कोविद-१९ काल की दो विचार

पहला दुख

प्रवासी मज़दूर समस्या, समाधान: आज इंडियन एक्सप्रेस में एक जाने माने कृषि विशेषज्ञ अशोक गुलाटी एवं बी. बी. सिंह का लेख पढ़ा प्रवासी मज़दूरों का। ये वे लोग हैं जिनका न अपना रहने की जगह होती है, न वे उस राज्य के वोटर होते हैं, न उनको राज्य के नागरिकों की अन्य सुविधा मिलती है, न उनके बच्चों को स्कूल मिलता है वास स्थान के पास, न उन्हें सरकारी राशन सुविधा, न केन्द्र सरकार की मुफ्त सुविधाएँ, क्योंकि न उनमें अधिकांश के पास आज भी जन धन एकाउंट है, न किसी अन्य बैंक में कोई एकाउंट,न चिकित्सा की सुविधा, न कोई, जहां वे काम करते हैं वहाँ, उनके बारे में सोचनेवाला मानवीय अधिकारी, न सरकारी, न कम्पनी या ठेकेदार का। जो हैं उन्हें चुननेवाले हैं।कुछ अपना कुछ करते हैं सड़कों किनारे, या ठेलियों में घुम घुम कर। ऐसे नाई भी हैं, दर्ज़ी भी, कपड़े प्रेस करनेवाले, फल बेंचने वाले, कितना गिनाया जाये। स्थानीय पुलिस एवं अधिकारियों के अत्याचार के शिकार से बचने के लिये इन्हें ऊपर से हफ़्ता भी देना पड़ता है। आश्चर्य है कि ऐसे लोगों का न स्थानीय नगरपालिकाओं, न अन्य किसी जगह- न उनके जन्म के, न काम करने की जगह के प्रदेश में उनके बारे में कोई रिकॉर्ड होता,न केन्द्रीय व्यवस्था में। क्या करोड़ों में गिनती के इन भारतीयों के प्रति देश की सरकारें पिछले पचास सालों से पूरी उदासीनता नहीं दिखाई? क्या यही इस देश को आज़ाद करानेवाले लोगों का गुणगान वाले राजनीतिज्ञों का विचार है? क्या इनकी समस्याओं का समाधान हो ही नहीं सकता? क्या इनके परिश्रम से कमाई करनेवाले व्यवसायियों, मिल मालिकों, या अन्य सरकार तंत्र चलानेवालों का कोई दायित्व नहीं बनता?
दुर्भाग्य है कहिये या सौभाग्य, करीब ६०-७० प्रतिशत ऐसे लोग केवल कुछ उत्तरी एवं मध्य प्रदेशों से आते हैं- वे हैं बिहार, झारखंड, बंगाल, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िसा।


कैसे इन प्रदेशों की सरकारें और वहाँ के राजनीतिक व्यवस्था के ठेकेदार आज़ादी से ले आजतक कभी शर्मसार नहीं हुए और आम लोगों को बेवकूफ बनाते हुए सरकार चलाते रहे और चला रहे हैं। आज कि इस भीषण अवस्था को देखते हुए कोई हल न निकाल कर एक दूसरे को समय समय ख़राब बता अपना उल्लू सीधा किये जा रहे हैं। मोटी मोटी रक़मों को हर माह लेनेवाले सरकारी आफ़िसर,कम्पनियों, या व्यवसायों के मालिक और उनके चम्मच न केवल इनको यें सुविधाएँ देने की सम्भावना या तरीक़े के बारे सोचते या करते हैं, बल्कि इनको चूसने वालों की मदद में कोई कसर नहीं छोड़ते, क्योंकि वे मोटी रक़म से इनकी जेब भरते रहते हैं। बिचौलिये दलालों के चलते इनके रोज़ाना कमाई भी कम होती जाती है। आप प्राइवेट सिक्योरिटी गार्डों से पूछिये, घरों में काम करनेवाली महिलाओं या लड़कों से पूछिये, जो दलालों द्वारा आते हैं, यह साफ़ हो जायेगा और हम सब जानते हैं। न पहले कुछ हुआ, न आज भी कोई बदलाव दिखने की कोई संभावना लगती है। क्योंकि समय समय पर सब्ज बाग दिखाने की तरह के इन सभी के लिये दिये जानेवाले सुविधाओं हड़प जाने वाले रास्ता निकाल ही लेते हैं।सभी पॉलिसियाँ बेकार ग़लत साबित हुए हैं। न ‘मनरेगा’ में कुछ देखने लायक़ बना, न इन लोगों की आमदनी बढ़ा या बदल पाया। न सरकारी कैस सहायता भी अधिकांश इन ज़रूरतमंदों की समस्याओं को नहीं सुलझा पाई क्योंकि वे सभी आधे मन से किये गये उपाय थे, अस्थायी थे।जितनी धन राशि किसानों के नाम दी जाती है, वे सब या अधिकांश केवल ज़मीन के मालिक हैं, खेती को लिज़ पर दे रखे हैं।


