कभी कभी

एक मास में,
एक रात के
पूर्ण चन्द्र की
स्निग्ध चांदनी
कितनी मनभाती हैं .
पर कितनी ऐसी रातों में
इसे देखने
हम बाहर होते हैं .
कभी कभी बारिस की
जब रिमझिम बूँदें
मोती बरसातीं हैं.
कभी कभी सूरज की किरणें भी
कितनी अच्छी लगती हैं
कितने हम में बाहर होते?.
कभी कभी उन गुलमोहर के पत्तों का
झर झर कर गिरना,
खुद अपने उन शोख रंग के
फूलों से मोसम में सजना
राह किनारे.
हरसिंगार के नन्हे नन्हे फूलों से
धरती का पटना,
और हवा को मदमाती कर
धीरे बहना,
और वंही मिट्टी में मिलना
कहाँ आज कुछ याद दिलाता?
प्रकृति सुंदरी का यह श्रृंगार
लोगों को अब नहीं लुभाता.
कभी कभी अच्छा लगता है
प्रात: प्रात:
नए शहर के मुख्य मार्ग पर
मुझे भटकना
और कभी यह अच्छा लगता
बिना निमंत्रण
उनका आना .
सभी व्यस्त हों
या वे मस्त हों
दरबो में या फिर महलों में.
हमें एक इच्छा है होती
मैं चिलाऊँ
‘बाहर आओ, खुश हो जाओ
देखो सूरज, महती धरती
और बहूत आगे बढ़ जाओ.’

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