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नीतीश कुमार अब पंद्रह या ज़्यादा साल से बिहार की गद्दी पर हैं और उनके पास अब कोई दूसरा बहाना नहीं है बिहार की चिरस्थायी बदहाली का. नीतीश ने कुछ सराहनीय क़दम उठाये जिसमें शराबबन्दी, दहेज और बाल बिबाह को समाप्त करने जैसी अच्छी नीतियाँ थीं. दुर्भाग्यवश इनको पूर्णत: सफल करने का रास्ता मज़बूत एवं अच्छी शिक्षा ब्यवस्था से गुज़रता है. इन चारों ध्येयों की सफलता के लिये प्रचार की ज़रूरत थी, राज्य के हर ब्यक्ति को समझने एवं समझाने की ज़रूरत थी.विशेषकर महिलाओं को, पिछड़े वर्ग के लोगों को, गाँव की जनता को अनौपचारिक ढंग से इन चारों ध्येयों की जानकारी देने की ज़रूरत थी. नीतीश को अपने सहपार्टियों के मज़बूत नेताओं, सभी राज्य कर्मचारियों के साथ साल के दो पखवाड़े घर घर जा इन विषयों पर उसी तरह चेष्टा करने की ज़रूरत थी जैसा वोट लेने के लिये वे करते हैं.प्रदेश के शिक्षकों और अभिभावकों से एक लम्बें एवं अन्तरंग वार्ता की ज़रूरत थी शिक्षा के स्तर को सुचारू करने की. स्कूली इंफ़्रास्ट्रक्चर, भवन, दोपहर का खाना, शौचालय अच्छी शिक्षा मिलने का गारण्टी नहीं है.हर शिक्षक को बच्चों को पढ़ने, पढानें में रूचि लेनी जरूरी है. सोचना होगा कमी कहाँ है कि दस दस साल तक हिन्दी, अंग्रेज़ी पढ़ने के बाद भी एक छात्र दस साल पढ़ने के बाद भी न भाषा बोल सकता है, न लिख सकता है, न पढ़ सकता है. किस तरह से हम इसको बदल सकते हैं. स्कूल आने में, रहने में कैसे बच्चे ख़ुशी महशूश करें? कैसे मिलजुल कर खेल खेल में ज्ञान अर्जन करें. कैसे हर तरह की किताबों को पढनें में रूचि बढ़े? भाषा की टेकस्टबुक्स की जगह ज़्यादा से ज्यादा उसी कक्षा के स्तर की अन्य भाषा में लिखीं किताबें पढ़े, जो अन्य बिषयों की आकर्षक ढंग से जानकारी दे? गाँव के स्कूलों में खेती के सामान्य ज्ञान दिया जाये मनोरंजन की तरह . बच्चे मोबाइल फ़ोनों से या टैबलेट से पढ़ना या अंकगणित करना सीखें. बिहार कैसे आगे आये शिक्षा में , हुनर में, अन्य उन्नत राज्यों की श्रेणी में या उनसे आगे? पर नीतिश को कहाँ समय है वोट और कुर्सी की राजनीति से जो केवल बरगलाने की कला में महारियत से मिल जाति है. महागठबंधन से भाजपा, और फिर से वापस अगर मीडिया की मानें…….इससे अच्छा है सभी सरकारी स्कूलों को बन्द कर दिया जाये या पूरी तरह प्राइवेट कर दिया जाये..
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मैं और मेरी संगिनी किताबें: आजकल मैं दो किताबों में डूबा हूँ. सबेरे क़रीब घंटे भर तुलसीदास का रामचरितमानस मानस पढ़ता, समझता, मनन करता हूँ, फिर से, सन्यासी की तरह…यह लगातार चलता रहेगा पाँच बार तक. फिर भगवद्गीता लूंगां……यह होगा मेरा इन दोनों ग्रंथों को समझने का प्रयास……..दूसरी किताब बहुत बड़ी है क़रीब आठ सौ पन्नों की,पर आधुनिक इतिहास है रामचन्द्र गुहा की India After Gandhi. यह उस काल का इतिहास है जो हमारे समय में घटित हुआ है- देश की आज़ादी के समय मैं आठ साल का था.कलकत्ता के दंगों एवं उस समय के हालात के बहुत पक्षों से मैं अनभिज्ञ था.१९५२ में देश के प्रथम साधारण चुनाव के समय मैं ७-८ कक्षा में था बिरलापुर विद्यालय में. बिरला जूट के उप जेनेरल मैनेजर महावीर प्रसाद जैन कांग्रेस से संसद का चुनाव लड़ रहे थे, दादाजी को शिक्षकों में से इस काम के लिये चुना गया था. विद्यार्थी वालन्टियर्स में मैं भी था. जैन साहब की प्रचार के लिये पहले नेहरूजी और फिर जगजीवन राम थोड़ी दूर के कालीपुर मिल के मैदान में भाषण देने आये थे, हम भी गये थे कुछ छात्रों के साथ. मैंने दादाजी से जगजीवन राम के भाषण की सराहना की थी,पर नेहरूजी का भाषण अति सामान्य था.डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर में मृत्यु के समाचार से दादाजी बड़े दुखी हुये थे. प्रेसीडेन्सी xकालेज में पढ़ते समय डां राजेन्द्र प्रसाद आये थे. इडेन हिन्दू हॉस्टेल में वे जब आये तो उनसे बात भी हुई थी. १९६१ में हम हिन्दमोटर में काम करने लगे. तभी चीन का आक्रमण और नेहरू के सिद्धान्तों की शर्मनाक हार हुई थी. अब पता चल गया होगा कि राम चन्द्र गुहा की पुस्तक क्यों रूचि ले पढ़ रहा हूँ ….उस समय काल को जिया हूँ तो समझने में सरलता है. बहुत ब्यक्तियों के बारे बहुत जानकारी उस समय के परिस्थियाँ का ज्ञान, फिर अपना विश्लेषण चलता है पढ़ते पढ़ते और चलता रहेगा, अभी तो केवल ३४५ पेज ही पढ़ पाया हूँ..पर नेहरू की छवि देश को सम्मान नहीं दिला सकी, वल्कि अनादि काल के लिये लज्जित किया…………. कुछ ज़्यादा बाद कभी….
