सत्यकाम की कहानी

छान्दोग्योपनिषद् सामवेद के छान्दोग्य ब्राह्मण में है अध्याय ४ के चौथे खंड से आरम्भ होती है सत्यकाम की कहानी और इसके रचना का समय आठवीं से छठवीं ई.पू.का माना जाता है। हम आज जब उस समय की एक कथा कहते हैं तो पश्चिम के विद्वान और उनकी विचार के क़ायल लोग उसे उस समय के असभ्य अशिक्षित समाज की बात मानेंगे. पर छान्दोग्य उपनिषद् की यह कथा उनका और उनके द्वारा फैलाए हर समझदार पाठकों को अपनी गलती का अहसास करायेगा.. अपने अज्ञान का भी ….अगर इसके पीछे का पात्रों के आत्मबल का विचार करें. सत्यकाम एक क़रीब बारह साल का बालक इसका नायक है, पर उसकी प्रेरणा उसकी सत्यनिष्ठ माँ हैं एवं उनकी साहसिकता को आदर करनेवाले सत्यकाम के ब्राह्मण गुरू हैं जो परशुराम या द्रोण के स्तर के ब्राह्मणों से बहुत ऊपर के हैं…. सत्यकाम का पालन पोषण करनेवाली गृहस्थी की एकमात्र मालकिन माँ जाबाला है. उन दिनों की उच्चतम परम्परा के अनुसार एक दिन बालक सत्यकाम माँ के पास आकर उनसे कहता है,”पूज्य माँ, मैं सोचता हूँ कि अब मेरी वह उम्र हो गई जब मुझे एक गुरू के घर जाकर उनके संरक्षण में ब्रह्मचर्य पालन करते हुए ज्ञानार्जन के लिये रहना चाहिये. प्रथानुसार वे मुझसे पूछेंगे कि मैं किस कुल का हूँ, गोत्र क्या है? कृपया इसे बताइए जिससे मैं उन्हें उनके जिज्ञासा का उत्तर दे सकूँ.” जाबाला ने गम्भीरता से बिना हिचकिचाहट के उत्तर दिया, “बेटा, मुझे नहीं मालूम कि तुम किस कुल के हो. जब तुम्हारा जन्म हुआ उस समय मैं जवान थी और अलग अलग घरों में उनके लोगों की सेवा में व्यस्त रहती हुई उनका काम करती थी अपने भरण पोषण के लिये. मैं तुम्हारे कुल के बारे में कुछ भी नहीं जानती.पर तुम्हारा नाम सत्यकाम है और मेरा जाबाला, जब तुमसे गुरू प्रश्न करें, क्यों नहीं तुम अपना परिचय सत्यकाम जाबाला के नाम से दो?” सत्यकाम हारिद्रुमत के पुत्र गौतम के पास जाकर आग्रह करते हुए कहा,”पूज्य गुरू श्रीमान,मैं यहाँ ब्रह्मचर्य पूर्वक आपके सान्निध्य में रहने आया हूँ.” गौतम ने पूछा, ‘ सौम्य! तू किस गोत्र का है?” सत्यकाम ने उत्तर दिया, “ भगवत्, मैं किस गोत्र का हूँ उसे नहीं जानता. मैंने माता से पूछा था. उनका उत्तर था, “युवावस्था में जब कि मैं बहुत काम-धंधा करनेवाली परिचारिका थी, और बहुत घरों में काम करती थी, मैंने तुम्हें जन्म दिया. मैं नहीं जानती कि तू किस गोत्रवाला है? मैं जाबाला नामावली हूँ और तू सत्यकाम नामवाला है. अत: हे गुरों! मैं सत्यकाम जाबाल हूँ.’गौतम ने प्रसन्नता से कहा-‘ ऐसा स्पष्ट भाषण ब्राह्मण छोड़ दूसरा नहीं कर सकता. प्रथा के अनुसार समिधा ले आ, मैं तुझे अपने संरक्षण मे रख लूँ…..” आज कितनी ऐसे महिलाएँ होंगी जो जाबाला की तरह इतनी इतनी स्पष्टता से अपने पुत्र से यह कह सके? …..हम में या शिक्षकों में कितने ऐसे जो ऐसे बालक के उतनी उदारता से पेश आयें जिस तरह आचार्य गौतम आयें…यह समाज का ज्ञान सीमा है कि दो तीन हज़ार सालों के बीत जाने पर भी हिन्दू समाज मानवीय उदारता में इतना पिछड़ा है…कहानी आगे जाती है, पर वह सत्यकाम की ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति की है प्रकृति, पशु, पक्षियों से….फिर कभी…..

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