मेरा सरकार के प्रधान मंत्री एवं शिक्षा मंत्री से एक ज़रूरी जिज्ञासा है। क्या हम एक पुरानी एवं प्रसिद्ध सभ्यता की संतान, उपनिषदों के शिष्यों के लिये बतायें इन में नीचे दिये गये आवश्यक गुणों को, जो आज की शिक्षा प्रणाली में किसी भी विषय में पारंगत होने के लिये ज़रूरी है, कुछ संशोधन के साथ स्थान दे सकते हैं? अगर वे इसे मानते हैं तो स्कूल स्तर पर जातक कथाओं या हितोपदेश की कथाओं की तरह सरल भाषा में कहानी या कविता या लेख के ज़रिये ही विद्यार्थियों को आचरण या चरित्र के लिये ज़रूरी उन गुणों को बताने का काम शुरू करना चाहिये।बिना अच्छे चरित्र या आचरण के हम अच्छे या एकनिष्ठ दुनिया के स्तर के वैज्ञानिक, इंजीनियर, या लेखक या यहाँ तक कि प्रजातंत्र की सुरक्षा के लिये अच्छे नागरिक भी नहीं बना सकते। पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे चरित्र एवं सदाचरण का स्तर नीचे जा रहा है।
कुछ उपनिषद् के बच्चों नचिकेता, सत्यकाम आदि की कहानियाँ पाठ का हिस्सा बन सकती है। उच्च या उच्चतर कक्षाओं के लिये उपनिषदों एवं गीता के पाँच से बीस श्लोकों हर साल जानकार लोगों से सही अर्थ एवं व्यक्त विचार के साथ सिखाया जा सकता है।
दुख की बात है कि गाँवों एवं शहरों के ग़रीबों को केवल सदियों से वे पंडित ही मिलते जा रहे हैं जिन्हें न उपनिषद् या गीता का एक भी श्लोक पढ़ाया गया हो। उनको शायद केवल साधारण कर्मकांड पढ़ाया जाता है जो उनकी रोज़ी रोटी का साधन है और इसके बारे में भी संदेह है। अधिकांश पंडितों एवं पुजारियों का उनका ज्ञान न के बराबर है एवं वह समाज में धर्म के बारे में ग़लत भ्रान्तियाँ फैलाता रहा है सदियों से। यही हाल गाँव एवं शहरों के करोड़ों मन्दिरों एवं धर्मस्थलों का भी जहां के पुजारी साल में अरबों की तादाद में तादाद में हिन्दू जाते हैं, वहाँ के पुजारी पंडित शायद ही उपनिषद्, गीता आदि को जानते हैं। कर्मकांड भी शायद पूरी तरह से नहीं जानते।
आज के समाज के बढ़ते विवाद, स्वार्थ, झगड़े, मिहनत न करने की आदतों, बेईमानी द्वारा कार्य सिद्धि करने का हर कोशिश आदि से बुरे आचरणों से कैसे उबरा जा सकता है? कौन उसे सीखाता है। गीता के कर्म योग को सरल तरीक़े से भी समझाया जा सकता है हमारी शिक्षा में या पुजारियों द्वारा प्रवचनों में।गीता से अन्य बताने की चीजें हैं वर्ण एवं आश्रम पद्धति, यज्ञ, दान, तप, व्यक्ति के तीन गुण, दैवी या असुरी स्वभाव – आज के संदर्भ में सही ढंग से समझाये जा सकते हैं। इसे वेदान्त के शंकराचार्य, विवेकानन्द या रामकृष्ण के विचारों के अनुसार अगर किया जाये तो अच्छा असर पड़ेगा।
यह अदभुद् लगता है कि प्रारम्भ के जिन सब धार्मिक संस्थाओं ने हिन्दू धर्म फैलाने का काम किया है विशेषकर पिछली तीन ३-४ शताब्दियों में या इससे पहले भी वे राजा, विद्वान, धनी नागरिक तक ही सीमित रह गये। कोई गाँवों एवं ग़रीबों तक तक गये ही नहीं। भक्तिकाल के लोगों ने ज़रूर यह किया। तुलसीदास तो गाँव गाँव तक पहुँच गये अपने रामचरितमानस से। पर आम शिक्षा के अभाव में इसे शान्ति एवं मोक्ष के लिये ही पढ़ा गया। पर असर बच्चों बच्चों तक गया। रामचरितमानस की जानकारी उत्तर भारत के बच्चों तक पहुँचा। और विदेश भेजे जा रहे मज़दूर भी इसे अपने साथ ले गये। यह गाया जाना लगा, अंताक्षरी में व्यवहार होने लगा। मेरे जमाने में भी यह था। हम पढ़ते थे, याद करते थे। बाद में बड़े होने पर भी मैं जब गाँव जाता कलकत्ता से गाँव के लोग हमसे रामायण पर शंका समाधान या शायद मेरे ज्ञानी परीक्षा के लिये मुझसे प्रश्न करते थे, उनमें मेरे पिताजी भी थे। स्वभावत इसका प्रभाव पड़ा पूरे जीवन पर।विवेकानन्द ने इस पर बहुत कहा है। वे चाहते थे कि उपनिषदों के सार गाँव तक पहुँचाया जाये। कुछ धार्मिक संस्थाएँ इस पर काम कर रहीं हैं। पर यह उनकी चाह के हिसाब से ज़रूरी आम आदमी, या स्कूलों तक पहुँच नहीं पा रहा है। उन्होंने कहा था-
