आइये कुछ नई तरह से इतिहास एवं आज को समझे- कुछ सोच, कुछ विचार
मेरे ब्रह्म मुहूर्त के अध्ययन मनन से कुछ नई सोच निकलती रहती है। ऋषि परशुराम को भी दशावतारों में एक माना जाता है। शायद वे सतयुग के थे पर त्रेता में भी दिखे। तभी तो राम से सीता के परिणय के लिये आयोजित धनुष भंग की प्रतियोगिता के आयोजन सभा में वे राम-लक्ष्मण से मिले। और धनुष तोड़ने वाले राम या लक्ष्मण पर अपनी क्रोधाग्नि बरसाईं और फिर समय की नाजुकता को समझ राम के अवतरित होने को मान देते हुए अपना धनुष दे विदा हो गये। पर शायद परशुराम को उनकी अन्दरूनी क्रोध और क्षमा भाव की हीनता एवं पिता की अनुचित आज्ञापालन कर अपनी जननी का बध करने के कारण उन्हें दूरदर्शी कवियों ने कोई स्थान नहीं दिया, न जनता ने उनको पूजा योग्य समझा, न उनका मन्दिर बना। परशुराम ब्रह्म नहीं माने जा सकते, क्योंकि ब्रह्म जातिवाद को नहीं मानता। उसकी लड़ाई किसी महान कार्य एवं एक न्याय संगत व्यवस्था बनाने के लिये होती है। अपनी ब्राह्मण शक्ति को दिखाने के लिये बना किसी अन्य उपायों को अपनाये ही क्षत्रिय राजाओं का परशुराम ने नरसंहार किया और उनके राज्यों को ब्राह्मणों को दे दिया। शायद वे पहले जातिवाद का प्रारंभ करनेवाले बने।और जिनको उन्होंने वे राज्य दिये, वे पहले लोगों से भी बुरे बन गये।अगर वे सबमें एक सबसे योग्य की तलाश करते और भारतवर्ष का राज्य दिये रहते चाणक्य की तरह, अखंड भारत की नींव डालने की कोशिश एवं सशक्त उत्तराधिकार की पद्धति छोड़ जाते तो शायद भारत ग़ुलाम नहीं बनता कभी। पर चाणक्य भी यह नहीं कर सके।चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ भी ऐसा हुआ अशोक के बाद।चाणक्य का अर्थशास्त्र भी कुछ समाधान नहीं कर सका।
द्वापर में भी परशुराम कर्ण के गुरू बने, यहाँ भी उनका वही क्रोध दिखता है, ब्राह्मण वाली दया, क्षमा उनमें थी ही नहीं; न वह ब्रह्मज्ञान था जिससे वे विद्यार्थी की चारित्रिक कमजोरी को शिष्य बनाने के पहले ही समझ सकने की शक्ति थी।ज्ञान देकर फिर श्राप देना तो समझ नहीं आता वह भी एक अवतार पुरूष ब्राह्मण का।
शायद परशुराम उन पाँचों महानों में हैं जिन्हें कुछ ग्रंथों ने अमर बताया है। पता नहीं तब क्यों नहीं वे कलियुग में आये, जब अपने देश में सबसे शक्तिशाली समझने वाले राजस्थान के राजपूत राजा एवं पंजाब की समर्थ सिख सम्प्रदाय केवल एकत्व के अभाव,अहंकार एवं आपसी द्वेष के चलते देश को विदेशी, इस्लामी, एक अंग्रेज कम्पनी को देश का मालिकाना थम्हा दिया। आक्रमणों और उसके परिणाम में देश को सदियों के लिये ग़ुलाम कर दिया। वहीं एक छोटे हिस्से के राणा प्रताप ने अकबर एवं शिवाजी ने आततायी औरंगजेब को कभी अपने पर हावी होने नहीं दिये। यहाँ भी शिवाजी के समर्थ गुरू थे उनकी शक्ति के पीछे, पर राणा प्रताप के साथ कोई चाणक्य नहीं मिला, हाँ भामासाह तो मिल गया। सदियों की ग़ुलामी के लिये सबसे ज़्यादा ब्राह्मण एवं क्षत्रिय ही ज़िम्मेदार रहे।
परशुराम से एक दम अलग थे राम …बचपन में वशिष्ठ से पूर्ण शास्त्र ज्ञान पाये उनके आश्रम में, और युवक होते ही विश्वामित्र से शस्त्र ज्ञान। करुण भाव कूट कूट भरा था बचपन से, सबके प्यारे बने। पर फिर आततायी मायावी ताड़का को मारने से भी नहीं झिझके ऋषियों के शान्ति के साथ ज्ञान की खोज में बाधक होने के कारण। आगे एक वर्षों की अज्ञानता के अंधकार में पड़ी अहिल्या को अपने सूक्ष्म ज्ञान से नया जीवन दिया। राजर्षि जनक और जनकपुर को सशक्त दामाद दे इज़्ज़त दी। पिता के धर्म विरूद्ध आदेश का भी सम्मान एवं श्रद्धा से पालन किया। तीनों माताओं को, चारों भाइयों को आदर्श इज्जत एवं प्यार दिया….सभी ज्ञानियों से ज्ञान लिया। अति पिछड़े वर्ग केवट, निसाद,कोल-भील, जटायु गिद्ध, बानर, भालू, और फिर रावण के ही भाई की सहायता ली, उन्हें भाइयों से भी बड़ा कहा, सभी संकटों के बावजूद कभी बनवास के शर्तों को नहीं तोड़ा.. और चौदह साल का लम्बा बनवास काट अयोध्या लौटने के पहले पूरा सात्विक साधुओं का जीवन जिया।युद्ध में तत्कालीन युद्ध धर्म के विरूद्ध में कुछ नहीं कहा। गृहस्थ जीवन में एक आदर्श भाई, पति, पुत्र, राजा का वैदिक धर्म के अनुसार व्यवहार किया और फिर एक पत्नी, एवं दो पुत्रों के पिता बन आदर्श स्थापित किया।
