सामयिक अध्यात्म

भारत हर दिन 11.72 लाख COVID-19 टेस्ट कर रहा है…..यह अपने आप में एक मिसाल है कि चाह होने पर भारत के लिये सब संभव है….इस लिये देश के हर व्यक्ति को समस्याओं से लड़ने की इच्छाशक्ति होनी ज़रूरी है….इसे हर माँ बाप के अपने बच्चों संस्कार और आचरण सीखाने पर निर्भर करता है…..शिक्षक का अपने छात्र के प्रति, मालिक का अपने मज़दूर के प्रति यही भावना रखनी चाहिये….हमारे देश के ऋषियों ने हज़ारों साल पहले कहा था यही सब पूरी निष्ठा से ज्ञानी खोज के बाद ….. तैत्तिरीय उपनिषद् कहता है….
“युवा स्यात्साधुयुवाऽध्यायकः। आशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठः। तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात्।
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yuvā syātsādhuyuvā’dhyāyakaḥ| āśiṣṭho dṛḍhiṣṭho baliṣṭhaḥ | tasyeyaṁ pṛthivī sarvā vittasya pūrṇā syāt|
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युवाओं को चाहिये कि वह साधुचरित, बहुत अभ्यासी, आशावान, दृढनिश्चयी, और बलसम्पन्न बने। ऐसे युवकों के लिये यह सारी पृथ्वी द्रव्यमय बन जाती है।
……
दुर्भाग्यवश ग़ुलामी के दिनों में विदेशियों ने उन ऋषियों के अनुमोदित जीवन आचरणों और जीवन ध्येय को भूला अपनी सभ्यता के रंग में रंगने की शुरूआत की जिसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे राजनेताओं ने फलने फूलने दिया…..और यह रंग हर रोज़ गहराता जा रहा है….जो देश जंगली थे वे हमें क्या सीखा सकते हैं…..उन्हीं की देखा देखी हम उनके ग़लत तरीक़ों एवं आचरणों को अपनाते जा रहे हैं और अपने को दूसरों से आगे समझते हैं…..आम ज़िन्दगी कुत्सित होती जा रही है….धन की लालसा में दादा दादी, माँ बाप का भी ख़्याल न कर उन्हें मार डालने की कहानियाँ भी पढ़ने सुनने को मिलती है ……देश की युवा पीढ़ी से बहुत कुछ उम्मीद थी…पर निराशा गहराता जा रहा है….
हम इसको ख़्याल क्यों नहीं करते कि यह ज़िन्दगी केवल त्याग करते हुए चलने पर ही चल सकती है…फिर गांधी का भी सबसे प्रिय ईशोपनिषद् का श्लोक जो उनके नित्य पाठ में था यही कहता है…

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥१॥
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जगत के सब चल अचल जीवों में ईश्वर हैं और यह जगत उनका बनाया है. तुम त्याग पूर्वक ही भोग करो, किसी अन्य के धन का लोभ न करो।
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The Lord is enshrined in the hearts of all.
The Lord is the supreme Reality.
Rejoice in him through renunciation.
Cover nothing. All belongs to the Lord.

2

आज के दिन २९.८.२०२०, एक और जन्मदिन

आज के दिन मैं अपने जीवन के कुछ सत्य सभी को बताने की कोशिश करने की धृष्टता कर रहा हूँ…
पूरे जीवन की उपलब्धियों केवल दैव कृपा से मिली…और कठिन परिश्रम से …घर से न ख़ास धनी थे, न शरीर से बहुत मज़बूत और न कोई ख़ास मेधा…गाँव में मैंने अनुभव किया कि सब जो साथ थे वे मुझसे बहुत अच्छे थे अंकगणित में भी और भाषा में भी.स्कूल में बंगाली माध्यम में मैं केवल एक ही हिन्दी माध्यम का छात्र छात्र था तो शिक्षकों की बातें बहुत अच्छी तरह समझ भी नहीं आती थी….पर फिर भी प्रथम होता रहा…उसके बाद प्रेसीडेन्सी कालेज में दाख़िला मिल गया १९५५ में, जहां मेरे सभी दोस्त बहुत तेज थे मुझसे….वहीं से आई.आई.टी, खडगपुर के लिये कोशिश की तो १९५७ में दाख़िला भी मिल गया मेकेनिकल इंजीनियरिंग में….पर सच बताऊँ इन दोनों कालेजों में अंग्रेज़ी माध्यम होने के कारण पूरे चार सालों में पढ़ाये गये विषयों में कोई ख़ास पैठ नहीं हुई….हिन्दुस्तान मोटर्स, उन दिनों के सबसे बड़े कारख़ानों में एक में एक था, काम भी मिल गया १९६१ में ४०० रू. महीने पर…हिन्दुस्तान मोटर्स में तो मेरे नीचे ऊपर बहुत तेज लोग थे पर वहाँ से भी एक सम्माननीय पद से १९९७ में रिटायर हो गया, सभी सदा मेरे तकनीकी ज्ञान और अथक मिहनत का आदर किये…यहाँ मेरा मंत्र था शुरू से ही काम सीखना अपने हाथों काम कर, बड़ों से, एवं सभी तत्तसंबधी प्राप्त लिखित चीजों को हर जगहों से पढ़ कर…अब पिछले एक डेढ़ साल से अध्यात्म का भूत सवार हो गया है….और उसी में अधिकांश समय जाता है….पर एक कठिन प्रयास और उन शिक्षाओं को ज़िन्दगी का हिस्सा बनाने का चल रहा है , यहाँ भी ईश्वर का ही आशा है. विश्वास है यहाँ भी दैव कृपा मिलेगी ही, क्योंकि मैं तो एक नौसिखियां हूँ, अपनी गलती या उनकी इच्छा के कारण बहुत देर से इसमें आया हूँ, पर परिश्रम कर रहा हूँ सब मानवीय कमज़ोरियों के साथ.. सहारा उपनिषद् के इस श्लोक की दूसरी पंक्ति…
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
‘यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌’।।
-कठोपनिषद् १.२.२३
आत्मा जिसे चाहती है उसी को यह’ लभ्य है, अपना दर्शन देती है.

और फिर तुलसीबाबा जब अयोद्ध्या कांड में बाल्मिकी के मुख से राम को उनके मुख से राम को कहलाती है..
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
शायद मैं भी उनकी कृपा पा जाऊँ. और यह इस बाक़ी जीवन में नहीं दिये तो अगले किसी जन्म में देंगे….
मैं तो बस उपनिषदों के इन श्लोकों का जाप करता रहूँगा…क्योंकि जप भी एक मार्ग बताया गया है….
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥१॥
जगत का सब कुछ ईश्वर का है, उनका बनाया है. तुम त्याग पूर्वक ही भोग करो, किसी अन्य के धन का लोभ न करो।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् सतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥
उत्तम कर्मों को करते हुए इस जगत् में सौ वर्षों तक जीने की इच्छा रखो। ऐसे कर्म तुम वमें लिप्त न होंगे, उत्तम कर्म से अन्य कोई मार्ग नहीं है।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्, विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो, भूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम ॥१८॥
हे अग्नि देव! हमें परमेश्वर की सेवा में पहुँचाने के लिये शुभ मार्ग से ले चलिये; आप सम्पूर्ण कर्मों को जाननेवाले हैं, हमारे इस मार्ग से सभी पाप दूर कर दीजिये, आपको बार-बार नमस्कार करते हैं।

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