कितनी गीता
पिछले लेख (https://drishtikona.com/2021/06/05/हमारे-पुराने-ग्रंथों-में/) को मैंने यह कहते हुए समाप्त किया था, ‘महाभारत की अन्य गीताओं के बारे में अभी और नहीं जानता। पर महाभारत के पात्रों को ले अन्य अध्यात्म के ग्रंथों में ज़रूर और बहुत गीता हैं।अगली किस्त में ‘महाभारत के बाहर की गीता’….’
अभी दो दिन पहले ही https://www.gitasupersite.iitk.ac.in पर देखा जहां अन्य गीता में अटावक्र गीता, एवं अवधूत गीता के अलावा कपिला गीता, विभीषण गीता हैं। श्री राम गीता का ज़िक्र देख उत्सुकता बढ़ी।साइट पर स्रुति गीता, उद्धव गीता भी उपलब्ध हैं मूल में, उनके संस्कृत श्लोकों का कोई अनुवाद नहीं दिया गया है।स्रूति गीता में दो अध्याय हैं-पहले में ३० एवं दूसरे में ९ श्लोक हैं।
आश्चर्य तब हुआ जब पाया कि ‘विभीषण गीता’ में तुलसीदास के रामचरितमानस का एक छोटा अंश दिया गया है लंका कांड से…राम के पास रथ न होने के विभीषण के प्रश्न के उत्तर में जो कहा। मेरे नित्य पाठ में भी है।
अगर साइट के उत्तरदायी व्यक्ति इस तरह के प्रकरण को गीता नाम देना चाहते हैं तो रामचरितमानस के कुछ और अंशों को विभिन्न नाम के गीता से पुकारा जा सकता है और वे उनको अपने साइट पर दे सकते हैं। मैं इन सबका पाठ नित्य करता हूँ। भगवद्गीता की तरह ये अंश हमारे दैनिक आचरण को अध्यात्म, सुख, शान्ति एवं मोक्ष की ओर मोड़ने में, विशेषकर हर प्रबुद्ध हिन्दी जाननेवाले भारतीयों को,आसानी से मदद करेंगे, क्योंकि इसकी भाषा समझ में आनेवाली है।
वे हैं- बल्मिकी के मुख से, राम की प्रार्थना, राम के प्रणाम एवं अपने रहने के स्थान की जानकारी माँगने पर,उनके रहने का सांकेतिक स्थान बताते हुए कहवाया है तुलसीदास ने। यह अंश अयोध्याकांड के छंदसहित १२६वे दोहा से प्रारम्भ हो १३१ दोहा तक जाता। इसमें पहले राम को ‘श्रुति सेतु पालक’ ‘जगदीस’बताया और फिर उनके लिये ‘वचन अगोचर बुद्धिपर, अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह’का व्यवहार किया गया है। जानकी सीता को माया(‘जो सृजति जगु पालति हरति रूख पाइ कृपानिधान’)।
फिर उपनिषद् की तरह की एक चौपाई है- ‘ सोई जानइ जेहि देहु जनाई’ जो मंडूकोपनिषद् के ‘यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्’ की याद दिलाता है। फिर बल्मिकी जब कहते हैं १२७वे दोहे का ‘जहं न होहु तहं देहु कहि तुमहि देखावौं ठाउं’ तो ‘ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्’ की याद दिला देता है।भारत के आज के आम व्यक्ति के लिये आचरण का ध्येय का निर्देश १२९वें दोहे के बाद १३० वें दोहे के प्रथम चौपाई तक बहुत संक्षेप में दिया गया है एवं वह सब कह देता है जिससे देश के लोगों में आज भी बदलाव आ सकता है जो आज इतने निम्न स्तर पर आ गया है। मैं उन्हें यहाँ देने का लोभ संवरण नहीं कर सकता-
“काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥1॥
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥2॥
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥3॥
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥4॥”
बाक़ी अधिकांशतः: विभिन्न प्रकार के भक्तों के लिये है। और यह यह गीता यहाँ ख़त्म की जा सकती है। क्यों न इसे ‘बल्मिकी गीता’ कह दिया जाये?
फिर अरण्यकांड के सबरी का प्रकरण ३४वें दोहे से प्रारंभ होता है। राम उसकी भेंट के जुठे बेर से तृप्त हो प्रशंसा करते हुए सबरी को बताते है नवधा भक्ति का प्रकरण जो ३४ दोहे के बाद के आख़िरी चौपाइयों से चल कर ३६ वे के बाद के दोहों में पहले ही आया है। इसके बाद सबरी राम के पद पकड़ योग अग्नि से उनमें लीन हो जाती है। नवधा भक्ति में नौ प्रकार में किसी एक को ज़िन्दगी में उतार व्यक्ति ब्रह्म लोक पा सकता है। और सब बड़े सरल लगते हैं जो सब जानते हैं। पहला है संतों का संग, दूसरा भगवान की कथा के प्रसंगों में मन को लगाना, तीसरा गुरू सेवा है, ६वें से नौवें तक में कुछ औपनिषदिक एवं गीता की तरह का निर्देश है, जिन्हें सबको बताना उचित समझता हूँ क्योंकि पता नहीं पाठक रामचरितमानस खोल इन प्रकरणों को खोजने एवं पढ़ने का प्रयास करेंगे या नहीं-
“छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥”मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है।
इस प्रकरण को ‘सबरी गीता’ का नाम दिया जा सकता है।
विभीषण गीता तो लंका कांड के ७९-८० वें दोहे ख़त्म हो जाता है।
और पर एक आख़िरी गीता भी बन सकती है उत्तरकांड के पक्षीराज गरूड द्वारा पूछे सात सात प्रश्न एवं काकभुसुंडि का उनके सप्त प्रश्नों का उत्तर। सातवें प्रश्न का उत्तर नीचे है-
प्रश्न
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
उत्तर
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥14॥
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥16॥
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥19॥
हाँ इसे आप ‘काकभुसुंडि गीता’कहेंगे या गरूड़ गीता वह आप पर है।
हाँ, दूसरी इच्छा है कि कोई विद्वान एक ‘तुलसी गीता’ पूरे रामचरितमानस से लिये छन्द, दोहे,एवं चौपाइयों पर आधारित हो । एक उचित नाम ‘राम गीता’भी हो सकता है। मैं अपने सुधी पाठकों की राय की अपेक्षा करूंगा। मेरा इ-मेल irsharma@gmail.com……