कुछ दिल की बातें….

हिन्दू धर्म की सबसे पवित्र पुस्तक भगवद् गीता सर्वसामान्य द्वारा सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है, जिसके १८वें अध्याय के श्लोकों में हिन्दूओं की चारों जातियों-ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के स्वाभाविक गुणों एवं ब्यवहार की चर्चा है.कहीं भी जाति को जन्म से नहीं जोड़ा गया है.समय के साथ समाज के अपना उल्लू सीधा करनेवाले ठेकेदारों ने जाति को जीवन यापन के पेशे के आधार पर नाम दे दिया और माता पिता की जाति से जोड़ दिया.आज हर ब्यक्ति अपनी शिक्षा, हुनर, दक्षता एवं अनुभव के आधार पर कोई कार्य पाता है, करता है और समय के साथ ऊँचे योग्य पदों को प्राप्त करता है.सभी प्रचलित जातियाँ कोई मायने नहीं रखतीं. फिर बार बार हम बहकाने के कारण इस पचड़े में क्यों पड़ जाते हैं.हम हर शिक्षक को ब्राह्मण क्यों नहीं कहते, हर सिपाही को क्षत्रिय क्यों नहीं।इसी तरह सभी सेवक के कामगार को केवल कर्मचारी क्यों नहीं.हम सभी अपनी शिक्षा, हुनर और अनुभव के आधार पर बड़ी जातियों में पदोन्नति पा सकते हैं. छोड़िये जातियों का झगड़ा एवं बनिये जो बनना चाहें….जाति पर लड़ना बन्द कीजिये..देश को टूटने से रोकिये…बहकाने में मत पड़िये .

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥

हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं ॥41॥

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌ ॥

अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं ॥42॥

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌॥

शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ॥43॥

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्‌।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्‌॥

खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय करना, ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ॥44॥

क्या यही होती है राजनीति? राहुल गांधी की हाल की कहानी, “6 जून को मंदसौर दौरे के दौरान राहुल गांधी ने कहा था, ‘मेरा सपना है कि 5-7 साल बाद जब मैं यहां आऊं और जब हम अपने मोबाइल की तरफ देखें तो उस पर मेड इन मंदसौर लिखा आ रहा हो. नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह इस सपने को पूरा नहीं कर सकते, इसे सिर्फ कमलनाथ और ज्योतिरा्दित्य सिंधिया ही सच कर सकते हैं.’राहुल लंबे समय में देश में रोजगार की कमी को लेकर सवाल उठाते रहे हैं. उनका कहना है कि देश में रोजगार लगातार कम होता जा रहा है. उनकी सरकार आई तो रोजगार बढ़ेगा.” मनमोहन के दस साल में शाहजादे क्या दूध पीते बच्चे थे, या केवल अपनी ही सरकार द्वारा लाई अध्यादेश फाड़ना सीख रहे थे?

