लौट आये । हमारे शिक्षकों को बड़ी ख़ुशी हुइ । संस्कृत के अध्यापक, जो ‘पंडित मोशाइ’ कहे जाते थे, के अनुसार मुझे आर्ट स्ट्रीम लेना चाहिये था ।पर मैंने विज्ञान लिया था, क्योंकि इंजीनियरिंग में जाने के लिये वही जरूरी था ।
कॉलेज और हॉस्टल की जिंदगी कुल ६ साल की रही: प्रेसीडेंसी कॉलेज के लिये दो साल की, इंटरमेडियेट करने के लिये; आइ.आइ.टी, खड़गपुर के लिये चार साल । दोनों ही जगहों में खाने की बड़ी तकलीफ रही ।हिन्दु हॉस्टल में रसोइयों को मालूम ही नहीं था कि कुछ लोग शुद्ध शाकाहारी होते हैं ।वे दाल, सब्जी सभी में छोटी छोटी चिंगड़ी मछली डाल देते थे ।बंगाल के लोग उसना चावल खाते हैं, जो मैं खा ही नहीं सकता था । कभी कभी हैरिसन ( आज का महात्मा गांधी) रोड के राजपूत ब्रदर्स में जा चार आने की पूड़ी सब्जी खा अपनी भूख मिटाता था । पैसे की भी कमी थी । खडगपुर में समस्या अलग थी । वहाँ के रसोइये सभी तेलांगाना के थे । तबतक मैं इडली डोसा सॉम्भर देखा भी नहीं था । और उस समय कहीं बाहर भी कुछ नहीं मिलता था ।
एक समस्या हिन्दी माध्यम की मेरी शिक्षा के कारण थी, मैं शायद ही किसी बिषय वस्तु की बारीकियों को समझ पाता था , क्योंकि सभी शिक्षक अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाते थे । आज भी यही हालात है उन सभी लड़कों की जो हिंदी माध्यम से पढ़ उच्च शिक्षा के लिये जाते है ।अंग्रेजी की शिक्षा का स्कूल स्तर पर बहुत अच्छा होना जरूरी है ।अगर यह नहीं हुआ ,तो हम उच्च शिक्षा में पीछे पड़ते जायेंगे।
प्रेसीडेंसी कॉलेज और हिन्दु हॉस्टल का दो साल १९५५-५७ जिंदगी में बहुत सम्मान दिया । सॉल्ट लेक की म्यूनिस्पेलिटि के सभापति दीलिप गुप्ता जो मेरे हीं ब्लॉक में रहते बराबर कहते, ‘ शर्मा जी, मैं तो प्रेसीडेंसी के दो लोगों को जानता हूँ एक आप और दूसरे डॉ राजेंद्र प्रसाद’ । उन दो सालों में बहुत सी महान हस्तियों के दर्शन का सौभाग्य मिला, कुछ से बातचीत भी सम्भव हो सका । डॉ राजेंद्र प्रसाद भी आये, हॉस्टल में भी, वहीं उनसे बात करने का सौभाग्य मिला ।उस समय वे देश के राष्ट्रपति थे ।प्रसिद्ध इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार भी एक सरस्वती पूजा के समारोह में हॉस्टल में आये । हॉस्टल के वार्डेन प्रो० अमिय कुमार मजूमदार एक नामी दारशनिक थे ।उन्ही दिनों बंगाल के मुख्य मंत्री डॉ० बिधानचंद्र राय और अशोक सेन को उस क्षेत्र से चुनाव के लिये प्रचार करते देखा ।
मेरा चौथा बिषय जीव विज्ञान था । इसका चुनाव इसलिये किया गया था कि इंजीनियरिंग में दाखिला न मिलने की हालत में मैं डाक्टर बन सकूं ।इस कक्षा में हिन्दी भाषी केवल एक शुक्ला थे, अन्य हिंदीभाषी मारवाडी थे,उनमें कुछ बहुत हीं धनी थे। उसी समय अहसास हुआ लक्ष्मी के कृपा पात्र सरस्वती के उपासक भी हो सकते हैं ।
कलकत्ता विश्वबिद्यालय की इंटरमिडियट की फाइनल परीक्षा की एक बात सदा याद आती रही है। पहले दिन की पहली परीक्षा केमिस्ट्री की थी, सवाल कठिन आये थे, मन उदाश था, सोच रहा था बाकी परीक्षा दी जाये या नहीं ।कुछ लड़के छोड़ रहे हैं, की अफवाह थी । ठीक उसी समय दादाजी आ गये थे अचानक बिरलापुर से । उन्होने समझाया, मैं पूरी परीक्षा दिया और फल निकलने पर पाया कि अंक भी ठीक हीं मिले । मैं बेकार ही चिंता कर रहा था ।
हिन्दु हॉस्टल में रहते हुए ही मैंने IIT, खड़गपुर का फार्म भरा और BECollege में प्रवेश परीक्षा के लिये बैठा ।ISM, धनबाद के लिये भी Scottish Church College में इंतहान हुआ । दोनों जगह ही दाखिला मिल गया था । दादाजी मुझे कोयला की खानों में मुझे फस्ट क्लास मैनेजर के रूप में देखना चाहते थे, जिससे रुतबा मिले और तनख्वाह भी अच्छी मिले। घर की सम्पन्नता उनकी चाह थी और मेरी भी ।पर धनबाद से भर्ती का न्योता देर से आया और तबतक खडगपुर में पैसा भरा जा चुका था । मैं इंजीनियर बन गया ।