भगवद् गीता एवं तुलसीदास कृत रामचरितमानस

श्री श्री परमहंस योगानन्द द्वारा रचित गीता के अध्याय १२ के १२वें श्लोक (जिसका मूल एवं हिन्दी अर्थ है-

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥

अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है॥12॥)

के अर्थ एवं व्याख्या में तुलसीदास की कृति का उल्लेख है. अंग्रेज़ी एवं हिन्दी दोनों में केवल हरी प्रसाद शास्त्री की रचना का गद्य में अर्थ दिया गया है..तुलसीदास ने गीता के बहुत से श्लोकों को रामचरितमानस मानस में अपनी भाषा में प्रस्तुत किया है. ‘यदा यदा हि धर्मस्यग्लानि भवति….’ का तुलसीदास की चौपाई, ‘जब जब होहीं धर्म के हानि….’प्रसिद्ध है. मेरी इच्छा १२वें श्लोक की मूल तुलसीदास द्वारा तर्जुमा उनकी चौपाई या दोहा में जानने की है. मेरे मित्र श्री राम निवास चतुर्वेदी आजकल विदेश में हैं- शायद वे बता सकते थे…अगर पढ़नेवालों में कोई इसे बता दे तो मेरी उत्सुकता जल्द ख़त्म हो जायेगी, नहीं तो चतुर्वेदी जी का इंतज़ार करना पड़ेगा….वैसे कर्म फल के त्याग का जीवन बनाने का अभ्यास ज़रूरी है अगर हम सच में शान्तिपूर्ण जीवन चा होते हैं….

“ The ornament of a servant of God is devotion; the jewel of devotion is consciousness of nonduality.

“ The ornament of knowledge is meditation; the decoration of meditation is renunciation; and the pearl of renunciation is pure, unfathomable Shanti.

“ The pure and unfathomable Shanti cuts the root of all misery. He who holds Shanti in his heart dwells in a sea of Bliss. All sins that breed suffering, anxiety, and anguish disappear, together with all limitations….

“ Know him to be perfect who is most peaceful, who is taintless and free from all personal desires, whose mind vibrates with Shanti.”

हिन्दी में योगानन्दजी के पुस्तक का अनुवाद

“ईश्वर के सेवक का भूषण भक्ति है,भक्ति का गहना अद्वैत की चेतना है।

“ज्ञान का आभूषण ध्यान है, ध्यान का अलंकरण त्याग है, और त्याग का मोती रूपी फल, विशुद्ध अथाह शान्ति है।

“विशुद्ध एवं अथाह शान्ति सब दु:खों की जड़ को काट देती है।जो अपने हृदय में शान्ति को धारण करता है, वह परमानन्द के सागर में बसता है।सभी पाप जो दु:ख, चिन्ता तथा पीड़ा उत्पन्न करते हैं, अपनी सभी सीमाओं के साथ विलीन हो जाते हैं।….

उसे सिद्ध जानो जो सर्वाधिक शान्तिपूर्ण है, जो निष्कलंक तथा सभी व्यक्तिगत इच्छाओं ये मुक्त है, जिसका मन शान्ति से स्पन्दित होता है।”

-Tulsidas, in Indian Mystic Verse, translated by Hari Prasad Shastri (London: Shanti Sadan, 1984).

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