सरकार और रोज़गार की ब्यवस्था-सही शिक्षा, उपयुक्त हुनर: हर सरकार भरपूर कोशिश करती है देश में रोज़गार बढ़ाने की नीतियों को कार्यान्वित करने की.पर आज की स्थिति को देखते हुये इसे केवल सरकार के माथे मढ़ कुछ ख़ास हासिल नहीं किया जा सकता. हाँ, चुनाव का मुद्दा बना माहौल को ज़रूर गरमाया जा सकता है.देश की सबसे बड़ी समस्या है आज की एक बड़ी आबादी का आज भी अपने को ठीक ढंग से शिक्षित न करने या हुनर न सीखने की लापरवाही. न उन बच्चों के मांबाप, न समाज के नेता, कोई आम शिक्षा एवं हुनर के नीचे गिरते स्तर के बारे में बात करना चाहता है.हम केवल एकदम निचले पैदान पर अपने शारीरिक क्षमता के बल पर कार्य करनेवाले लोगों की संख्या तीव्र गति से बढ़ा रहे हैं.बहूत थोड़े लोगों की शिक्षा या अर्जित हुनर आज के कार्यों के दायित्वों को संभालने लायक होती है.आपने कभी किसी राजनीतिक नेता या मंत्री को लोगों को अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा या हुनर दिलाने की ज़रूरत पर बल देते देखा, सुना है. दुनिया बड़ी तेज़ी से बदल रही है, पर आज भी माँ बाप परीक्षाओं में नक़ल कर सर्टिफ़िकेट या डिग्री हासिल करने में ही अपना सभी बल लगा देते हैं, अपने बच्चे को ठीक ढंग से मिहनत कर अच्छी शिक्षा या हुनर हासिल करने के लिये बढ़ावा नहीं देते. मैंने लड़कों को पैसे के बल पर मैनेजेमेन्ट की डिग्री अर्जित कर बेकार घूमते या सात आठ हज़ार मासिक पर काम करते देखा है. दुख होता है. वहीं नोयडा में एक प्लम्बर या लकडीं का काम करनेवाले लड़कों को पंद्रह बीस हज़ार कमाते भी देखा है.आज भी बड़ी बड़ी कम्पनियों में हुनर वाले लोगों की कमी के समाचार आते रहते हैं. गाँव के लोगों एवं शहर के पिछड़े वर्गों में अच्छी शिक्षा एवं हुनर प्राप्त करने की ज़रूरत के प्रति जागरूकता लाने की ज़रूरत है.यह समझना ज़रूरी है कि आज हर ब्यक्ति को पूरे ज़िन्दगी भर नई नई बिधाओं का ज्ञान या दक्षता हासिल करते रहने की ज़रूरत है, नहीं तो नौकरी कब चली जायेगी पता नहीं….सरकारें केवल शिक्षा एवं हुनर प्राप्त करने की सुबिधायें उपलब्ध करा सकती है, शायद नौकरी नहीं दे सकती..बढ़ते प्राद्योकीकरण की नई ज़रूरतें हैं यह सब….सोचिये हल-बैल गये, ट्रैक्टर, हार्वेस्टर आ गये…..क्लर्कों की जमात हटी, अब कम्प्यूटर के जानकार चाहिये उस जगह….तैयार होइये ….कोई राजनीतिक आन्दोलन इस बात के लिये नहीं किया जा सकता…

आजकल कांग्रेस के एकक्षत्र मालिक अपने को हिन्दू सिद्ध करने में लगे हैं, देखिये तिलक, लोगों के पहनावे. लगता है भाजपा और राहुल के पहनावे एवं तिलक एक हो गये हैं, क्या सिद्ध करना चाहते है तथाकथित शिव भक्त, जनेऊधारी राहुल… पर हिन्दू क्या इतने बेवक़ूफ़ हैं? अगर ऐसा नौसिखिया, जिसका पता नहीं किसकी बताई बात कहता है, किसके सलाह पर चलता है देश का प्रधान मंत्री बन जाये तो क्या होगा…..पर मैं कम से कम राहुल को हिन्दू नहीं मान सकता, क्योंकि इनके माता पिता कोई हिन्दू नहीं थे, न किसी धर्म परिवर्तन द्वारा हिन्दू धर्म में शामिल हुये थे….पिता पारसी थे, माँ ईसाई….मैं शायद पुरानपंथी हूँ…

आज बीस सितम्बर सोचा यमुना को हरिद्वार घूमा लायें. ड्राइवर से पूछने पर कि रिशिकेश का रास्ता कैसा है, वह कहा ठीक है दो घंटे में हो जायेगा. सोचा वहीं चले, पर कुछ दूर चलने पर अपने निर्णय पर अफ़सोस हुआ. देहरादून राजमार्ग एकदम बूरी अवस्था में है. लगता है सालों से काम रूका हुआ है. रिशिकेश मैं लक्ष्मण झूला का एक फ़ोटो लेने के लिये आया था, पर कोई फ़ोटो लेना दुस्तर दिखा. देश के हर दर्शनीय स्थलों की हालत साल दर साल बदतर होती जा रही है. लोगों की भीड़, टूटी सड़कें एवं रास्ते, शहरों का बेतरतीब फैलाव मन खिन्न हो जाता है. इसी तरह हरिद्वार के ‘हर की पैड़ी’ तक बिना गाड़ी छोड़े और बिना काफी पैदल चले जाया नहीं जा सकता किसी तरफ़ से. यमुना तो दस क़दम भी नहीं चल सकती. एक जगह तो ऐसी बनाना चाहिये जहाँ से ऐसी जगहों का बिहंगम दृश्य तो ब्यक्ति देख सके. धर्मस्थानों की हालत और भी गिरती चली जा रही है और दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही है.इस पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है, शायद कुछ दूरगामी बदलाव करने ही नहीं देंगे धर्म के ठेकेदार.धर्म के नाम चलती दुकान नहीं बन्द की जा सकती.क्या हाल होगा ऐसी जगहों का आज से २०-३० साल बाद. अब यमुना के साथ तो कहीं जाना और कुछ देख पाना मुश्किल है. और उनके बिना मैं कहीं जा नहीं सकता. अब हमें ऐसी सभी लालसाओं पर लगाम लगा ही रखना होगा. बाद में कष्ट के लिये पछता कर क्या फ़ायदा…

हिन्दी दिवस पर एक अपनी कविता

अपने की क्या परिभाषा हो

जीवन की आपाधापी में

जाने कैसे यह साँझ हुई,

जब बचे अकेले हम दोनों

और समय काटने के प्रयास

विफल होते

देखा हूँ

बहूत विषाद लिये.