एक आश्चर्य की बात ज़रूर नज़र आती कि किसी स्वजातीय शक्तिशाली राजा ने उनके रावण के विरूद्ध धर्मयुद्ध में मदद नहीं की। शायद इसीलिये स्वयंवर में राजा जनक ने पूरे वीरों में किसी से जब वह शिव धनुष नहीं टूटा, यहां तक की हिला भी नहीं तो सबको सुना ‘बीर विहीन धरा मैं जानी’ कह दिया। और क्षत्रिय राजाओं का यही समाज एवं देश के दुश्मनों के विरूद्ध एक न हो पूरे देश को सदियों ग़ुलाम बना रखा।
मेरी राय में मौर्य साम्राज्य के चंद्रगुप्त,अशोक और बाद गुप्त काल के प्रसिद्ध राजा, फिर हर्षवर्धन, राजा कृष्णदेव राय ने राजा राम को ही आदर्श मान कर राज्य का विस्तार किया और प्रसिद्धि पाई। और हाँ चाणक्य की तरह भारत को एक अखंड साम्राज्य का पथ दिखानेवाले भी नहीं मिले। ब्राह्मणों से ब्राह्मण ज्ञान एवं शक्ति जाती रही थी एवं आज की तरह वे सभी दैवी सम्पदा को छोड़ असुरी सम्पदा में आनन्द लेने लगे और यह आकर्षण बढ़ता गया समय के साथ आजतक।
समय के साथ राज्य बंटते गये, छोटे होते गये, अनगिनत रानियाँ, जायज़ एवं नाजायज बच्चे, राज धर्म के रास्ते से हट अशिक्षित पंडितों के बताये अवैज्ञानिक शास्त्रों एवं कर्मकांडों को बढ़ावा, घड़ी लग्न के पचड़े में पड़ ये सभी राजा नपुंसक एवं स्वार्थी एवं देशद्रोही बनते गये। बहुत जयचन्द, शक्ति सिंह बन गये, मिल कर युद्ध न कर आततायियों से मिल गये, अपनी बेटी बहनों को उनको दे राज दरबार में बड़े बड़े ओहदे लेने में लगे रहे और विधर्मी बादशाहों के मंदिरों, मूर्तियों को तोड़ने में सह देते गये।
आज भी स्वतंत्रता के बाद देश में हज़ारों राजनीतिक दल बन गये हैं। इनमें एक दो को छोड़ सभी पर किसी न किसी परिवार का मालिकाना है। कैसे बचेगा यह प्रजातंत्र जहां ५०० रूपये पर वोट बिकते हैं,जब शिक्षक, डाक्टर केवल पैसे कमाने की सोच में अपने धर्म एवं कर्म को छोड़ कुछ भी करने को तैयार हैं। कहीं कोई असहायों, वृद्धों के प्रति दया भाव नहीं दिखता, न सहायता में लोग आगे आते हैं। परिवार तो टूट ही गया पूरी तरह से। हम मनुष्य का रास्ता छोड़ पशु, पक्षियों के रास्ते पर बढ़ते जाते हैं। बन, जंगल, पेड़, पौधों को नष्ट धन इकट्ठा करने में लग गये। पशुओं की सैकड़ों प्रजातियाँ को अपनी लिप्सा का शिकार बनाते गये और और उसका दंड पूरे देश को मिल रहा प्राकृतिक विपदाओं के रूप में।
कौन कब नई पीढ़ी के लिये कोई राम पैदा करेगा यह देश असुरों की बढ़ती संख्या का विनाश के लिये इस पवित्र धरती पर सत्य पर आधारित प्रजातंत्र को स्थापित करने के लिये। कब कोई शंकराचार्य आयेंगे फिर से ऋषियों के प्रतिपादित वेदान्त को जन जन तक फैलाने के लिये और लोगों को अविद्या एवं विद्या एक साथ अध्ययन करने किये। समाज के सभी वर्गों के विभेद को नष्ट कर ब्राह्मण ज्ञान दे एकत्व का पाठ पढ़ाने के लिये और सत् आचरण की ज़रूरत और उसमें श्रद्धा जगाने के लिये हिन्दू वर्ग में फैले ग़लत मूल्यों का विनाश करने के लिये। बतायें कोई आशा है? क्या दीपावली के दिये राष्ट्र को प्रकाश में ला सकते हैं आज की बढ़ती राजनीतिक कुप्रभावों से?
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४.७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४.८॥