चुनाव २०२४- कुछ प्रतिक्रिया

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मोहन भागवत का भाजपा नेतृत्व के विरूद्ध रणभेरी- हिन्दूओं की कमजोरी का द्योतक
श्रद्धेय मोहन भागवत जी का इस समय इस तरह का प्रेस के ज़रिये बयान देना हिन्दूओं के अनादि कमजोरी का एक उदाहरण है जिससे हिन्दुओं का लाभ कम और नुक़सान ज़्यादा होगा। भागवत् जी राजनीतिक दल बीजेपी का बदलता चाल पहले से ही देख रहे होंगे। उन्हें इसको ठीक समय पर ही बात कर लेनी चाहिये एक मीटिंग कर। आज मुसलमानों ने चाहे बहकावे ही हो आकर एक मुश्त भाजपा के प्रत्याशी के विरूद्ध वोट देते हैं, यह एक बड़ी समस्या ऐतिहासिकरूप से चली आ रही है।मोदी इसे शायद समझते हुए भी उन्हें मौक़ा देना चाहते थे। पिछड़े वर्ग पर मानवीय नाते से अप्रत्याशित रूप सभी किया खर्चा भी उस वर्ग के मानसिकता के कारण काम नहीं आया, जो सदियों की ग़ुलामी से अपना सद्य लाभ से प्रलोभित हो जाने के कारण बीजेपी के विरूद्ध हो गये। प्रधान मंत्री के इतनी प्रतिकूल अवस्था में भी जीत को अपने पक्ष में बदल देने के प्रयास भी जो छोटी बात नहीं थी, भागवत जी को इसके लिये बधाई देना चाहिये था।
संघ और चुनाव लड़नेवाले राजनीतिक दल को समय की नाजुकता समझनी चाहिये। अगर यह पहले तय नहीं हो पाया था तो कुछ समय और प्रतीक्षा कर संघ को बीजेपी नेतृत्व से बातचीत कर भविष्य के लिये रास्ता निकालना चाहिये था। साधारण हिन्दू वोटरों को तो यही समझ थी कि दोनों हिन्दू इकाइयों में तालमेल बना हुआ है। हम हिन्दू देश में हिन्दूओं की सरकार चाहते हैं जो हिन्दूओं की प्रतिष्ठा बढ़ाये। परिवारवादी पार्टियों को रोकना और देश को परिवारों के राज्यों से बचाने में सब हिन्दूओं की सहायता चाहिये। चाहे पिछड़ा वर्ग हो या हमारे मुसलमान भाई सबको समान मौक़ा मिला है अपने को सम्पन्न बनाने का। यह अलग की सुविधा चिरस्थायी व्यवस्था तो नहीं बन सकती।
हिन्दू समाज के हित में यह जरूरी है कि इतिहास की गलती न दुहराई क्योंकि देश हित में भी यही ठीक है। संघ और दल के हर सेवक पूरी ईमानदारी से देश पूरी तरह समर्पित हों। किसका वर्चस्व हो की भावना ही नहीं चाहिये। हमारा धर्म जब संसार हर भूत (प्राणी) में एकत्व पर ही टिका है, तो फिर हमारे धर्म के नेता ही यह न समझें तो कैसे चलेगा।
हाँ, एक बहुत बड़ी संख्या में हिन्दुओं के संत और महात्मा केवल पूरे देश में फैले अपने आश्रमों, मठों, मन्दिरों में ही रहने लगे है। अधिक से अधिक उनका शहरों से सम्पर्क होता है। वहाँ के धनी लोगों काफ़ी अर्थार्जन भी होता है। पर अभी भी भारत की एक बड़ी जनसंख्या गाँवों में रहती है , जिन्हें स्कूली शिक्षा भी नहीं मिली है। उन्हें कौन अपने सनातन धर्म को सरल सहज भाषा में समझायेगा। धार्मिक संस्थानों और उनके प्रमुखों को इस खाई को भरने का प्रयास करना चाहिये। सहज स्थानीय भाषा में उपनिषदों, गीता, मानस आदि का हिन्दू धर्म के आख़िरी छोर पर रहनेवाले हर व्यक्तितक पहुँचाने का भार तो किसी न किसी को लेना होगा।

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