तो एक प्रश्न करता विह्वल

कुछ शंकित भी

‘क्या यह अपनों के कारण है?

जो दूर हुये’.

एक प्रश्न साथ ही आ जाता

‘अपने की क्या परिभाषा हो?’

जो अपने थे वे दूर गये,

कुछ पास रहे पर दूर बने.

सबकी अपनी मजबूरी है.

तब

जो पास रहे वे अपने है

जो दूर गये वे सपने है.

फिर आज कौन जो अपने हैं?

जब शंका से मन घबराया

कोई आया , मन हरसाया

मिट गई सभी शंका मन की,

बातों बातों में शाम हुई

फिर बता गया वह राह सही,

जब गिरे कभी, एक हाथ बढ़ा ,

हमको थांभा, और खड़ा किया;

चिन्तित चेहरे को भाँप अगर

आगे आया, मन बहलाया

ऐसी कितनी ही बात हुई

मन हरसाया, फिर डर भागा

वह क्यों न हमारा अपना है

हम ख़ुश हैं कि हम दो तो हैं

कल फिर एक रह जायेगा

और

उसे यही करना होगा

क्या केवल अपने को लेकर

बाक़ी जीवन रो सकते हैं

सपनों में हम जी सकते हैं

जो मिले समय के आने पर

स्वेच्छा से आगे बढ़ आये

बिन झिझके हमको अपनाये

अपना वह ही हो सकता है .

अपने ग़ैरों का असमंजस

हम दूर करेंगे अब ऐसे ।

घंटी बजी

कोई आया

कोई हितैषी

आम भिजवाया

क्यों अब भी

कोई असमंजस……

राजनीतिक गलियारे के लोगों को आपस में कुत्ते बिल्ली की तरह लड़ते देख बहूत दुख होता है. क्या ऐसे लोगों के हाथ में देश का भविष्य सुरक्षित रह सकता है? क्या ऐसे निम्नस्तर के लोग हमारे देश को दुनिया का शिरमौर बना सकते है? माल्या ने देश के साथ ग़द्दारी की है, देश के बैंकों का पैसा ले भाग गया है. फिर कांग्रेस , भा ज पा आपस में लड़ क्या सिद्ध कर रहे हैं? राफ़ेल को ले कर भी यही हो रहा है. देश का समय जाया क्यों कर रहे हो. आज सत्तर साल बाद क्यों राफ़ेल आयात करने की ज़रूरत पड़ती है? क्यों नहीं हमारे अनुसंधान संस्थान एवं एच ए ल राफ़ेल से बेहतर लड़ाकू हवाई जहाज़ बना पा रहे हैं? आप सभी सत्तर साल तक सरकार चला यह क्यों नहीं सम्भव कर पाये? कोई पार्टी जब तक सरकार में रहती है, न कोई ज़रूरी सुधार करती है, न लोगों को काम करने के लिये प्रेरित करती है.इतने सालों बाद भी स्वतंत्रता के देश को स्वच्छता अभियान चलाने की ज़रूरत न पड़ती, न गंगा, यमुना गंदगी से पटी मिलतीं. पूरा समय पार्टियाँ अपनी प्रतिद्वंद्वी पार्टियों को झूठा और चोर बताने में अपना समय ख़राब कर देती हैं और लोगों को बरगला कर अपना ब्यक्तिगत उल्लू सीधा करती रहती हैं केवल एक लक्ष्य के लिये कि भोट और कुर्सी उन्हें मिले और लोग बेवक़ूफ़ बनते रहते हैं. कोई सोचेगा, अगर ऐसा नहीं होता तो आज देश में कोई अशिक्षित नहीं रहता और न इतने सालों के बाद गाँवों में चिकित्सा ब्यवस्था की कमी नहीं होती.अभी तो जागिये और नेताओं के बहकाने में नहीं आइये….अपने सोचिये और ईमानदार, कर्मठ एवं समाजसेवी लोगों को नेता बनाइये, बाहुबलियों को या अपना उल्लू सीधा करनेवालों को नहीं…

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