भगवद् गीता एवं जातिवाद

जातिवाद हिन्दुस्तान एवं हिन्दू धर्मियों के लिये अभिशाप है और भारत की सम्भावित उन्नति का सबसे बड़ा बाधक है. यह एक ख़ास वर्ण की इतिहासिक साज़िश द्वारा बनाया संक्रामक जानलेवा ब्याधि है, हिन्दूओं के कुरीतियों में सबसे ख़तरनाक है, और धर्म संरचना करनेवालों के बिचारों की बिकृति है.आज भारत की चुनाव की राजनीति इसे बढ़ावा दे रही है संरक्षण के माध्यम से और तथाकथित धर्म के ठेकेदारों का उल्लू सीधा करने के लिये.महात्मा गांधी ने इसका बिरोध किया था अपनी पूर्ण शक्ति के साथ.पर नेहरू या पटेल ने कोई प्रयत्न नहीं किया. जातिप्रथा का आधार प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रन्थों में वर्णित वर्णाश्रम है, पर हम हिन्दूओं या विश्व के लिये भगवद् गीता से ऊँचा कोई ग्रंथ नहीं समझा जाता. इसी पर हाथ रख हम अपने न्यायालयों में साक्षी देते हैं.

गीता में हर ब्यक्ति का अपने कर्म एवं स्वभाव के अनुसार वर्ण विभाग किया गया था समाज संगठन के लिये.यह विभाजन प्रत्येक व्यक्ति के अपने विशिष्ट गुणों एवं कर्म के अनुसार था केवल ब्यक्ति के माता पिता के वर्ण के आधार पर नहीं. इन चारों के स्वभाविक कर्म (भगवद् गीता अध्याय १८, श्लोक ४२,४३, ४४):

१.ब्राह्मण- शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य

२.क्षत्रिय-शौर्य, तेज़, धृति, दाक्ष्य( दक्षता), युद्ध से अपलायन,दान और ईश्वर भाव( स्वामी भाव)

३.वैश्य- कृषि, गोपालन, वाणिज्य

४.शूद्र-परिचर्यात्मक कर्म

चारों वर्णों के स्वभाविक कर्म भिन्न भिन्न है, पर सबका लक्ष्य समाज धारणा एवं सबकी आध्यात्मिक प्रगति ही है.प्रत्येक वर्ण के लिये शास्त्रों में विधान किये हुए कर्त्तव्यों का पालन, यदि उस उस वर्ण का व्यक्ति करता है तो वह व्यक्ति क्रमश: तमस एवं रजस से ऊपर उठकर सत्त्वगुणी हो सकता है-“स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।…. “अर्थात अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है।”

धर्म के ठेकेदारों ने केवल हज़ारों जातियों को ही नहीं बनाया वरन चारों वर्णों के लोगों में विभिन्न तरीक़े से तरह तरह अलगाव दिखा हर वर्ण में विभिन्न जातियां बनाई.ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अनेक तरह के -जिनमें न रोटी का रिश्ता है, न बेटी ब्याही जा सकती, हर अपने को कुलीन और दूसरे को नीच कहता है, और सभी के सामने दूसरे की निन्दा करता है.

फिर आज के तकनीकी एवं वैज्ञानिक व्यवस्था के चलते हर व्यक्ति को अपने ब्यक्तिगत जीवन में चारों वर्णों के कर्मों को कम अधिक मात्रा में करने की ज़रूरत पड़ती है. जव वह अपना टायलेट साफ़ करता है तो शूद्र का काम करता है, जब ख़र्चे का नियंत्रण करता है तो वैश्य बनता है, जब घर की रखवाली या संचालन करता है तो क्षत्रिय और ब्राह्मण बनते रहता है. देखिये सेना के अध्यक्षों को, न्यायालयों के जजों को, बड़े बड़े अध्यापकों और वैज्ञानिकों को. क्या वहाँ आप सभी अलग अलग जाति को लोगों को नहीं पाती हैं. है कि नहीं जाति बेमायने. ख़त्म किया जाये. ….इसे.

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