आत्मा- ब्रह्म कैसे दिखते हैं
हमारे उपनिषदों के ऋषियों ने अपने जिस ब्रह्म को देखा उसका वर्णन किया है। हममें अधिकांश इसको मानने को तैयार न होंगे। पर अगर हम परमहंस रामकृष्ण, विवेकानन्द के निकटस्थ लोगों की अपने अनुभवों पर लिखी किताबों में उनकी समाधि के अन्तिम लक्ष्य को पाने के विवरण को पढ़े, या उनके बाद के बहुचर्चित परमहंस योगानन्द द्वारा लिखित‘An Autobiography of Yogi’ को पढ़े तो यह विश्वास करना पड़ता है कि ब्रह्म को लोगों ने अपनी एकनिष्ठ भक्ति एवं योग साधना के द्वारा देखा है। ऐसे अद्भुत ऋषि हर काल में, हर देश में, हर धर्मों में हुए। अत: कैसे इस को हम नकारें।
अलग अलग उपनिषदों में जिन्हें मैं अब तक देख चुका हूँ इस यात्रा में, वहाँ से निम्नलिखित जानकारी मिली-
श्वेताश्वतरोपनिषद् के रचयिता ऋषि ने पहले ही अध्याय में लिखा है कैसे महान सिद्ध ऋषियों ने ब्रह्म को देखा एवं पाया अपनी पूर्ण आत्मशक्ति युक्त एकनिष्ठ साधना के द्वारा-
‘ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्ह्देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्।
यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः॥१.३॥
तब ऋषियों ने एकाग्रचित्त होकर ध्यान योग में स्वयं भगवान की सृजन-शक्ति को देखा जो अपने गुणों में छिपी हुई थी। ये वही एकमेवाद्वितीयं हैं जो काल, आत्मा तथा सभी कारणों के अधिपति हैं। The sages, absorbed in meditation through one-pointedness of mind, discovered the creative power, belonging to the Lord Himself and hidden in its own gunas. This is that Lord who is one without second and who rules over all those causes – time, the self and the rest.
ईशोपनिषद् में ब्रह्म या ईश्वर का स्वरूप ऋषि बताते है,‘स्वयम्भुः पर्यगात् अकायम् अस्नाविरम् अपापविद्धं शुक्रम् अव्रणं शुद्धं कविः मनीषी परिभुः। सः याथातथ्यतः शाश्वतीभ्यः समाभ्यः अर्थान् व्यदधात्’- ‘वह पुरुष ही सर्वत्र व्याप्त, वह तत् ज्योतिर्मय, शरीर-रहित, अपूर्णता के चिह्न या दाग से शून्य, स्नायु एवं नस-नाड़ी से रहित और शुद्ध है एवं पाप से बिधा नहीं है। सर्वदर्शी, मनीषवान् वह एकमेव जो सर्वत्र सब कुछ हो जाता या बन जाता है, उस स्वयंसत् पुरुष ने ही सनातन वर्षों से, अनादि काल से सभी पदार्थों को उनके स्वभाव के अनुरूप पूर्णतया ठीक-ठीक, यथातथ रूप में व्यवस्थित कर रखा है।’
कठोपनिषद् में यमराज ब्रह्म ज्ञान ही के एकमात्र अभिलाषा लिए सभी आसक्त करनेवाले प्रलोभनों को ठुकराने पर नचिकेता को बताते है ब्रह्म स्वरूप,’..अशव्दम् अस्पर्शम् अरुपम् अव्ययं तथा अरसं नित्यम् अगन्धवत् च भवति अनाद्यनन्तम् महतः परं ध्रुवं…’(१.३.१५)- जिसमें न शब्द है, न स्पर्श और न रूप है, जो अव्यय है जिसमें न कोई रस है और न कोई गन्ध है, जो नित्य है, अनादि तथा अनन्त है, ‘महान् आत्मतत्त्व’ से भी उच्चतर (परे) है, ध्रुव (स्थिर) है।
मंडूकोपनिषद् में ऋषि कहते हैं, ‘यत् तत् अद्रैश्यम् अग्राह्यम् अगोत्रम् अवर्णम् अचक्षुः श्रोत्रम्। तत् अपाणिपादं नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तत् अव्ययं’- वह’ जो अदृश्य है, अग्राह्य है, सम्बन्धहीन (अगोत्र) है। अवर्ण है, चक्षु तथा श्रोत्र रहित है, जो अपाणिपाद (हाथ-पाँव रहित) है, नित्य है, विभु है, सर्वगत है, सब में ओतप्रोत है, अतिसूक्ष्म है, अव्यय है, जो समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का उद्गम-स्थल (योनि) है….