Swamiji has said about the idea of potential divinity to enter all the strata of the society, “ These conception of the Vedanta must come out, must remain not only in the forest, not only in the cave, but they must come out to work at the bar and the bench, the pulpit, and in the cottage of the poor, with the fishermen that are catching fish, and with the students that are studying. They call call to every man, woman,and child, whatever be their occupation, wherever they may be. The way has been shown….If the fisherman thinks that he is the Spirit, he will be a better fisherman; if the student that he is the Spirit, he will be a better student. If a lawyer thinks that he is the Spirit, he will be a better lawyer, and so on.(3.2.45)
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उपनिषद्, गीता एकदम धर्म निरपेक्ष हैं एवं इनके सार को आम जनता तक पहुँचाना ज़रूरी है देश में।
काश! अब इस तरह का काम प्रारंभ किया जाता, और बिरला, अम्बानी, अदानी आदि अन्य अतिसमृद्ध उद्योगपति इसमें सहायता करते। यही कारण है कि अमरीका के पढ़े लिखे लोग उपनिषद्, गीता को भारत के हिन्दूओं से ज़्यादा जानते हैं।समय के साथ हमारी शिक्षा देश की भाषा से पूर्ण रूप से अंग्रेज़ी पर निर्भर हो गई, और उन देशों के नक़ल पर ही चलती रही।
किसी व्यक्ति के चरित्र एवं आचरण की नींव डालनें माँ-बाप,एवं घर परिवार,दोस्त, मेलजोल में रहने वाले लोग ही कारण होते हैं।नींव तो बचपन में स्कूलों में ही पड़ती है,अधिकांश शिक्षक आम नागरिक से तो अच्छे ही होते हैं। उन्हें इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिये, और आम जनता को इसमें मदद करनी चाहिये। वैसे शिक्षकों के चयन में आचरण सम्बन्धी जानकारी को भी महत्व मिलना चाहिये। आज बच्चे तीन साल या पहले भी किसी न किसी तरह के स्कूलों में चले जाते हैं। इनके आचरणों की ज़िम्मेवारी उन्हीं स्कूलों पर पड़ती है। क्या वे इसका ध्यान रखते हैं ओर माँ- बाप के बात करते हैं। साथ ही माता भी बच्चों के आचरणों के लिये सबसे बड़ी ज़िम्मेवार होती हैं।क्या गरीब से गरीब अशिक्षित महिलाओं को शिक्षा प्रणाली लीची कुछ मदद मिल सकती है? शायद एक अच्छे माँ बाप बच्चों को अच्छे आचरण सीखा कर उनके भविष्य को बेहतर बना सकते है। यह विषय बहुत महत्व रखता है, अगर समय रहते कदम उठाने का काम नहीं किया, हम एक मज़बूत राष्ट्र की कल्पना नहीं कर सकते।
The requirements for the students was prescribed in the Vedic times, particularly for studying Vedanta or more so specifically the Upanishads:
“As demanded by the Vedanta, for student approaching a teacher for the knowledge of Brahman, the four must are-
- discrimination( Viveka) between the real and the unreal.