क्या यह संघीय ढाँचे के चलते है? क्या केवल केन्द्र सरकार की ज़िम्मेदारी है या राज्य सरकारों की? आश्चर्य है कि दक्षिण भारत के राज्यों में भी उत्तर भारत के राज्यों के राजनीतिज्ञों की तरह के बेईमान, लूटनेवाले राजनीतिज्ञों ने कैसे वहाँ की अर्थ व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य- को उत्तर के राज्यों बहुत बेहतर बना दिया? वहाँ के जन्मे लोग भी प्रवासी हैं पर बहुत बहुत अच्छी जगहों पर और सम्पन्न।

मेरे ख़्याल से उत्तर भारत के लोगों की सदियों की पतन के राह पर जाती मानसिकता इसका कारण है। अपनी पूरानी ग़लत भ्रान्ति पूर्ण मान्यताएँ समय से दृढ़ से दृढ़ होती गई हैं। सामान्य व्यक्तियों का आचरण सम्बंधी बढ़ती हीनता कारण है। आत्मिक कमज़ोरियाँ कारण हैं। गहरी बैठी हज़ारों प्रकार की जातियों का मतभेद कारण है। धर्म और धार्मिक आचरण के प्रति गिरती आस्था कारण है। केवल अपने स्वार्थ पर पूरी निष्ठा, कारण है। ब्राह्मण सब तरह से अशिक्षित दुश्चरित्र होते गये हैं और अन्य लोग, ब्राह्मणों के आचरण संहिता को अपनाये बिना, उनकी गद्दी पर बैठ गये।
कुछ सुझाव माइग्रेंट मज़दूरों की कोविद-१९ के समय के आने-जाने-फिर आने और जाने की प्रक्रिया को बन्द करने के लिये-
१. दोनों राज्य सरकारों- जहां से प्रवासी आते हैं, और जहां काम करते हैं- को इनकी समस्याओं को सुलझाने के सक्रिय और तत्काल कदम उठाने होंगे।
२. एक देश, एक राशन कार्ड की तौर पर इनको आधार कार्ड के आधार पर जहां काम कर रोज़ी कमाते हैं वहाँ वोट देने का अधिकार देना होगा, नहीं पार्टियाँ इन की समस्याओं क्यों सुलझायेंगीं।
३. काम पाने में एक आदमी की चलाई जा रही बिचौलियों की कम्पनियों को हटाना होगा और रजिस्टर्ड कम्पनियों को ज़िम्मेदार बनाना होगा।
४. सभी औद्योगिक इकाइयों को इनको एक अच्छी स्थानीय रहने की सब निम्नतम सुविधाओं का इंतज़ाम करना होगा, चाहे उन्हें रेंट पर डॉरमेटरी या एक कमरे के आवास, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का सवाल हो।
५. हर नगरपालिका आदि को अपना स्वयं का रोज़गार करनेवाले लोगों के लिये एक कालोनी बनानी होगी उस शहर में।
६. हर राज्य सरकार ज़िला के सर्व प्रमुख को अपने ज़िला के हर पंचायत में वहाँ के लायक स्थायी रोज़गार देनेवाले गृह या लघु उद्योगों की ज़िम्मेवारी देनी होगी और इस काम को सबसे महत्वपूर्ण बनाना होगा।
-उस अधिकारी का मुख्य अपने ज़िले के हर परिवार के आय को बढ़ाने का दायित्व और उसे सभी ज़रूरी सुविधा के साथ अधिकार भी देना होगा।
-ज़िला स्तर पर इन प्रवासियों दोनों तरह के राज्यों में रिकार्ड रखा जाये। और शायद बाहर जानेवालों को उनको हुनर सीखने के लिये प्रेरित करने एवं सिखाने के काम को भी इसी ज़िलाध्यक्ष का ही काम होना चाहिये।
७. सभी इन्फ़्रास्ट्रक्चर के प्रोजेक्टों- बिल्डिंग या रोड आदि के कंस्ट्रक्शन में भी अस्थायी शीघ्रातिशीघ्र जोड़कर तैयार करने एवं इसी तरह खोलकर अन्य स्थान पर ले जा लगानेवाली सभी व्यवस्थाओं को करने को सोचना होगा।
८. केन्द्रीय सरकार को यथाशीघ्र अपनी पॉलिसियों की कमियों को सुधारने के लिये कदम उठाना चाहिये एवं साथ ही जनसंख्या पर नियत्रंण का क़ानून भी उतना ज़रूरी है। देश को निकट भविष्य में लॉकडाउन मुक्त बनाने का राष्ट्रीय मुहिम चलाना ज़रूरी है, उसके बिना देश का क्या होगा हम सोच ही नहीं सकते। https://indianexpress.com/article/opinion/columns/second-wave-covid-19-lockdown-migrant-workers-mgnrega-informal-sector-7288881/
पुनश्च: अगर किसी जानकार मित्रों को कोई सुझाव हो तो ज़रूर लिखें या मुझसे सम्पर्क करें। जिनकी सरकारों में जान पहचान हैं उन्हें बताएँ इस समस्या, अगर वे इसके भयानक रूप से परिचित हों। irsharma@gmail.com 9560186661