प्रश्नोपनिषद में भी आता है-
परमेवाक्षरं प्रतिपद्यते स यो ह वै तदच्छायमशरीरम्लोहितं शुभ्रमक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वो भवति;
‘जो उस छायाहीन, वर्णहीन, अशरीरी शुभ्रे एवं अक्षर ‘चैतन्य’, ‘जिवात्मा’ को जानता है, वह उस ‘परम अक्षर’, ‘सर्वोच्च तत्त्व’ को प्राप्त करता है।
हे सौम्य वत्स, वह सर्वज्ञ मनुष्य स्वयं ही ‘सर्वम्’ बन जाता है।
तैत्तरीयोपनिषद से
भूः भुवः सुवः इति एताः तिस्रः वै व्याहृतयः उ…तत् ब्रह्म सः आत्मा ..शिक्षावल्ली .५.१
‘भू’ ‘भुवः’ ‘तथा’ ‘स्वः’ ये तीन ‘विशेष शब्द’ (व्याहृतियाँ) हैं ‘उसके’ नाम के। …..वह ‘ब्रह्म’ है, वह ‘आत्मा’ है।
ओमिति ब्रह्म। ओमितीदं सर्वम्।…८.१.॥’ओम्’ ही ब्रह्म है, ‘ओम्’ ही यह समस्त विश्व है।
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विज्ञानात्मा सह देवैश्च सर्वैः प्राणा भुतानि संप्रतिष्ठन्ति यत्र।
तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति ॥१.४.११॥
सौम्य वत्स! जो उस ‘अक्षर’ तत्त्व को जानता है जिसमें विज्ञानात्मा, अर्थात् बोधात्मक चैतन्य, समस्त देवगण, प्राणवायु एवं सभी महाभूत समाविष्ट हो जाते हैं, वह सर्वज्ञ है, वह सम्पूर्ण ‘विश्व’ को जानता है।
तिस्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रयुक्ता अन्योन्यसक्ताः अनविप्रयुक्ताः।
क्रियासु बाह्यान्तरमध्यमासु सम्यक्प्रयुक्तासु न कम्पते ज्ञः ॥१.५.६॥
ये मात्राएँ, परस्पर संलग्न एवं अविच्छेद्य, जब तीन मात्राओं के रूप में प्रयोग की जाती हैं तब वे मृत्युमती, मृत्यु की सन्तान-रूप होती हैं; किन्तु ज्ञानी पुरुष इससे विकम्पित नहीं होता; कारण, त्रिविध कर्म होते हैं, बाह्यकर्म, आभ्यन्तर कर्म तथा दोनों के मिश्ररूप कर्म, और वह निर्भय होकर अकम्पित, अविचलित भाव से इन तीनों कर्मों को उचित रूप से करता है।
यत् शान्तम् अजरम् अमृतम् अभयं परं तं विद्वान् ओङ्कारेण आयतनेन एव अन्वेति। च इति ॥१.५.७॥ विद्वान् पुरुष ‘ओंकार’ में स्थित होकर ही उस लोक को प्राप्त करते हैं, वे उस ‘परमा शान्ति’ को भी प्राप्त करते हैं जहाँ जरा का प्रभाव है तथा ‘अमृतत्व’ के द्वारा भय से मुक्ति मिल जाती है।
स यथेमा नध्यः स्यन्दमानाः समुद्रायणाः समुद्रं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिध्येते तासां नामरुपे समुद्र इत्येवं प्रोच्यते।
एवमेवास्य परिद्रष्टुरिमाः षोडशकलाः पुरुषायणाः पुरुषं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिध्येते चासां नामरुपे पुरुष इत्येवं प्रोच्यते स एषोऽकलोऽमृतो भवति १.६.५॥