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वर्तमान सरकार को दो जाँच-आयोग ज़रूर गठन करने चाहिये स्वतंत्रता के बाद के दो मृत्यु के बारे में. यह जरूरी है कि लोग जाने कि डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर के जेल में अचानक मृत्यु का असली कारण क्या था. डा. मुखर्जी राजनीति के अलावा भी एक गणमान्य शिक्षाविद थे,कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति एवं नेहरू के अन्तरिम मंत्रिमंडल में सहभागी मंत्री थे. साथ ही वे बंगाल के महान ब्यक्ति डा. अाशुतोष मुखर्जी के बेटे थे, जिनको बंगाल का बच्चा बच्चा आज भी जानता है. आख़िर नेहरू ने डा. मुखर्जी के प्रति ऐसा रवैया क्यों अपनाया कि उनकी मां,योगमाया देवी का उनके मरने के बाद के जाँच के अनुरोध के लिये लिखे पत्र का उत्तर देना भी उचित नहीं समझा.ऐसी ही ज़रूरत लाल बहादुर शास्त्री की तासकन्द में हुये मृत्यु के कारण के जाँच की भी है.ये दोनों मृत्यु आज भी बहुतों को एक सोची समझी साजिस की तरह लगती है. यह आज के सरकार का दायित्व बनता है कि इन शंकाओं का उचित समाधान ज़िम्मेदार जाँच समिति द्वारा कराया जाये.
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यह अब कोई छिपी बात नहीं है कि मिडीया एवं बिरोधी दल देश के हर घटना को मोदी के नाम के साथ जोड़ने और उसका बिरोध करने में ब्यस्त है.आज का एक समाचार था बहराइच के एक राजा सुहेलदेव के बारे में. अमिस त्रिवेदी की कोई इसी नाम से किताब आ रही है. राजनीतिक दल कोई उनको दलित सम्प्रदाय का और कुछ अन्य उन्हें अन्य पिछड़ी जाति का बताने में लगे हैं. ऐसी प्रयत्नों को मिडीया को कोई बढ़ावा नहीं देना चाहिये. मैं तो कहूँगा ऐसी बातें समाचार को बननी ही नहीं चाहिये भारत हित में. पर बिचार की स्वतंत्रता के नाम पर लोगों में बिद्वेश फैला सभी बात को राजनीति एवं वोट से जोड़ा जाने लगा है. मिडीया हर विवादपूर्ण घटनाओं का बिस्तृत बयान कर अपना ब्यवसायिक उल्लू सीधा करना चाहता है.ऐसी ही एक घटना २०१४ में अशोक महान को कुसवाहा जाति का बता कर किया गया था. कब ब्यक्ति का परिचय केवल नाम से होने लगेगा जाति से नहीं.
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अभी हाल की राजनीति सरगर्मियाँ एक संकेत ज़रूर दे रहीं है कि भाजपा को रोकने या हराने के लिये कांग्रेस एक नई महागठबंधन की रणनीति से काम कर रही है. 2014 में कांग्रेस ने अपने सहयोगियों के लिए सिर्फ 76 सीटें छोड़ी थीं. 464 पर खुद लड़ी थी. लेकिन इस बार कांग्रेस उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, झारखंड, असम, आंध्र प्रदेश में जूनियर पार्टनर की भूमिका में चुनाव लडऩे के लिए खुद को तैयार कर रही है.अगर सभी दल सभी राज्यों में इसके लिये तैयार हो जायेंगे तो कांग्रेस का फ़ायदा हो सकता है और उसे ४४ से बहुत ज़्यादा सीटें मिल सकती हैं, अगर कोई बहुत बड़ी ग़लती न हो जाये या हवा का रूख पूरी तरह मोदी की तरफ़ न हो जाये.
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कुछ महीने पहले तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने थूतूकुडी के स्टरलाइट काॅपर की फ़ैक्टरी में उत्पादन बंद करने के आदेश दिए. क्या वह देश हित में निर्णय है?क्यों कोई हज़ारों करोड़ का निवेस करेगा, अगर भीड़ एवं आन्दोलन सभी किये कराये को मटियामेट करने में सक्षम हो जायेंगे ?स्थानीय लोगों का विरोध क्या किसी बिदेशी या देश की अन्य स्वार्थी ब्यक्ति या संस्थान के षड्यंत्र का अनकहा, अनजाना हिस्सा नहीं हो सकता है? देश दुनिया मे जो दूसरे कॉपर की फ़ैक्टरियों के संयत्रण है उनसे यह फ़ैक्टरी किस तरह अलग थी? चूँकि यह तकनीकि मामला है देश का कोर्ट एक्सपर्ट की सहायता से सठीक निर्णय तो ले ही सकता है. पर वह अन्तिम निर्णय सब दलों को मान्य होना चाहिये. भीड़ की संख्या या उसके तोड़फोड़ की शक्ति पर निर्णय आश्रित नहीं होना चाहिये.सरकार को केवल कोर्ट के आदेश के अनुसार ही आदेश देने की आज़ादी है.