२५.३.२०१८
त्रिभुवन जी, बहुत अच्छा लिखते हैं, लिखते रहिये . मुझे लगता है यही कारण है कि अलग अलग क्षेत्रों के जिसमें दक्षिण पूर्व एसिया के देश भी है, बहुत संतों ने रामायण की कथा को अपनी क्षैत्रिक बातों का ख्याल कर लिखा. संयुक्त परिवार जो उस समय भारतीय समाज की विशेषता थी सदियों चलती रही, समाज उपयोगी बनी रही, उन्हीं त्यागों या आदर्शों के कारण. आज भी यह परकरिया चालू है कुछ युवक लेखकों द्वारा. दुर्भाग्यवश शायद अगली पीढ़ियों को धीरे धीरे यह सौभाग्य नहीं मिलेगा.. या हो सकता है कुछ प्रभावी संस्थाओं के चलते मिलता रहे- उनमें एक है चिन्मयानन्द के लोग. शहरों की बात तो समझ आती है, पर ग्रामीण समाज समाज में चारों ओर देखने बड़ी निराशा है रामायण की गवनइयों की रिवाज को मरते हुये विदेशी नकल में रूचि के चलते. पर अच्छा होता,लोग पश्चिमी समाज के सद्गुणों को ग्रहण करते, आज सीता का कष् टउठाने के लिये कोई तैयार नहीं, सब दुर्योधन बनना चाहते हैं, न कोई राम, न कोई , न लक्ष्मण, न भरत…न दसरथ ..ऐसे में संस्कारी बच्चों को बनाने की प्रक्रिया कैसे चलती रहने के लिये सभी प्रतिकूल अवस्था में
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एकदम ठीक बात हैं. मुझे मालूम नहीं मैथिल क्या कर रहे हैं, पर भूमिहार के कुछ भटके तो संरक्षण माँगते हैं, आज देखा भूमिहारों का एक हाउसिंग कॉलोनी बन रहा है, आम्रपाली वालों की तरह कोई उन्हें बरगला रहा है. आज पहली बार सभी जाति के लोग सभी पेशे में आगे आ रहे हैं और बिहार के लोग लालू यहाँ तक की तेजस्वी, और माँझी के झाँसे में आ रहे हैं.
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19.3.(कल राहुल गांधी ने महाभारत की घोषणा कर दी. वैसे गांधी परिवार कभी मोदी को किसी तरह छोड़ा नहीं. अपने दस साल २००४-२०१४) के राज्य में गांडी परिवार मोदी को बहुत कुछ किया ख़त्म करने के लिये. शायद यह किसी अन्य के साथ होता तो गुजरात बिखर जाता, मोदी टूट जाते. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. गुजरात सबसे अच्छा प्रान्त बन गया, मोदी दिल्ली आ गये और हर काम के कुछ नयापन लाने की कोशिश की, देश का डंका पूरे विश्व में बजता गया. पर राहुल उन्हें जानी दुश्मन मानते रहे, सूट बूट की सरकार से ड्रामेबाज़ तक की उपाधि दी. उम्मीद थी कि इतनी विरासत वाली कांग्रेस कुछ उन्हें अपने मन का करने देगी जब वे २८२ थे, और ये केवल ४४. पंजातंतर में तो ऐसा होना चाहिये. पाँच साल तक सरकार चलाने का अपने सिद्धान्तो से . पर राहुल कांग्रेस विदेश नीति से ले सबका बिरोध किया खुलकर. सोनिया चाहती थी उनसे बराबर बात करते रहते, बात मानते रहते. ऐसा कैसे हो सकता था. सोनिया लालू के साथ नीतिस के सा थ मिल बिहार में सरकार बनाये, मोदी हार गये. पर पहला काम किया कि चालीस हज़ार करोड़ के दो लोकों प्लांट बिहार में लगाने का आदेश दिया, हारने की कोई ग्लानि न रखते हुये. नीतिश जब समझे तो फिर मोदी के साथ हो लिये. सरकार में कांग्रेस का अस्तित्व न रहा. ऐसा ही पूरे देश में होता रहा. राहुल पूरी ताक़त लगाई तीन तीन जातियों के नेताओं को तोड़ा, ग़लत समृद्ध जाति को संरक्षण का वायदा किया, किसानों को क़र्ज़माफ़ी का आश्वासन दिया. मोदी को मिहनत करना पड़ा. पर सरकार उनकी ही बनी. ख़ैर छोड़िये उन बातों को- प्रश्न है आपने पांडव बनना क्यों पसन्द किया? मुझे समझ नहीं आया कि उनकी कमियों को गिनाया जाये तो पारावार नहीं…..वे तो कृष्ण की राह हर क़दम पर चल जीते-मुझे मालूम है अधिक से अधिक आप राजाजी के लिखे महाराज को छोड़ असली या पूरे महा भारत को पढ़े न होंगे, आपको विवेक देवराज की राय लेनी चाहिये थी दस खंडों में अंग्रेज़ी में लिखि है, लिखा तो शायद मौली जी भी है…..ख़ैर महाभारत में जीतने के लिये नीचे दिया गीता का श्लोक समझना ज़रूरी है,….
