(गलती माफ़ करें, उसे ठीक ले, इस उम्र में अब इस में ज़्यादा का इजाज़त नहीं देता)
प्रशान्त किशोर चुनाव जिताने के धंधे से आगे बढ़ अब बिहार की राजनीति में आने का उपक्रम कर रहें हैं। गांव गांव घूम आम वोटरो के सोच की ग़लतियों को बता रहे हैं। वह यह मान कर चल रहे हैं कि बिहार के लोगों की बदहाली में वहाँ के लोगों का कोई दायित्व नहीं है और सब कुछ सरकारों की गलती है। अगर गुजरात में बिहार का बैंक में जमा धन जा रहा है, इस दुरवस्था से उबरने का उन्हें और शायद सभी बिहारियों को दुख है, उसके लिये बिहार में रहनेवाले या बिहार के बाहर रहनेवाले लोग ही ज़्यादा बड़ा कारण हैं।
उदाहरण के लिये अब गाँव गाँव में स्कूल बने हैं, शायद उनमें अन्य ज़रूरी व्यवस्था जैसे पुस्तकालय, मैदान के साथ खेलकूद का सामान, अब तो कुछ स्कूलों में अटल टिंकरिंग लैब आदि भी हो सकता है। पर बिहार के लोगों में शिक्षित होने की अरूचि और गलत या सही ढंग से परीक्षा पास की प्राथमिकता को कौन हटा सकता है। ऐसी स्थिति में वहाँ की शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाना और हुनर प्रशिक्षण पर बल देना, अभिभावकों की, गांव में रहनेवाले पढ़े लिखे लोगों का शिक्षकों से मिलना और उनकी सहायता माँगना जरूरी तरीक़ा है। इसके बिना बिहार किसी तरह से सम्पन्न नहीं हो सकता। प्रशान्त किसोर जी को इन सबके बारे में आम लोगों में जागृति लानी होगी। आज सरकार से सब तरह की सुविधाएँ दी जा रहीं है, उनका सब तक पहुँचाने की सफलता को संभव बनाने के लिये गांव के ही जागरूक युवकों को बिना किसी लाभ की सोचे, काम करना होगा। गांव गाँव में ऐसे लोगों का पाँच दस लोगों का एक दल भी यह कर सकता है थोड़े प्रशिक्षण के बाद।
गांव के पंचायत के प्रबुद्ध लोग स्कूल परिसर और वहाँ के साधनों का व्यवहार कर गांव के हर उम्र के लोगों को साल भर छुटूटी के दिन या महीनों में अनेक तरह के शिविर लगवा सकते हैं और अपने गांव को शिक्षित और प्रशिक्षित सकते हैं। वहाँ के फैलते हुए नशाखोरी और अन्य गलत आचरणों पर लगाम लगेगा। मैं केवल चीन के प्रगति के एक घटने की कहानी बताना चाहता हूँ । एक गांव की महिला शिक्षक का काउंसिल के स्कूल की तनख़्वाह से घर का खर्चा नहीं चलता था, वह सोचती रही , कुछ हल नहीं निकल रहा था। अचानक उसके मन में आया कि मैं एक मोज़ा बनाने की मशीन ख़रीद कर मोज़ा बनाना क्यों न चालू करूँ जिसमें वह प्रशिक्षित थी। उसने वही किया, फिर नौकरी छोड़ दी। उसका व्यवसाय बढ़ता गया और अन्य औरतें अपने घरों में उससे प्रशिक्षित हो मोज़ा की मशीन ख़रीद मोज़ा बनाने लगी। एक दिन सब मिल एक कम्पनी बना दी और स्वचालित मशीनें ख़रीद ली।वह गाँव पूरे देश के कोने कोने में मोज़ा भेजने लगा। धीरे धीरे वह गांव एक छोटे शहर में परिगणित हो गया। सभी जरूरी सुविधाएँ आ गईं और पूरी दुनिया के मोज़े सप्लाई का केन्द्र बन गया। स्वाभाविकत: शहर के सभी लोग सम्पन्न हो गये। हमारे यहाँ यह क्यों नहीं हो सकता है?