- Renunciation ( vairaagyam) of the unreal
- Six Virtues- calmness of mind(sama), withdrawal of sense organs from their objects (dama), keeping the mind undisturbed by external objects (uparati), patient bearing of all afflictions(titiksha),faith in the words of the teacher( Shraddha), and unceasing concentration of the mind on Brahman(samadhaana), and longing for Freedom(mumukshutaa)
वैदिक काल में छात्रों के लिए आवश्यकता निर्धारित की गई थी, वेदांत या विशेष रूप से उपनिषदों के अध्ययन एवं ब्रह्म का अनुभव करने के लिए:
“वैदिक साहित्य के अनुसार, ब्राह्मण के ज्ञान के लिए एक शिक्षक के पास जाने वाले छात्र के लिए, चार गुण होना चाहिए- - वास्तविक सत्य और असत्य के बीच भेद (विवेक)।
- असत्य का त्याग (वैराग्यम्)
- और छह अन्य गुण- मन की शांति (सम), इंद्रियों को अपने विषयों से दूर करना (दम), बाहरी वस्तुओं से मन को विचलित नहीं करना(उपरति), सभी कष्टों को सहन करना(तितिक्षा), शिक्षक के उपदेश में विश्वास करना (श्रद्धा), और आत्म-निपटान, या ब्रह्म (समाधान) प्राप्ति के लिये निरंतर एकाग्रता, और स्वतंत्रता की लालसा (मुमुक्षुता)
प्राचीन कठोपनिषद् कहता है-
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥१.२.२॥
जो दुष्कर्मों से विरत नहीं हुआ है, जो शान्त नहीं है, जो अपने में एकाग्र नहीं है अथवा जिसका मन शान्त नहीं है ऐसे किसी को भी यह ‘आत्मा’ प्रज्ञा द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता।
One who is indulged always in vicious actions, and desirous of various sensual enjoyments, and who has got no concentrated mind, can’t attain Atman through the knowledge by hearing the discourse not by just one’s intelligence.
Request all parents to read it and comment on it or talk to me for any clarification.
उपनिषदों में जितने शिष्यों को ज्ञान देने के लिये तैयार होते थे विशेषकर ब्रह्मज्ञान उन्हें इन गुणों को अपने में लाने के लिये एक नियत समय के लिये इन गुणों के जीवन का आश्रम में रह अभ्यास करने के लिये गुरू निर्देश देते थे। प्रश्नोपनिषद् में पाँच अपने पास आये शिष्यों को कहते हैं, ‘ ”आप लोग पुनः एक वर्ष ब्रह्मचर्य, श्रद्धा एवं तपस्यापूर्वक व्यतीत करिये फिर जो चाहें प्रश्न पूछिये, और मैं यदि उस विषय में जानता होऊँगा तो निःसंदेह बिना कुछ गुप्त रखे आप लोगों को सब बताऊँगा।’ फिर गुरू की परीक्षा में सफल होने पर ही ज्ञान का पाठ प्रारंभ किया जाता था।देवराज इन्द्र एवं असुर राज विरोचन को भी यह करना पड़ा। नचिकेता की तो यमराज बराबर परीक्षा करते जाते थे विभिन्न प्रलोभनों से। आज के विद्यार्थियों की एसी शिक्षा में क्या हो इस पर एक प्रबुद्धों की कमिटी निर्णय ले सकती है।
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