येत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
भावार्थ : हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है ॥78॥
आप अपने को पांडव तो कह दिये, पर यह भी तो बताइये इस महाभारत में कृष्ण और अर्जुन कौन है…इसके बिना आप अपने महाभारत की जीत को गीता के अनुसार निश्चित नहीं.कह सकते…..भारतीय हिन्दू जनता कम से कम जानना चाहती है….कम से कम शिव भक्त , जनेऊधारी , मन्दिरों में जानेवाले को यह तो मालूम होना चाहिये ….प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उत्तर की प्रतीक्षा में एक जाति बिहीन हिन्दू…..कृपया अच्छा लगे तो शेयर कियेर, कुछ प्रश्न हो तो पूछिये…..)
मुम्बई में जुटाई गई भीड जिसकी संख्या अनुमान अलग अलग था रिपोर्टर की धारणा के अनुसार २०,००० से ५०,०००. फ़ोटो जो छपे वे बताते नहीं कि वे किसान थे क्यों चारों तरफ़ लाल लाल टोपियाँ और हँसिया- हथौड़े के झंडे भी.
१५.३. २०१८ : क्यों हारी बी.जे.पी बिहार एवं उत्तरपदेश में, यही चर्चा है पूरे फ़ेसबुक पर. अलग अलग लोग अलग अलग सिद्धान्त…
२
ज़िन्दगी आराम से कट जाती है
जब से हमने दर्द से दोस्ती कर ली…
१३.३.२०१८: पता नहीं मुझे इसका पहले अनुभव क्यों नहीं हुआ.पर अब लगता है राजनीति का बदला रूप जिसमें देश के स्वतंत्रता संग्राम का सम्पूर्ण यश लेनेवाली कांग्रेस पार्टी ध्वस्त हो चुकी है, पर उसके संचालक यह मानने को तैयार नहीं कि सत्ता में आई पार्टी संबैधानिक रूप से चुनी पार्टी है और उसे देश के हित में अपनी बिचारधारा के अनुकूल निर्णय लेने का अधिकार है, पर कांग्रेस बिरोधी दलों का साथ ले हर क़दम पर रोड़े अटका देती रही है, चारों तरफ़ हर चीज़ में राजनीति छोड़ कुछ अच्छा सुनने को ही नहीं मिलता, नही दिखता. अत: बड़ी घुटन महसूस हो रही है. कांग्रेस पार्टी वैसे भी वह नहीं रह गई है जिसे हमने देखा था स्वतंत्रता के पहले या बाद.सबसे बड़ी वजह है इसका नेतृत्व है, जो पूर्ण रूप से एक परिवार का मालिकाना हक़ हो गया है. ऐसी स्थिति अयोग्य नेतृत्व प्राकृतिक है. दूसरी तकलीफ़देय बात देश का हरदम चुनाव की प्रक्रिया में लगी रहना है. पहली बार हर चुनाव चाहे प्रान्त का हो, नगर निकाय या पंचायत का हो या उप चुनाव हो सुर्खियों में टी वी पर छाया रहता है. प्रान्तों के चुनाव में प्रधान मंत्री और उप चुनावों में मुख्य मंत्री ब्यस्त हो जाते है, चुनाव संहिता लग जाती है. बहुत सारे प्रोजेक्ट ठप्प हो जाते हैं. हर तरह के चुनाव की जीत और हार को वर्चस्व या पतन बताया जाने लगता है. एक सुझाव आया भी सभी चुनावों को एक साथ करने का, पर लोग एकमत हो संवैधानिक अड़चन का हल ढूँढने