एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । ऋ. 1.164.46
-एक ही सत्य को विद्वान अलग अलग रूपों में व्यक्त करते हैं।
ये विद्वान कौन ऋषि से जिन्हें वेद ने अलग अलग रूपों में व्यक्त करने का अधिकार दिया था। उनमें बहुतों ने अपना नाम भी नहीं बताया, न अपनी जाति या वर्ण के बारे में कहीं कुछ लिखा। वे किसी से पूजे जाने की इच्छा नहीं रखें।वे साक्षात् परमात्म त्तत्व का स्वयं में अनुभव किये और बहुत बाद में आज तक अपने ज्ञान के कारण सभी वर्ग और श्रेणी के लोगों से पूजे गये। वे ब्रह्मज्ञानी बने और ब्रह्म विद्या की शिक्षा दी कुछ योग्य शिष्यों को ब्रह्मविद बनाया।
और शंकराचार्य आदि ब्रह्मज्ञानी सदियों बाद उन ग्रंथों का भाष्य लिखा, जो हमें अपने अलग अलग भाषाओं में उपलब्ध हैं। वे सनातन धर्म के प्रचार प्रसार में जीवन खपा दिया।
हजार साल के करीब तुलसीदास हुए, उन्होंने महर्षि बल्मिकी के रामायण पर आधारित राम की कथा लिखी।
तुलसीदास जी ने भी मानस में लिखा-
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता
- हरि अनंत हैं यानि उनका कोई पार नहीं पा सकता और इसी तरह उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं।
पर वे संत कौन कहे जायेंगे और असंत कौन तुलसीदास के रामचरितमानस में बहुत जगह, बहुत प्रसंग में वर्णित किया है। वालकाण्ड, अरण्यकाण्ड में, उत्तर काण्ड में और भी जगह।
यह समस्या तुलसीदास के समय भी आई होगी, अत: कलिकाल के लोगों के आचरण का उत्तरकाण्ड में बहुत बेवाक रूप से वर्णन किया है।
उपनिषदों भी इस विषय पर एकाध श्लोक हैं- पर महाभारत काल में परमात्मा के सगुण अवतार कृष्ण ने युद्ध के मैदान में भगवदगीता का उपदेश दिया, जिस गीता को सनातन धर्म सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ माना गया। कृष्ण ने इसकी जरूरत को अच्छी तरह समझी। जब एक तरफ परमात्म तत्त्व को एकमात्र सत् बताया, दैवी सम्पदा, आसुरी सम्पदा, नरक आदि का विस्तार से वर्णन किया। अध्याय सोलह में दैवी सम्पदा पर केवल ढाई श्लोक दिये जब बाद बाक़ी पूरा अध्याय केवल आसुरी सम्पदा की विस्तृत चर्चा की, यमराज वाले भीषण यातना मिलने वाले नरक का कारण बताया, सभी के समझ में आनेवाले आचरणों को बता कर।आज ज़रूरत है उस एक अध्याय के उपदेश को सब भाषाओं के संतों को पूरे देश के हर नागरिक तक सरल भाषा में पहुँचाने की ज़रूरत है। इससे ही देश जगेगा। दुःख यह कि आज के संत जो ख़ासी धन राशि कमाना सीखे हैं, श्रोता से कमाई कर, वे इसे नहीं करेंगे।
फिर कौन करेगा यह?
अगर सनातन हिन्दू केवल तुलसी के विचार से जो संत हैं उन्हीं को संत माने तो कोई दिक्कत नहीं। धीरे धीर असंत भी केवल भेषभूषा से अपने को असंत घोषित कर दें या कोई भी अपने को आत्मश्लद्धा के विभिन्न तरीक़े से संत बना लेता है, शिष्यमंडली बना लेता है जो उस संत का गुणगान कर, विभिन्न प्रकार के प्रचार के तरीक़े से महान संत बना दे, तो साधारण बुद्धि का विना संसारिक हथकंडों को न जानता उस असंत को अस्वीकार कैसे कर दे। कैसे तो पहचान हो। आजकल तो भीषण रूप से घातक सोशल मीडिया के भरोसे शायद यह संभव ही नहीं है।
इस बात को हमारे देशभक्तों को सोचना है…आप पढ़िये, समझिये, और सनातन को अपनाइये।एक श्लोक में सनातन सिद्धांत है..आप ईशोपनिषद का पहला श्लोक ले सकते हैं –
या भगवद्गीता का एक और आत्मसात् कर।
पूछ सकते हैं….my email- irsharma@gmail.com