उपनिषदों के दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष- जो दुनिया को बचा सकते थे,हैं अगर धर्म के सदस्य कम से कम यह मान लें जो बिल्कुल धर्मनिरपेक्ष दर्शन है।
भारत के ब्रह्मज्ञानी ऋषियों का दुनिया के सभी व्यक्ति-विशेष एवं अपने समाज,देश,पूरे विश्व की व्यक्तिगत एवं सामूहिक समृद्धि शान्ति के लिये अति आवश्यक संदेश है। साथ ही यह सब भूतों को श्रद्धा की दृष्टि से देखने एवं उनके अच्छे जीवन यापन पर ध्यान रखने की इस धरती की आबोहवा एवं वातावरण को हमारे जीवनयापन के अनुकूल करने का सर्वाधिक ज़रूरी आवश्यक संदेश
भी देता है। इसके अभाव का फल हमें भुगतना पड़ता है जैसे आज हमारे चारों ओर हो रहा हर समय हर जगह, क़रीब क़रीब हम सभी देश एवं मनुष्य जाति के सदस्यों के द्वारा।
उपनिषदों का पहला संदेश इसके एक अति प्राचीनों में एक ईशोपनिषद में है:
१. ‘ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्’- ‘ब्रह्म जगत के सबमें ब्रह्म का वास है।’ ‘īśā vāsyamidaṁ sarvaṁ yatkiñca jagatyāṁ jagat |‘ All in the world is enveloped by the Lord.’ आप शरीर में अशरीरी ‘आत्मा’ का वास है। एक इतने प्रसिद्ध केनोपनिषद् में इस शक्ति के बारे में कहा है-‘आत्मना विन्दते वीर्यं’,व्यक्ति को आत्मा से वीर्य (शक्ति) प्राप्त होता है; ’ātmanā vindate vīryaṁ’-by the self one finds the force to attain;(2.4)।उसकी महिमा एवं शक्ति को समझ एवं वह हर विधा में सर्व शक्तिशाली है। उसके की पूजा श्रद्धा कर अपने इस शरीर से अपनी इच्छित इच्छाओं को प्राप्त कर सकते हैं इसी जीवन है, जिसके उदाहरण इतिहास एवं आज भी भी आपके चारों ओर तरफ़ देख सकते हैं।उस आत्मा के बल से ही कहा गया है, ‘पङ्गुं लङ्घयते गिरीम्’, ‘पंगु चढ़ गिरिवर गहन’,It causes the lame to scale mountain tops’. आपके सामने है एक पैर कट जाने के बाद भी अरूनिमा सिन्हा एवरेस्ट पर चढ़ गईं।https://economictimes.indiatimes.com/magazines/panache/arunima-sinha-worlds-first-woman-amputee-to-scale-everest-now-has-a-doctorate/articleshow/66541484.cms?from=mdr.
प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफ़ेन हॉकिंग की Stephen Hawking की कहानी दुनिया हर बच्चा बच्चा जानता है-https://en.wikipedia.org/wiki/Stephen_Hawking.
दूसरा संदेश सबमें एकत्व है।
२. सभी जीवों में ब्रह्म है और मैं भी वही ब्रह्म हूँ । यह दिन चार वाक्यों में में तीन ब्रह्मवाक्य कहते हैं- १.
‘ॐ अहं ब्रह्मास्मि।’- ‘मैं ब्रह्म हूँ’ -बृहदारण्यको उपनिषद् १.४.१० यजुर्वेद से।
‘ॐ तत्त्वमसि।’- ‘वह ब्रह्म तू है’ – छान्दोग्योपनिषद् ६.८.७ सामवेद से।
‘ॐ अयमात्मा ब्रह्म।’- ‘यह आत्मा ब्रह्म है’- माण्डूक्योपनिषद् १-२ अथर्ववेद से।
सभी भूतों में एक ही आत्मा है जो ही ‘ब्रह्म’है- सभी मनुष्य, जीव, पेड़,पौधे, जलाशय, पर्वत, आदि…में बिना किसी देश,प्रदेश, जाति, धर्म, रंग, लिंग,गरीब, अमीर, मोटे पतले, बच्चा, युवा,वृद्ध आदि के अन्तर से। फिर क्यों आपसी द्वेष, कलह, युद्ध, घृणा, आदि नकारात्मक एवं हिंसा के भाव, क्यों इस बराबरी की, एकत्व की पहचान कराना सभी को हम हर एक का प्रथम धर्म हो। सबसे पहले हिन्दू समाज या अपने को हिन्दू कहने वाले नहीं समझते और समझाते। सबसे आश्चर्य की बात है कि जिनको इसे समझाने का अधिकार है वे ही इसे नहीं समझते।सदियों की ग़ुलामी एवं व्यापक ग़लत अशिक्षा का प्रसार और तथा कथित अज्ञानी पंडितों का स्वार्थ इसी शिक्षा पोषण इतना गहरे जा चुका है कि वह हमें केवल अंधकार अंधकार ही चारों ओर दिखता है। खैर, देश का विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व जिनके हाथ में है उन्हें ही यह करना होगा।
यहाँ हम इसके सम्बन्ध में प्राचीनतम ग्रंथों से हाल तक के उन दिव्य ग्रंथों से लिये श्लोकों एवं अन्य रूप में इस विषय पर ज़िक्र करूँगा ।
ईशोपनिषद् का हज़ारों साल पहले ही एकत्व भाव दो श्लोकों में साफ़ साफ़ यही निर्देश देता है-
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
ऐसा ही भाव क़रीब क़रीब सारे उपनिषदों में कहा गया है।
फिर महाभारत काल या उससे भी पहले की रचना भगवद्गीता में इस विषय ‘सबमें एक ही आत्मा की बात को बार बार विभिन्न रूपों क़रीब क़रीब सभी अध्यायों में कहा गया है। विशेषकर अध्याय ६ एवं अध्याय १३ में-
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥६.२९॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥६.३०॥
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥६.३१॥
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥६.३२॥
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥९.६॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥१३.२७॥
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥१३.२८॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥१३.३०॥
और उपरोक्त धर्मग्रंथों को बाद में अष्टावक्र रचित
अष्टावक्र गीता
सर्वभूतेषू चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥६॥
sarvabhūteṣu cātmānaṃ sarvabhūtāni cātmani |
vijñāya nirahaṃkāro nirmamastvaṃ sukhī bhava || 6 ||
Recognising oneself in all beings, and all beings in oneself, be happy, free from the sense of responsibility and free from preoccupation with ‘me’.
समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥६॥
All in the Self, the Self in All
Swami Sarvapriyananda https://youtu.be/qd-yq-j4VLw
अष्टावक्र गीता
सर्वभूतेषू चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥१५.६॥
Recognising oneself in all beings, and all beings in oneself, be happy, free from the sense of responsibility and free from preoccupation with ‘me’.
समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥६॥
इसके पहले अध्याय ६ के चौथे श्लोक में कहा है-‘अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभूतान्यथो मयि’ I am, indeed, in all beings and all beings are in Me, this the true knowledge.
Unity in Diversity: All in the Self, the Self in All
Swami Sarvapriyananda https://youtu.be/qd-yq-j4VLw