प्राचीन भारत के समाज शास्त्री मनीषियों ने दो सार्वभौम व्यवस्था की खोज की और स्थापित किया.अगर बिना पक्षपात और संकीर्ण मनोभाव के देखा जाये, वे आज भी उतना ही सामयिक एवं सर्वपयोगी है जितना उस समय थे. अगर उसे सठीक तरह समझा जाये; (राजनीतिक फ़ायदे या स्वार्थ की दृष्टि से न देखा जाये या ग़लत प्रचार न किया जाये भड़काऊ तरीक़े से), तो हिन्दू समाज के अलगाववादी मानसिकता एवं आपसी झगड़े या मनोमालिन्य ख़त्म हो सकते हैं उस रास्ते चल. नई पीढ़ी अगर ठीक तरह समझ जाये जो उनका मूल उद्देश्य था, तो वे उसे महत्व देंगे और आज की कुरीतियों को हटाने में मदद और गति. और वे दो ब्यवस्थाऐं थी वर्ण एवं आश्रम .
वर्ण: वर्ण का शब्दिक अर्थ है – वरण करना, रंग, एवं वृत्ति के अनुरूप. गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णो का निर्माण किया गया है.विभिन्न वृत्तियों के काम को सम्यक् भाव से पालन के लिये ब्यक्ति के कर्म एवं स्वभाव को जानना बहुत जरूरी है. भारत में समाज के सभी लोगों को चार वर्णों में विभाजित किया गया ब्यक्ति के कर्म एवं स्वभाव के आधार पर जन्म के आधार पर नहीं, पिता-माता के वर्ण के आधार पर नहीं: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. भगवद्गीता के १८ वे अध्याय के श्लोक ४१-४३ में इन वर्णों को कर्म, स्वभाव के अनुसार वर्णित और परिभाषित किया गया है।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥४१॥
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥४२॥
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥४३॥
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥४४॥
(भावार्थ :हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं ॥41॥ (कहीं जन्म आधारित वर्ण का ज़िक्र नहीं है।)
अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं ॥42॥शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ॥43॥खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ॥44॥)
हर ब्यक्ति अपने रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में अपने घर में या बाहर इन चारों वर्णों के उल्लेखित कर्म को स्वभाविक रूप में करता है, सीखता है और दक्ष बनता है.आज किसी परिवार को चलाने के लिये भी उपरोक्त चारों प्रकार के कर्म एवं स्वभाव की ज़रूरत पड़ती है.घर के हर सफ़ाई के काम के लिये हममें शूद्र के स्वभाव और लगन की ज़रूरत होती है, रोज़मर्रा के कामों में धन कमाने और सद्व्यय के कर्म हमें वैश्य स्वभाव की तरह करने पड़ते हैं, हमारी सम्पन्नता उस स्वभाव के गुण एवं क्षमता पर निर्भर होती है ।सुरक्षा तो महत्वपूर्ण बन गई है, इसके लिये क्षत्रिय स्वभाव एवं कर्म की शक्ति और दक्षता चाहिये ।हमें परिवार को उत्तम स्तर पर लाने के लिये इसी तरह शिक्षा, ज्ञान,शुचिता आदि की ज़रूरत होती है जो ब्राह्मणों के कर्म स्वभाव में परिभाषित है . आज अपनी जीविका के लिये हर ब्यक्ति नौकरी करता है.हर काम में किसी ख़ास स्वभाव और ज्ञान की ज्यादा या कम ज़रूरत होती है. अत: कर्म स्वभाव के चारों वर्णों का काम कर ही जीवन में सफल हो सकता है.
हर कर्म संस्थान में लोगों को उनकी इन चारों तरह के अपने कर्म एवं स्वभाव की दक्षता के अनुसार ही दायित्व मिलता है. व्यक्ति साधारण कर्मचारी या कामगार से प्रारम्भ कर कर्म, स्वभाव के अनुसार ऊपर उठ संस्थान के बड़े से बड़े पद तक पहुँच सकता है ग्रंथों में परिभाषित चारों वर्णों के कामों को करते हुये.