को तैयार नहीं. कांग्रेस और भा ज पा के नेताओं का संसद में बहस कर देश की समस्याओं का हल ढूँढने की कोशिश नहीं दिखती. दोनों एक दूसरे को केवल संसद रोकने का ज़िम्मेदार बताने में चुकते नहीं. इतने बड़े बहुमत के बाद अगर सत्र प्रभावी ढंग से नहीं चल सकता. लगता है यह सम्भव नहीं तो शायद ही कभी भी. अभी चलता बजट सत्र के दूसरे महत्वपूर्ण हिस्से में अभी तक कुछ काम नहीं हुआ बिरोधी दलों के हंगामे के कारण, जबकि पंजाब नेशनल बैंक की बड़ी गड़बड़ी में देश का बहुत नुक़सान किया दो हीरों के ब्यपारियों ने बैंक कर्मचारियों की मिलीभगत द्वारा और विदेश भाग गये. यह क्यों एवं कैसे हुआ, क्या ग़लती हुई, कैसे यह भविष्य में न हो. इस राष्ट्रीय हित के विषय पर सकारात्मक विवाद दोनों सभाओं में बड़ी संजीदगी से होना चाहिये था. पर लगता है सभी दल २०१९ के चुनाव को महत्व देते हुये एक दूसरे को ज़िम्मेदार बताने के झगड़े में ही लगे हुये हैं, सत्र के सुनहरे मौक़े को बरबाद किया जा रहा है. समस्या के सुलझने का सही रास्ता खोजने की आशा ख़त्म होती जा रही है बिना कोई कड़े क़ानून एवं दंड विधान की व्यवस्था किये बग़ैर. क्या २०१९ के चुनाव से हालत बदतर होगी या ऐसी ही चलती रहेगी?शायद भारत कभी महान नहीं हो पायेगा. …..
भूमिहार : मुझे बार बार अपने लोगों को पूछने पर कहता हूँ, “मैं शुद्र वर्ण का ज्यादा हूँ ज़िन्दगी में , नौकरी में तो हम किसी न किसी की सेवा ही करते हैं, अब भी जितना सफ़ाई का काम है जैसे टायलेट साफ करना, मैं ख़ुद करता हूँ, किसी दूसरे को करने नहीं देता.” दूसरे को कैसे कह सकता हूँ, बच्चों और पिताजी की भी सेवा में सभी तरह की सफ़ाई, सेवा की. …बड़े गर्व से की. कुछ समय मैं सर्वश्रेष्ठ मानेजाने वाले वर्ण का काम भी किया जो लोगों को शिक्षा देने का था- काफ़ी लोग जो बड़े बड़े ओहदे पर काम कर रहे थे. उस समय मै ब्राह्मण बन जाता था.
शूद्र कौन: मुझे केवल यह कहना कि गीता के १८वें अध्याय में तीन चार श्लोकों में चार वर्णों की बात कही है वह जन्मजात नहीं कहता, पर स्वभाव एवं कर्म के अनुसार था. अम्बेडकर जाति प्रथा में उलझ गये अशोक के बाद बढ़ी और बढ़ती गई. हर समाज असंख्य धर्म पुस्तकों में सर्वोत्तम ब्यवस्था को चुनता है, हमें इसी में बिश्वास करना चाहिये, वह तर्क संगत भी है. अम्बेडकर कीतरह के प्रतिभाशाली ब्यक्ति को शूद्र का अर्थ ब्यापक भाव से लेना चाहिये था. उन्हें अपने को अपनी मेधा शक्ति के बल पर ब्राह्मण कहना चाहिये था , पर दलितों का नेतृत्व लेने के लिये उन्होंने अपने को शूद्र बता सहानुभूति और प्रभाव बढ़ाया…..सोचिये….अगर सहमत हैं..