पर हम एक सरकारी शिक्षक बन बिना कुछ किये खुश है।उन्हींमें से एक गलत तरह से पैसा कमा धनी बन जाता है और सभी केवल उसके चमचे बन रह जाते है।
गांव में मेरे बचपन में सब परिवारों में १५-२० विघा से अधिक ज़मीन हुआ करता था। गेहूं, धान मुख्य फसल थे। सब्ज़ी की खेती नहीं के बराबर होती थी। बरसात परदादी कुछ सब्ज़ियाँ लगा देती थी जैसे लौकी, कुम्हड़ा, तोरी आदि। साल भर आलू भी नहीं मिलता था, सुखवता आलू की सब्ज़ी ही बनती थी। परिवार बंटते गये हैं, ज़मीनें कम होती गई हैं। अब शायद औसतन ४-५ विघे ज़्यादा खेत नहीं। धान, गेहूं छोड़ सब्ज़ी, फल आदि की खेती कोई करना नहीं चाहता, फिर कहां से तो सम्पन्नता आये। लड़के पढ़ते नहीं। रामायण का गाना नहीं होता सब टीवी और अपने फ़ोन पर समय काटते हैं। अधिकांश लोग वीए, एम. ए करते हैं। विज्ञान, कॉमर्स आदि पढ़ता नहीं, क्योंकि उसमें अच्छा करने में मिहनत लगती है। आज से ३० साल पहले गांव के स्कूल से दो लड़के इंजीनियर बने, उसके बाद शायद कोई नहीं। लोग घर छोड़ छोड़ दूसरे प्रदेशों में निकल जाते हैं मज़दूरी से कमाने के लिये। हाँ, गाँव में मज़दूर मिलते नहीं, जो हैं वे भी काम करना नहीं चाहते। हमारे गाँव के पास डेहरी ऑन सोन में डालमिया के क़रीब छोटे बड़े २०कारख़ाने थे, वे यूनियन के कारण बन्द हो गये। नये कारख़ाने खुले नहीं। इंजीनियरिंग कालेज खुले नहीं, स्कूल, कालेज बन्द हो गये, लड़के लड़कियाँ केवल परीक्षा का फार्म भरते हैं और इंतहान देते हैं।
अब समाज की कुछ कुप्रथाएं के बारे में बताना चाहता हूँ। गाँवों में आम गरीब लोगों को अमीरों या बड़ी जातियों के ग़लत स्वभावों से ऊपर उठने की बात करनी चाहिये थी। दुर्भाग्यवश आज भी सभी बड़ों के गलत स्वभावों का नक़ल करते हैं, चाहे तिलक माँगने में या बेटे की शादी करने में। अबतक लोग जन्मोत्सव में शक्ति के बाहर क़र्ज़ लेकर भी खर्च करते जा रहे हैं।
दुख है कि प्रशांत जी कोई व्यवसाय नहीं हैं चलाये हैं और न वैसे उनकी सोच है। उन्हें व्यवस्था चलाने का कोई अनुभव नहीं है और पिछले चुनाव के उनकी टीवी पर के व्यस्तता से यही लगा कि अभी भी वे पुराने धंधे में ही रूचि रखते हैं, नहीं तो इतनी गहरी रूचि क्यों? और इसीलिये वे अपने भविष्यवाणियों में वे ग़लत सिद्ध हुए। एक साथ दो नाव पर पैर नहीं रखा जा सकता।
मेरी सलाह है प्रशांत जी किसी एक ज़िले के हर कोने के दस गाँवों को ले वहीं नवजवानों से उन्हेंसुधारने की कोशिश करते और उस सफलता को मॉडल बना अन्य ज़िले के अपने दोस्तों के सहायता में उनमें भी उसे चालू करते जाते।
मेरे बिचार से उनका आंदोलन लोगों के मन से दो चीजों निकाल देने का होना चाहिये था कि सरकार नौकरी दे सकती है सबको और वे घूस ले पैसा कमा सकते है।
उन्हें उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। उन्हें लोगों को अपने बच्चों को पढ़ने और हुनर सिखाने पर उतना ही मन लगाना चाहिये था जितना दक्षिण भारत के लोग कर रहे हैं। उनको आम लोगों के मन से स्थानीय राजनीति से नाता तोड़ नियमसंगत रास्ते पर चलने के लिये बताना चाहिये।