बिहार का चुनाव- बिहार हित में मेरे बिचार

बिहार का चुनाव- बिहार हित में मेरे बिचार
कभी कभी आश्चर्य होता है कि हमें भारत के सबसे बड़े सपने- देश की स्वतंत्रता को हासिल करने के वाद के इन कुछ सालों के बाद ही हमें देश को जाति आधारित, भाषा आधारित, क्षेत्र आधारित दिन प्रतिदिन बढ़ती विचारों को कभी कभी अनुशासन, आचरण के हर सीमाओं का उलंघन होता क्यों देखना पड़ रहा है?
और असहनीय पीड़ा और मानसिक तनाव तब होता है जब यह तथाकथित आधुनिक उच्च शिक्षा युक्त लोगों के द्वारा उकसाया जाता है।
इन सालों में हमारा व्यवसाय, उद्योग विश्वप्रसिद्ध क्यों नहीं हो पाया, हमें आर्थिक प्रगति की गति को बढ़ाने में इतना समय क्यों न लग गया? हमारी शिक्षा पद्धति उस स्तर पर ले जाने में क्यों सक्षम हो सकी। हम दूसरे सभी अपने से पिछड़ी व्यवस्था से क्यों पीछे होने का रोज अहसास होता है।
क्या स्वतंत्रता के बाद के प्रजातांत्रिक तरीक़े से अपनाई जा रही बहुत व्यवस्थाओं के कारणों तो नहीं है? हम शिक्षा को प्रारंभ में ही प्रत्येक नागरिक का ज़रूरी कर्तव्य और फिर अधिकार को क्यों अंजाम न दे पाये? अवैज्ञानिक जातिप्रथा का पूर्ण रूप उन्मूलन क्यों न कर पाये। हमने जब राजनीति में परिवारवाद का कुरूप के सब नुक़सान सालों देखने के बाद भी प्रश्न क्यों नहीं उठा पाये? क्यों येन केन प्रकारेण सरकार चलाने वाली बात आई, और अधिकांश नागरिकों में उसी तरह येन केन प्रकारेण अकूत सम्पति के जमा करने पर कोई थोड़ा सा भी अंकुश नहीं लगा पाये? क्यों अभी भी हम विदेशों में पढ़ने और अपने देश में करोड़ों की कमाई कर बाहर के देशों में अपने ख़रीदे महलों में बसनेवाली मनोवृति पर क्यों नहीं किसी तरह का लगाम लगा पाये?
प्रजातंत्र के कारण कैसे एक व्यक्ति या परिवार विना किसी कर्मठता, योग्यता के बाद भी देश के लिये अहितकर पद्धति अपना गद्दी पर क़ब्ज़ा किये रहे और देश की सरकार और क़ानूनी ढाँचा कुछ न कर पाये? क्यों बिहार इतना पिछड़ गया? क्या तथा कथित सरकारी महकमें इतने अक्रिय और बेईमान हो गये?
बदलते हुए भारत के बावजूद भी राज्यस्तर या संस्था विशेष को केवल अपने .०१% लोगों को पूरा लाभ लेने की छूट लेती रही?
बिहार बंगाल पिछले पचास साल में इस स्तर पर पहुँच गया जिसके बारे में सोच कर इतना कुछ लिखना पड़ा।
कहीं किसी सनातन शास्त्र में आज की तरह के हज़ारों जातियों का ज़िक्र है। गीता में अध्याय १४ में सभी व्यक्ति वस्तुओं में तीन तरह के गुणों का ज़िक्र है और अध्याय १६ में दैवी और आसुरी आचरण बताया गया है। वर्ण के केवल चार हैं और वे वैज्ञानिक हैं। आज के माहौल में वर्ण व्यवस्था जो समाज हर व्यक्ति को खुद अपनी विशेषता पर आधारित वर्ण व्यवस्था एक सार्वभौमिक रूप से मानने योग्य है।

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