दूसरी बात

मेरे दुख का कारण: मैंने दो दिन पहले बिहार के गाँवों की हालत जानने के लिये अपने गाँव और ससुराल बात की थी। आता समय बहुत ही भयानक दिख रहा है। कोविद का कोई अनुशासन नहीं माना जा रहा है। अभी तिलक, शादी, यहां तक की श्राद्ध आदि में या दैनिक कार्य कलाप में कोई परिवर्तन नहीं आ रहा है। बिहार में तो स्वास्थ्य पर कोई ध्यान हीं नहीं दिया गया पिछले ७० सालों में। कुछ मूल सुविधाएँ दूर दूर तक मयस्सर नहीं। हाँ, रोड, बिजली एवं फ़ोन ज़रूर है सबके लिये शायद । मेरे गांव की आबादी १-२ हज़ार से तीस हज़ार के क़रीब हो गई, पर आज तक कोई अस्पताल नहीं, कोई डाक्टर नहीं है कहीं। आश्चर्य बावन गाँवों का मिलकर आयोजित यज्ञ में कई लाख खर्च हो जाता है सभी के योगदान से, पर उस हित जमा किये पैसे में से अगर आयोजन के गाँवों में अगर एक अस्पताल बन गया रहता, तो आज बहुत सारे गाँवों में अस्पताल होते। जैसी प्रजा, वैसा राजा। किसी तरफ़ से कोई चेष्टा नहीं की गई। यहाँ तक भी ज़िला की आफ़िस एवं कचहरियों वाले शहर में भी कोई आधुनिक सुविधा युक्त अस्पताल नहीं है। अगर जहां हैं, वहाँ की सुविधा डाक्टरों के लापरवाही एवं अनुपस्थिति के कारण बेकार हो गई। आज गाँवों में कोविद की बीमारी के लक्षण होने पर भी उसकी जाँच की कोई व्यवस्था नहीं। वैक्सीन देने की शायद मोबाइल अस्पताल की कुछ व्यवस्था हुई है। एक बार ४५ से ऊपर के लोगों को वैक्सीन लगा भी है। पर प्रतिशतता बहुत कम ही होगी। कुछ की बारी नहीं आई वैक्सीन लगवाने से अभी भी डरते हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो यह कोविद की दूसरी लहर भयानक रूप लेती नज़र आ रही है ग्रामीण इलाक़ों में। शायद अन्य प्रदेशों का भी यही हाल होगा। उत्तर एवं मध्य भारत के प्रदेशों में यही हालत होगी। कौन इन आने दिनों में सब व्यवस्था करेगा, कर पाया जायेगा या नहीं , मालूम भी नहीं? और अभी तो मंत्री भी कह रहे हैं कि तीसरी चौथी लहर भी आ सकती है और हर अगली लहर पहलेवाली से भयंकर होगी। बिहार के गाँवों रहने वाले शिक्षित युवा वर्ग एवं सम्पन्न इसमें आगे आते तो अच्छा होता, पर गाँव तो शहरों से बेकार होते जा रहे हैं आपसी सौहार्द दिखाने में, अपने को बड़ा दिखाने में। पता नहीं यह घमंड एवं कटुता क्यों बढ़ती ही जा रही है।संयुक्त परिवार ख़त्म ही हो गये हैं, जो बचे हैं केवल नाम के है। गाँव से, यहाँ तक की शहरों से भी पढ़ाई करने या व्यवसाय की सोचना नवयुवकों में ग़ायब हो गई है। जब मैंने बचपन में अपने दादाजी को विभिन्न कोशिश करते हुये पाया था अपने बेटों के लिये, पर कोई उसमें रूचि नहीं लिया, न पढ़ाई की। जो हुआ वह भगवान भरोसे। पर खैर आज की परिस्थिति पहले अपनी ज़िन्दगी में मैंने कभी देखी नहीं। काश, कोई ईमानदार प्रयत्न करता राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त के सपने की ‘ अगर गाँव शिक्षित हो जाते, वह स्वर्ग यहीं बन जाता’। उनके कल्पना की शिक्षा तो पूरे बिहार से ग़ायब है। केवल राजनीतिज्ञों ने विभिन्न रूप से आम लोगों को बेवकूफ बना अपना उल्लू सीधा किया है। नक़ली पढ़ाई, नक़ली सर्टिफिकेट, नक़ली चरित्र, नक़ली जीवन …..भगवान ग़ायब, भक्त ग़ायब, देव ग़ायब, गायें ग़ायब, भैंसे ग़ायब, रह गयी हैं केवल मशीनें, मिक्सी, फ्रिज, ऑवेन, टी.वी, वातानूकुलन की व्यवस्था……जागो, उठो, भगवान के बताये रास्ते पर चलो, कर्म करो, श्रेष्ठों के बताये रास्तों पर चलो……केवल आप सब मिल कर ही निःस्वार्थ भाव से समाज के लिये काम कर ही अपना और समाज का भला कर सकते हो जितनी तुम्हारी शक्ति हो और विश्वास मानों वह तुम्हारी शक्ति असीम है, समझो अपने को, अपनों को…..
अगर मेरी बात अच्छी न लगे तो एक वृद्ध अशक्त की बात जान माफ़ कर देना……

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