२५.२.२०१८: बहुत अच्छा लिखा है आपने पटना के अशोक क़ालीन अवशेषों के बारे में….१९६५ से नालन्दा के चारों ओर घूमा, पटना के कुम्हरार में उन दिनों ऊचें ऊचें पस्थर स्तम्भ खडे थे एक काफ़ी गहरे समतल पर . शायद खुदाई के बाद निकले थे. बाद में फिर गया पर वे दिखे नहीं…सभी नेता अपना इतिहास गढ़ने में लगें है…अशोक , चन्द्रगुप्त मौर्य और बाद को गुप्ता काल के प्रारम्भिक काल के बारे में पटना के जाने माने इतिहासज्ञों ने भी कोई काम नहीं किया…..कहाँ थे वे महल जिसके बारे में फाहियान ने देवताओं बनाया हुआ कहता था….
उत्तम खेती मध्यम बान।
निषिद चाकरी भीख निदान।।
भावार्थ- घाघ का कहना है कि खेती सबसे अच्छा कार्य है। व्यापार मध्यम है, नौकरी निषिद्ध है और भीख माँगना सबसे बुरा कार्य है।
१८.२.२०१८
हम सभी जानते या सुनें होंगे कि रामायण सैकड़ों अलग अलग कवियों एवं लेखकों द्वारा लिखा गया, मुख्य पात्र वही रहे, कुछ बदले, हर कवि या लेखक ने उसमें कुछ नई बात कहनी चाही अपने ढंग से.फिर गद्य में भी यह कहानी लिखी गई…हिन्दी में नरेन्द्र कोहली, अंग्रेज़ी में असीम त्रिवेदी ……पर इसका जैसा प्रचार दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में हुआ वह अद्भुद् लगता है. इस गणतंत्र दिवस पर उन देशों ने अपने यहाँ प्रचलित कहानी पर आधारित रामलीला का मंचन भी किया दिल्ली में. बचपन में क़रीब रोज़ शाम गाँव में लोग इसे एक जगह जमा हो गवनई करते थे मनोरंजन के लिये. तुलसीदास का रामचरितमानस दुनिया की सबसे ज़्यादा बिक्री होने वाली किताबों में आज भी है….वे समाज को सिखाने की चेष्टा किये और बहुत हद तक सफल भी हुये……पर मेरा प्रश्न एक और है, क्यों रामायण का इतना प्रसार हुआ….ए के रामानुजन का प्रसिद्ध लेख ‘तीन सौ रामायण’ कुछ साल पहले बहु चर्चित रहा. महाभारत उतने बिभिन्न रूपों में नहीं आया….यहांतक कि कुछ घरों में इसे लोग अशुभ मानने लगे और इसे घर में रखने से भी कतराते रहे http://www.sacw.net/IMG/pdf/AKRamanujan_ThreeHundredRamayanas.pdf
९.२.२०१८ यूपी, बिहार में रोज़गार नहीं, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात में रोज़गार बढ़ता जाता है. क्या है उनके पास जो उत्तरी प्रान्तों में नहीं है. यही कारण है बिहार में हम गाँव तक पहुँचे रोड, बिजली, स्मार्ट फ़ोन होने का कोई फ़ायदा नहीं ले पा रहे हैं, कौशलेन्द्र के सब्जी के काम को फल , दूध आदि में नहीं ले जा पा रहे हैं. जितना मैं जानता हूँ बिहार में यह काम भी ज़मीन के मालिक बडी जाति वाले करना तौहीनी समझते हैं, वह कु एक दो जातिओं का ही काम है, कब जाति प्रथा टूटेगी? हमें बडा सोचने वाले लड़के चाहिये IAS बन करोड़ों के तिलक की कमाईवाले नहीं. मधुबनी कलाकृतिओं मे उत्पादन बृद्धि करना, नये फ़ैन्स में प्रिय बनाना होगा , पूरे दुनिया में पहुँचाने की सोच सानी होगी. डालमियानगर ऐसी जगहों पर वह सब आसान चीज़ें जो चीन आयात करते हैं बनाना होगा, उसके लिये रॉकेट विज्ञान की जानकारी नहीं चाहिये. बिहार के कुछ उपलब्धियों की चर्चा कुछ साल पहले हुई थी-धान एवं आलू में प्रति हेक्टेयर चीन से ज्यादा उत्पादन की. कितने प्रतिशत किसान उसी मात्रा तक उत्पादन ले जा पाये? क्यों नहीं? यूपी, महाराष्ट्र में गन्ने की सभी मिलें आज भी चल रही हैं, बिहार के लोगों ने वहाँ की मिलों को क्यों नहीं चलने दिये..अंग्रेजों के जमाने से चंपारण में चला आ रहा गुड़-खंडसारी उद्योग अब मरणासन्न स्थिति में आकर बंद होने के कगार पर क्यों है. ..मैं तो यह कहता हूँ कि ग़ैरक़ानूनी ढंग से बढ़िया हथियार बना सकते हैं अगर बिहारी लोहार और वहीं के बढ़ई दिल्ली के सभी घरों का फ़र्नीचर बना सकते हैं फिर कोई आनन्द कुमार का छात्र अर्बन लैडर या उनकी दक्षता को ब्यवहार कर कोई कम्पनी क्यों नहीं खड़ा कर सकता? बिहार सरकार और अपने को बिहारी कहनेवाले क्या सोचेंगे?