जिस प्रकार प्रवाहित होती हुई नदियाँ सागर की ओर अग्रसर होती हैं, किन्तु सागर में पहुँचकर वे उसी में विलीन हो जाती हैं तथा उनके नाम और रूप समाप्त हो जाते हैं और सब कुछ केवल सागर ही कहलाता है, इसी प्रकार इस द्रष्टारूप ‘चैतन्य’ की षोडश कलाएँ ‘पुरुष’ की ओर अग्रसर होती हैं एवं जब वे उस ‘पुरुष’ को प्राप्त कर लेती हैं तब वे ‘उसी’ में विलीन हो जाती हैं तथा उनके अपने नाम-रूप समाप्त हो जाते हैं और इस समस्त को एकमात्र ‘पुरुष’ कहा जाता है; तब ‘वह’ कला (अंश) रहित एवं अमृत-रूप हो जाता है।
अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन् प्रतिष्ठिताः।
तं वेध्यं पुरुषं वेद यथा मा वो मृत्युः परिव्यथा इति ॥१.६.७॥
जिस प्रकार रथ के चक्र की नाभि में समस्त अरे अवस्थित होते हैं, उसी प्रकार ‘वह’ है जिसमें ये कलाएँ अवस्थित हैं ‘उसी’ को ‘पुरुष’ समझो जो कि ज्ञान का चरम लक्ष्य है, इसी के द्वारा तुम मृत्यु एवं उसकी व्यथा से मुक्त होओगे।
उसी ब्रह्म शक्ति के रूप का विशद वर्णन हम भगवद्गीता के पूरे एकादशोऽध्याय -‘विश्वरूपदर्शनयोग’ में देखतें हैं, जिसको देखने एवं सुनने का सौभाग्य अर्जुन और साथ ही सारथी संजय को मिलता है-
संजय कहते हैं उनके कृष्ण के द्वारा दिखाये विश्वरूप के बारे में-
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥११.१२॥
यदि आकाश में सहस्रों सूर्यों की ज्योति एक साथ उठी हुई हो तो वह ज्योति उस महापुरुष के देह की ज्योति के सदृश कदाचित् ही हो सके ।
Such is the light of this body of God as if a thousand suns had risen at once in heaven.
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फिर अर्जुन बताते हैं अपना अनुभव-
पश्यामि देवांस्तव देव देहे
सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-
मृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥
आपकी देह में समस्त देवों को और विभिन्न जातीय जीवों के समूहों को, कमल रूप आसन पर बैठे हुए सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, शिव, एवं विष्णु को और समस्त ऋषियों को और दिव्य सर्पों को देखता हूँ ।
I see all the gods in Thy body, O God, and different companies of beings, Brahma, Shiva, and Vishnu seated in the Lotus, and the Rishis and the race of the divine Serpents.
जब कृष्ण सब तरह से समझा चुके तो पहले अपनी विभूति की विस्तृत जानकारी दी १० वें अध्याय में , पर उसके बाद भी अर्जुन ने साक्षात् देखने की इच्छा ज़ाहिर की तो पूरे ११वें अध्याय में अपना विश्वरूप ही दिखा दिया, और तब तक दिखाते रहे विभिन्न तरह से, जब तक अर्जुन उनसे अपने को सामान्य सखा सारथी के रूप में लौट आने की प्रार्थना न की।