भगवत् गीता और लोक सेवा
गीता कर्म को मनुष्य जीवन में प्रधानता देती है. कृष्ण कहते हैं कि मैं एक क्षण भी कर्म से विरत नहीं हो सकता, नहीं तो सृष्टि का चक्र ही बन्द हो जायेगा. पर गीता में हर कर्म को बिना फल की इच्छा किये करने पर बल दिया गया है. यही साधना है कैसे इसे व्यवहार में लाया जाये. फल की इच्छा न रखने का उद्देश्य है कि इसके बिना कर्म को पूरी तन्मयता से किया ही नहीं जा सकता है, मन अगर फल की प्राप्ति में सोच में भटका करेगा तो कोई कर्म में अपना शतप्रतिशत ध्यान लगा ही नहीं पायेगा, भटक जायेगा उस सोच में. और उसके कर्म की कुशलता जो चाहिये और जिसे योग कहा गया है वह भी सर्वश्रेष्ठ स्तर पर नहीं पहुँच पायेगी.. योग के स्तर पर… यही नहीं बार बार कृष्ण ने यह भी कहा है, ‘सर्व कर्म फल त्याग’और गीता के भक्ति योग के अध्याय १२ के १२वें श्लोक में तो इसे अभ्यास, ज्ञान, ध्यान के मार्गों से भी श्रेष्ठ बताया है-
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है,ज्ञान से परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है॥12॥
साथ ही कृष्ण ने कर्म में कोई आसक्ति नहीं रखने की भी हिदायत दी गई है, काम अपने स्वार्थ के लिये करने की भी मनाही की गई है. यह भी कहा है कि सब कामों को मुझमें समर्पित कर दो. शायद ऐसा करने से न फल की चिन्ता रहेगी, न असफल होने की चिन्ता. बार बार यह भी कहा गया है परमेश्वर की प्राप्ति के लिये तुम्हें ‘सर्व भूत हिते रता’ (सम्पूर्ण भूतों के हित में रत)होना होगा: ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (१२ वें अध्याय के हीं श्लोक ४ का आख़िरी अंश).फिर कर्मसन्यासयोग के अध्याय ५ के २५वें श्लोक में भी इसी पर ज़ोर दिया गया, ‘छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः’(जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गए हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं.)पूरा श्लोक है:
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥
कितना आसान तरीक़ा है ब्रह्म निर्वाण का…..अगर हमें कोई भी मौक़ा किसी तरह से जीव कल्याण के लिये कुछ भी करने का मिलता है तो उसे हमें परमात्मा का दिया गया एक बहुत बड़ा मौक़ा समझ पूरी निष्ठा से करना चाहिये…सर्व भूतों में सभी आते हैं पेड़ पौधे, जानवर, मनुष्य, चींटियाँ भी …..कितने ही जीव जीवन की न्यूनत्तम आवश्यक चीजों के असीम भूखे, प्यासे, असहाय हैं….अगर हम कुछ भी कर सकेंगे तो आत्मसुख तो मिलेगा ही इसी जन्म में…दूसरे लोक की अगर हम न प्रवाह भी करें तो…