७.२.२०१८: पता नहीं कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी के नेतृत्व में। कल के लोकसभा में प्रधान मंत्री मोदी के राष्ट्रपति के भाषण के धन्यवाद ज्ञापन पर बोलते समय किया (विडियो)यही रास्ता अपना २०१९ का चुनाव जीतना चाहती है….अगर देश की जनता, मीडिया एवं बिरोधी पार्टियाँ इस तरह आँख बन्द कर राहुल गांधी को प्रधान मंत्री बनाना चाहते हैं तो देश का दुर्भाग्य होगा. दो प्रश्न का उत्तर सभी से चाहूँगा. क्या जातिवाद का उपयोग इतने खुली तरह से होना चाहिये जैसे राहुल गांधी ने एक दलित, एक ठाकुर, एक पटेल को साथ ले गुजरात में किया? क्या देश हर सम्पन्न जातियों को जिनमें जाट, मीना, पटेल, आदि हैं, को संरक्षण देता रहेगा, यही देश में चुनाव जीतने का तरीक़ा होगा और एक दिन देश बँट जाये प्रान्त, जाति, या भाषा के आधार पर.अगर क़र्ज़ माफ़ी की तरह का केवल तुष्टीकरण का तरीक़ा जो बार बार राहुल गांधी हर चुनाव के पहले वायदा दे देते है अन्य क्षेत्र के सरकारी क़र्ज़ लेनेवाले की तरफ़ से यही माँग नहीं होगी? क्या कोई अर्थनीति यह कर सम्पन्न बन सकती है.सम्पन्न बनने के लिये नई तकनीकि तरीके जरूरी हैं, कृषि या ब्यवसाय लाभदायक पर ईमानदार तरीके और मिहनत से ही बन सकते हैं, ग़ैर क़ानूनी तरीके से अपना धन बटोर नहीं.क्या कुछ प्रान्त के मुख्यमंत्रियों के कुछ कुछ क़दम देश से ज़्यादा प्रान्त को प्राथमिकता देने की ओर नहीं बढ़ रहे हैं? आज राहुल हों या अरविन्द केजरीवाल की पार्टियाँ बामपंथी पार्टियों का रास्ता का रास्ता बड़ी कम्पनियों के प्रति अपना रहीं हैं, क्या वही रास्ता देश हित में है या इससे कोई बेहतर समझदारी का रास्ता हो सकता है? मैं बिहार के कम से कम तीन गाँवों को नज़दीक से जानता हूँ, आप भी अपने प्रान्त के गाँवों को जानते होंगे, क्या वहॉ के स्कूल जाते गाँवों बच्चों की हालत ACER 2018 के रिपोर्ट से बेहतर है? मैं तो किसी गाँव को नहीं जानता जहाँ कोई स्वास्थ्य केन्द्र की ब्यवस्था हो, आप के यहाँ क्या है? क्या इतने सालों के स्वराज के बाद यही स्थिति होनी चाहिये शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र की? हर क्षेत्र की करीब करीब सालों की तुष्टीकरण की नीति के कारण यही हाल है. कौन इसके लिये सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है? आज मोदी को किन परिस्थिति में किस तरह जवाब देना पड़ा कांग्रेस दल के ज़ोर दार नारों के बीच जो मुझे बंगाल के हिन्दमोटर के यूनियनवालों के विरोधी नारों की याद दिलाते रहे, आप भी सुनो और ख़ुद तय करो कि क्या भविष्य है इस देश का?