आज की जाति प्रथा पैदा ही हुई वर्ण ब्यवस्था के सदियों बाद जब भारत छोटे छोटे राज्यों में बँटता गया. और आज की जातियों को अलग अलग समाज के स्वार्थी ठेकेदारों या पुराने समय में स्वार्थी पंडितों ने उनके उस समय के कार्य दक्षता के अनुसार अलग, अलग समय में अलग अलग जाति का नाम दे दिया और एक दूसरे को छोटा बड़ा बना दिया जो आज हज़ारों की संख्या में हैं.समय के साथ यह एक प्रणाली समाज का अंग बन गई। जातियों की श्रेष्ठता की भी एक रैंकिंग कर दी गई.यहां तक की एक वर्ण में ही बिभिन्न जातियाँ बनती गई, हर अपने को एक दूसरे से श्रेष्ठ मानने की होड़ में लग गया. और हर किसी ब्यक्ति की जाति उसके माता या पिता की जाति मान ली गईं. पिछले सदी में हुये प्रगति के कारण आज की जाति ब्यवस्था हमारे कामों के सम्पादन में बढ़ते नई ब्यवस्था एवं उपयोग में लाये साधनों के कारण वैसे भी अनर्थक हो गई. विज्ञान, ब्यवसाय या शिक्षा,हुनर, रोटी रोज़ी के आज के धंधों को देखते हुये उन पुराने जातियों के नाम बदल जाने चाहिये. आज के संदर्भ वे वेमायने हैं, एक फ़ौज़िया तो क्षत्रिय ही है भले ही वह किसी जाति का हो, इसी तरह हर शिक्षक ब्राह्मण . मैंने अगर शिक्षा इंजीनियरिंग की है और काम भी उसी तरह, तो मेरी जाति का नया नाम इंजीनियर होना चाहिये. इसीतरह अगर कोई डाक्टरों की पढ़ाई की और पेशा बनाया तो उसकी जाति का नाम डाक्टर होनी चाहिये. जितनी जल्दी हम पुरानी जातिप्रथा को तिलांजलि दे सकें उतना ही अच्छा है देश की समृद्धता के लिये. यही असली देश सेवा होगा.
आश्रम: हर ब्यक्ति के जीवन के औसतन उम्र को सौ का मान, उसको चार आश्रमों -(१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य, (३) वानप्रस्थ और (४) संन्यास मे बाँटा था हमारे पूर्वज ज्ञानी समाजशास्त्रियों ने. आश्चर्य है आज भी औसतन उम्र वही हैं: २५ तक ब्रह्मचर्य, ५० तक गार्हस्थ्य, ७५ तक वानप्रस्थ और उसके बाद संन्यास, का नाम दिया.ब्रह्मचर्य आश्रम के २५ वर्ष तक सर्वोच्चतम्म शिक्षा, किसी विधा में बढ़िया हुनर अर्जित कर जीवनयापन के कार्य करने के लिये तैयार हो जांयें, और उसके बाद गृहस्थ आश्रम के ५० की उम्र तक अपनी आजीविका की आय को बढ़ाते हुये और उच्चतम ऊँचाइयों को पहुँचते हुये अधिकाधिक कमाई कर दाम्पत्य एवं गृहस्थ की सफलत्तम ज़िन्दगी जीने का प्रयास करें, वानप्रस्थ में धीरे धीरे अपना उत्तराधिकारी तैयार कर कार्यभार से किसी समय मुक्त कर लेनी की तैयारी करने का काल है. संन्यास आश्रम में हर ब्यक्ति को सभी आकर्षणों एवं सम्बन्धों से दूर हो भी ख़ुद को ख़ुश रख जीने की कोशिश करने का है. कुछ व्यतिक्रम हो सकता है कुछ साल कम अधिक, पर साधारणत: जीवन का ढंग आश्रम की तरह चलता है आज भी.