निरर्थक है बिना समझे नित्य पाठ 

हम धर्मग्रंथ का नित्य पाठ कर अपने कर्तव्य का अन्त क्यों कर देते हैं? उसके सर्जनकर्ता की इच्छा को क्यों नहीं समझते हैं? वह तो इन ग्रंथों को समाज के पढ़े लिखे या अपढ समझदार व्यक्तियों में अपने जीवन के स्वभाव एवं आचरण में बदलाव लाने के लिये लिखा गया था- चाहे वह उपनिषद् हो या गीता हो या फिर रामचरितमानस या सिख धर्म का ‘सुखमनी साहब’।  

कुछ दिनों पहले आम्रपाली के नीचे के छोटे मैदान में हम दो-तीन सबेरे बात करते करते घूम रहे थे। हम में एक सरदार जी थे जो अभी कार्य रत हैं। बात सिख धर्म की एक रोज़ाना पाठ्य पुस्तिका ‘सुखमनी साहिब’ की हो रही थी। एक मेरी पहिचान की महिला यह सुन रही थी। देखा वे ऊपर गई एक नई प्रति ले आईं और बहुत प्रेम से भेंट दिया जो हिन्दी में थी और वे समझीं मैं सब पढ़ कर समझ जाऊँगा। मैंने सादर भेंट स्वीकार की।पर घर आकर पाया कि उस पुस्तक में केवल गुरूमुखी में लिखी बानियों को हिन्दी में लिख दिया गया है। कुछ समझ नहीं सका और अपनी कमजोरी बता दाता को क्षमा मांगते हुए लौटा दिया। पर जब यह बात अपने सेक्टर ४१ के पुराने दोस्त अरोड़ा जी को बताया, तो मुझे विना बताए हुए एक और किताब अर्थ के साथ वाला मंगा दिये अपना पैसा लगा। पढ़ रहा हूँ और कुछ समझ आने लगा है-

‘काम क्रोध अरू लोभ मोह बिनसि जाइ अहंमेव।

नानक प्रभ सरणागती करि प्रसादु गुरुदेव॥६.१॥

हे नानक!(विनती कर और कह) हे गुरदेव!हे प्रभु!मैं (आपकी)शर्ण में आ गया हूँ, ( मेरे ऊपर) कृपा कर, (मेरा) काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार दू हो जाये।’

गीता के ॐअक्षर ब्रह्म की तरह संत तुलसीदास ने रामचरितमानस में बालकांड में ‘राम नाम की महिमा’ का विस्तार से  वर्णन किया है। सुखमनी भी गुरुनाम की महिमा और आज के लोगों के संसारिक सुखों में सब भूल सत् की तरफ़ से मुँह मोड़ असत् में लगे हुए लोगों के लिये है। अधिकांश सांसारिक लोग किसी मूल्य पर धन अर्जित करने और संग्रह करने, शारीरिक सुख की सब सुविधाओं को जुटाने में लगे हैं। भगवान को समझने के लिये और साथ ही समाज को सद् रास्ते पर चलने के लिये आम लोगों में अच्छे चरित्र और स्वभाव में सदाचार ज़रूरी है। इसकी कमी दिनों दिन  होती जा रही है। भगवद् गीता भी यही कहता है- 

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥16.21॥

काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार (सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को ‘नरक के द्वार’ कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए।

अब देखिये रामचरितमानस के लोकप्रिय कांड (सुन्दर कांड) में यही कहा है- 

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥38॥

हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्रजी को भजिए, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं।

हनुमान चालीसा और सुन्दर कांड बहुत हिन्दी भाषी पढ़ते हैं एक नित्य उपासना के कर्म की तरह, पर कुछ कामना मन में लिये। हनुमान चालीसा से सरल भाषा में कुछ लिखा ही नहीं सकता। उसमें भी एवं फिर रामचरितमानस के लोकप्रिय सुन्दर कांड में बहुत शिक्षाएँ  दे रखी है। कृपया ध्यान दीजिये- 

पहले हनुमान चालीसा से 

१. ‘बल, बुद्धि विद्या देहु मोही, हरहु कलेश विकार॥’

२.‘ महावीर विक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी॥’

३.‘ सब सुख लहें तुम्हारी सरना। तुम रक्षक काहू को डरना॥’

सुखमनी में राम का ज़िक्र भी है श्रद्धा से नित्य जपे जानेवाले में सुखमनी में। पर आश्चर्य तब हुआ जब आज श्री अरोड़ा ने कहा कि वे नित्य पाठ तो करते हैं, पर समझना क्यों ज़रूरी है। सभी धर्म ग्रंथों को पढ़ अगर हम समझें नहीं फिर बदलेंगे कैसे अपना आचरण? धर्म मार्ग पर चलेंगे कैसे हम सब तो उलझें ही रहेंगे सांसारिक समस्यायों या कुछ कामना की पूर्ति के काम में या अनित्य चीजों के संग्रह में बुढ़ाती तक?

हम बहुत हिन्दू एक भजन ‘ श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन….’ को गाते होंगे, पर विना समझे। देखिये उसकी आख़िरी पंक्ति है- 

‘ मम हृदयकंज निवास करू कामादिखलदल गंजनम्।’ काम इत्यादि दुष्ट समूह से हम अपने को बचा पायेंगे।

जबतक हम अपने से इन सब कमियों को दूर करने का प्रयत्न न करेंगे तो तब तक केवल पाठ करते रहने से क्या फ़ायदा होगा। केवल मन की संतुष्टि के सिवाय कि हम भी पूजा तो करते हीं हैं।

मैंने अपने बचपन में गाँव के किसी न किसी के परिवार के बाहरी बैठक रात में रामचरितमानस ढोलक झाल पर  झूम झूम गाया जाते देखा था। पर बहुत कम ही इसके अर्थ समझते थे, कहानी वाले भाग को छोड़। दो-तीन साल पहले हमारे मेघदूत के समउम्र दोस्त और विद्वान श्री महेन्द्र सिंह जी ने भी एक दिन सुन्दरकांड का विशेष घर में आयोजन किया था। मैं भी था पर शायद ही जुटे समाज में सुन्दरकांड की सीखों से कुछ ख़ास मतलब था। पाठ के व्यवसायिक ढंग-बाजा आदि के संग के रागमय पाठ को सबने सराहा। पर कभी कुछ विषय वस्तु को समझाने का न पंडित महाशय ने प्रयत्न किया, न किसी ने अनुरोध किया। क्या इस तरह के पाठ करने या सुनने से कुछ हमें कुछ  मिलेगा, या जब बुढ़ौती में भी सब विकारपूर्ण काम में लगे रहेंगे। 

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