खाने में रुचि और खास पसंद

बचपन से ही खाने में अपना एक अलग शौक था ।हमारे गांव में सबेरे शाम चावल ही बनता था । मुझे महीन और सुगंध वाला चावल ही अच्छा लगता था ।उसिना चावल (boiled) मैं सपने में भी नहीं खा सकता था, आज भी यही हाल है । रोटी नाश्ते के लिये सबेरे बनती थी, फिर कभी कभी लिटी चोखा जो मुझे बहुत भाता था उन दिनों भी ।लिटि में भरा मशालेदार सत्तू गुड घी में मिला बहुत चाव से खाता था । पर गावों में एक और अच्छी लगनेवाली चीज होती थी चबेना या भुंजा, चावल या चिउरा को गरम बालू में भूंज कर बनता था और गुड़ के साथ फ़ाँकते थे । मेरी परदादी कटोरे में भुंजा डाल लयनु या घर में बनाये सौंधे घी का ढेला भी सबसे छिपा कर डाल देतीं थीं ।यह नाश्ता सबेरे, शाम या कुछ खाने की इच्छा होने पर कभी भी मिल जाता था ।हां, चिउरा तो दूध दही के साथ गुड़ या चीनी मिला भी बहुत अच्छा लगता था । और सर्दियों में उसी चबेने का तिलवा बना दिया जाता था । सर्दी में तो हल्दी, मेथी, या सोंठ के लड्डू भी बनते थे जो मुझे बहुत स्वादिष्ट लगते थे ।

बिरलापुर आने पर मेरी मनपसंद खानों का अभाव हो गया ।कहाँ से आये कस्तूरी चावल, मैं रोटी से ही काम चलाता रहा ।चावल जो गॉव से किसी के आने पर आता था, मेरे लिये रिज़र्व कर रख दिया जाता था ।दादी वही कभी कभी मेरे लिये बना देतीं थीं ।आलू मुझे एकदम नहीं भाते थे ।विश्‍वास नहीं होता है कि दादी खीरा का सरसों डाल मेरे लिये सब्‍जी बनाती और मैं रोटी उसके सहारे खा लेता था । १९५०-१९७० तक देश में अन्न की बड़ी कमी थी ।अमरीका और मेक्सिको से गेहूँ आता था और थाइलैंड से चावल । मैं उनमें लाल गेहूँ का आटा एकदम नहीं खा सकता था ।हाँ, उन्ही दिनों मेरी एक पसंद बना रोटी को बारीक बना दूध चीनी डाल खाना ।

कालेज के होस्टलों में मुझे कुछ पसंद नहीं आता था ।हिंदू हॉस्टल में दाल और सब्‍जी में भी चिंगड़ी मछली रहती थी उसना चावल के साथ ।किसी दिन पेट नहीं भरता था । पर हर महीने एक फिस्ट का दिन होता था, उस दिन लुचि(पूड़ी), बंगाली चना दाल, पुलाव और खजूर की मीठी चटनी बनती थी, डट कर खाते थे ।खड़गपुर में सब रसोइये आंध्र प्रदेश के थे और रसम, सॉम्भर बनाते थे, उस समय तक हमें वह एकदम नहीं भाते थे । पर कट ही गये छ साल । बिरलापुर जाने पर अच्छे बारीक चावल घी और पकौड़े के साथ बड़े स्वादिष्ट लगते थे और वह आज भी हैं, पर उसमें घी निकल गया है हृदय के बाइपास के बाद ।

हिंदमोटर्स में यमुना के आने के पहले हमारे साथ अच्छे नौकर रसोइया मिले, आलू परोठा, आलू पूरी, टमाटर भंरवा, गाजर हलवा और चिकेन चला ।चिकेन का एेसा बुखार चढ़ा कि २४वें जन्मदिन पर २४ चिकेन का भोज हुआ ।फिर यमुना आ गयीं और एक नये साल के दिन मैं फिर मांंसाहारी से शाकाहारी बन गया और आजतक हूँ ।देश बिदेश बहुत घूमा, पर काम चल गया ।पर आज भी कुछ चीजों की कमजोरी बनी हुइ है: सर्दियों में ताजे मटर की घूघनी, या दाल और भभरा एक दो बार बन ही जाता है, साथ में ग़ाजर का हलवा ।लिटटी तो अब बनती नहीं दाँत टूट जाने के बाद । चलो अगली इनिंग में ।

This entry was posted in tidbits. Bookmark the permalink.

Leave a comment