अध्यात्म यात्रा की यादें

हिन्दुस्तान मोटर्स में काम करते समय मुझे एक दिन हावड़ा स्टेशन पर महात्मा गांधी साहित्य की किताबों की एक छोटी दुकान खुली दिखी नई नई….मैंने वहीं से एक छोटी पॉकेट में आनेवाली पुस्तक ख़रीदी थी ‘आश्रम भजनावलि’. पहली पुस्तक जब याद नहीं खो गई या पूरी तरह फट गई तो आज की मेरे पासवाली प्रति को जाकर ख़रीद लाया था और अभी तक बचा रखी है.इसने मुझे अध्यात्म की तरफ़ रुझान बढ़ाने में मदद की. यह नवजीवन प्रकाशन मन्दिर से १९२२ में पहले प्रकाशित हुई. मेरी पुस्तक में ८-२-‘४७ की मो.क. गांधी की प्रस्तावना है, जो प्रसादपुर में लिखी गई थी. मुझे मालूम नहीं प्रसादपुर कहाँ है, पर गांधी उन दिनों वहीं होंगे.इसके अनुसार संग्रह करनेवाले कै० खरे शास्त्री थे. संस्कृत श्लोकों के अर्थ भाई किशोरलाल मशरूवाला ने लिखा था.गांधी ने लिखा है, ‘इस संग्रह में किसी एक सम्प्रदाय का ख़्याल नहीं रखा गया है.सब जगह से जितने रत्न मिल गये, इकट्ठे कर लिये गये हैं. इसलिए इसे काफ़ी हिन्दू, मुसलमान, खि्रस्ती पारसी शौक़ से पढ़ते हैं.’ मैं बरसों से इसके ‘नित्यपाठ’ एवं ‘प्रांत:स्मरणम्’ का पाठ करता रहता हूँ.


आश्चर्य है कि नित्यपाठ का एकमात्र श्लोक ईशोपनिषद् का पहला श्लोक है, जिसके बारे में महात्मा गांधी कहे थे कि अगर किसी कारण हिन्दू शास्त्र के प्राचीन सभी ग्रंथ नष्ट हो गये रहते और किसी तरह केवल एक यह श्लोक बच गया रहता तो भी हिन्दू धर्म सनातन ही रहता.वह श्लोक है-
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥१॥
जगत के सब चल अचल जीवों में ईश्वर हैं और यह जगत उनका बनाया है. ‘तुम त्याग पूर्वक ही भोग करो, किसी अन्य के धन का लोभ न करो।

और प्रांत:स्मरणम् का पहला श्लोक पूरे उपनिषद् का सबसे महत्वपूर्ण खोज लिये है, जो मांडूक्य उपनिषद्,जिसे शंकराचार्य ने सर्वश्रेष्ठ कहा था, से उसका पूरा सार लिए…हुए है:
प्रात: स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं
सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् ।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं
तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघ॥ – श्रीमच्छंकरभगवत: कृत
मैं प्रात:काल, हृदय में स्फुरित होते हुए आत्मतत्त्व का स्मरण करता हूँ, जो सत, चित और आनन्दरूप है, परमहंसों का प्राप्य स्थान है और जाग्रदादि तीनों अवस्थाओं से विलक्षण है, जो स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत अवस्था को नित्य जानता है, वह स्फुरणा रहित ब्रह्म ही मैं हूँ, पंचभूतों का संघात(शरीर) मैं नहीं हूँ। ‘तुरीयम्’ चौथी आत्मा की अवस्था है स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत अवस्था से भी परे….

उम्र के इस मोड़ पर इन्हीं सब के बारे में पढ़ने सोचने में दिन निकल जाता है और समय छोटा लगने लगता है….तुरीयम् के बारे में आधुनिक विज्ञानी भी आज चिन्तन कर रहे हैं और आश्चर्य करते हैं कि हज़ारों साल पहले कैसे भारतीय ऋषि यहाँ तक पहुँचे….हम अपनी धरोहर से कुछ सीखने की कोशिश क्यों नहीं करे…जो एक सुखी शान्तिमय जीवन जीने में मददगार हो.

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