२४.१.२०१८ देश में सिनेमा देखने में काफ़ी पैसा लगता है अत: देश के लफ़ंगे कोई मौक़ा सड़कों पर कुछ टीवी वालों को बुलाने के लिये पुलिस और पार्टियों की कमज़ोरियों का फ़ायदा उठा अपने हिरो विलियन बनने से नहीं चुकते. देश में अराजकता बढ़ती जा रही है, कौन कड़ा क़दम उठा चुनाव हारने की ज़िम्मेवारी ले? चिन्ता कौन करे….एक पार्टी या एक नेता के नाम सब ज़िम्मेवारी डालते जाओ.यह कौन है करनी सेना का नेता जिसके नाम पर गुंडों ने छोटे बच्चों के स्कूल पर आक्रमण किया और ……..
सरकार टैक्स चोरी रोकने के लिए लगातार कड़े कदम उठा रही है, तो बिजनसमेन भी इन सरकारी प्रयासों को पलीता लगाने का एक-से-बढ़कर एक तोड़ निकाल रहे हैं। नई टैक्स व्यवस्था गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। इस सिस्टम में अलग-अलग टैक्स रेट्स ने व्यापारियों को जैसे टैक्स चोरी का हथियार थमा दिया है। टैक्स अधिकारी मानते हैं कि कपड़ों के मामले में कई छोटे बिजनसमेन 1000 रुपये से ऊपर की कीमत वाले शर्ट्स के 500-600 रुपये के दो बिल बना रहे हैं ताकि उन्हें 12 प्रतिशत की जगह 5 प्रतिशत टैक्स देना पड़े। इतना ही नहीं, बिजनसमेन ने जीएसटी लागू होने से पहले 1,000 रुपये से थोड़ी ज्यादा प्राइस वाले गारमेंट्स के दाम घटाकर 1,000 रुपये से कम कर दिए ताकि उसे कम टैक्स देना पड़े। कपड़ों और बर्तनों के कुछ व्यापारी टैक्स से बचने के लिए रेलवे का इस्तेमाल कर रहे हैं। दरअसल, ट्रकों से सामान लाने पर रास्ते में उसकी चेकिंग हो जाती है, लेकिन रेल से माल ढुलाई पर चेकिंग की गुंजाइश लगभग खत्म हो जाती है और बिजनसमेन टैक्स देने से बच जाते हैं। जीएसटी से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि पहले रेलवे स्टेशनों पर चेकिंग के लिए जुटे अधिकारियों को खदेड़ने के लिए व्यापारी झुंड बनाकर पहुंचते थे। इससे अधिकारियों को छापेमारी में बहुत परेशानी होती थी। ट्रकों से माल लाने के मामले में भी सूरत के कुछ व्यापारी टैक्स बचाने की कला में माहिर हो गए हैं। इंडस्ट्री के कुछ लोगों का कहना है कि कुछ व्यापारी एक ही इनवॉइस पर तीन बार सामान दिल्ली पहुंचा देते हैं। टैक्स चोरी के इतर टैक्स क्रेडिट्स का दुरुपयोग भी टैक्स कलेक्शन में बट्टा लगा रहा है। इस काम में दिल्ली सबसे आगे है। इसके लिए फर्जी इनवॉइस तैयार करनेवाला एक रैकेट काम कर रहा है जो वैसे व्यापारियों के लिए इनवॉइस बना देता है जो योग्य नहीं होने के बाद भी इनपुट टैक्स क्रेडिट चाहते हैं।
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हैरान हुआ या दुखी समझ नहीं पा रहा हूँ गाँवों के स्कूलों के शिक्षा के स्तर के सद्य ज्ञात रिपोर्ट से…..आप भी पढ़िये और सोचिये….इस नींव पर क्या दीवार खड़ी होगी…..मुझे बिश्वास है अगर इन बच्चों के शिक्षकों से भी वही कुछ पूछा जाता तो उसका फल भी कुछ चौंकाने वाला ही होता….पढ़ने की आदत का पूर्णरूपेण ह्रास होता जा रहा है……बिना पढ़ने की दृढ़ इच्छा शक्ति कोई ज्ञान अर्जित ही नहीं किया जा सकता….न काम में , न धंधे में….बेईमानी से मिली डिग्री या बेईमानी की आय पर बढ़ता ब्यवसाय कभी आन्तरिक सुख तो दे ही नहीं सकता …… लोग कब इस सोच से जियेंगे…पिछले सत्तर सालों में शिक्षा की जो पद्धति अपनाई गई वह पूरी तरह ग़लत साबित हो रही है…. https://navbharattimes.indiatimes.com/india/36-of-teenagers-aged-14-to-18-do-not-know-the-name-of-indias-capital/articleshow/62529308.cms
– 14 से 18 साल के आधे से ज्यादा किशोरों को सैकड़े की संख्या में एक अंक से भाग देने में परेशानी हुई। 43 प्रतिशत किशोर ही इस सवाल को ठीक से हल कर सके।
– 14 साल के 53 प्रतिशत किशोर ही अंग्रेजी के वाक्य पढ़ पाए। 18 साल के यूथ में ऐसे लोगों की तादाद करीब 60 पर्सेंट रही।
– उम्र के साथ इंग्लिश पढ़ने में सुधार दिखा लेकिन गुणा-भाग में यह तेजी नहीं दिखी। 76 पर्सेंट लोग ही पैसों को सही से गिन सके। 56 पर्सेंट ही किलोग्राम में वजन जोड़ पाए।
– घंटे और मिनट के साथ 40 पर्सेंट लोग सही टाइम नहीं बता पाए। भारत का नक्शा दिखाने पर भी 14 पर्सेंट ने गलत जवाब दिया।
– भारत की राजधानी का नाम 64 पर्सेंट ने सही बताया, वहीं अपने राज्य का नाम बताने में 79 पर्सेंट लोग सही निकले।
– भारत के नक्शे पर 42 पर्सेंट ही अपने राज्य को सही पहचान पाए।
– 75 पर्सेंट यूथ ने एक हफ्ते के अंदर ही मोबाइल फोन का इस्तेमाल किया। हालांकि इसमें भी जेंडर गैप दिखा। 12 पर्सेंट लड़कों ने कभी मोबाइल फोन का इस्तेमाल नहीं किया, वहीं ऐसी लड़कियों की संख्या 22 पर्सेंट रही।
– उम्र के साथ मोबाइल फोन का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। 14 साल के किशोरों में 64 पर्सेंट ने पिछले एक हफ्ते में मोबाइल फोन का इस्तेमाल किया था, जबकि 18 साल के युवाओं में ऐसे लोगों की तादाद 82 पर्सेंट रही।
– इन युवाओं में कंप्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल बेहद कम होता दिखा। पिछले हफ्ते में 28 पर्सेंट ने इंटरनेट और 26 पर्सेंट ने कंप्यूटर का इस्तेमाल किया। 59 पर्सेंट ने कभी कंप्यूटर, तो 64 पर्सेंट ने कभी इंटरनेट इस्तेमाल नहीं किया।
– लड़कियों की इंटरनेट और मोबाइल तक पहुंच लड़कों के मुकाबले काफी कम है। जहां 49 पर्सेंट लड़कों ने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं किया, वहीं ऐसी लड़कियों की तादाद 76 पर्सेंट है।
– 85 पर्सेंट ने पिछले हफ्ते टीवी देखा। 58 पर्सेंट ने अखबार पढ़ा और 46 पर्सेंट ने पिछले हफ्ते रेडियो सुना।
– 75 पर्सेंट युवाओं के पास बैंक अकाउंट है। इसमें लड़कियों की संख्या लड़कों से कुछ ज्यादा है।
– 24 राज्यों के 26 ग्रामीण जिलों में यह सर्वे किया गया।
– – 14 से 18 साल के 86 पर्सेंट युवा औपचारिक शिक्षा ले रहे हैं। वे या तो कॉलेज में हैं या स्कूल में। इनमें से 54 पर्सेंट यूथ 10वीं या इससे नीचे की क्लास में हैं। 25 पर्सेंट 11वीं या 12वीं में हैं। 6 पर्सेंट डिग्री कोर्स में हैं। 5 पर्सेंट यूथ किसी न किसी तरह की वोकेशनल ट्रेनिंग ले रहे हैं। इन युवाओं में 42 पर्सेंट काम भी कर रहे हैं। भले ही उन्होंने स्कूल में ऐडमिशन लिया है। जो काम कर रहे हैं उनमें से 79 पर्सेंट खेती के काम में हैं।
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