लिंगायत का हिन्दूओं से अलगाव, कितने अलगावों की शुरूआत

मुझे बहुत दुख हुआ जान कि एक राजनीतिक पार्टी द्वारा हिन्दू धर्म के लोगों को बाँटने के प्रयास की शुरूआत से-कर्नाटका के लिंगायतों को अन्य धर्म का बता अल्पसंख्यक बना दिया कुछ बहके लोगों के दबाब में चुनाव में फ़ायदे के लिये सोची समझी नीति के अनुसार. यह राजनीतिक दल हिन्दू धर्म की बढ़ती शक्ति के कारण इस हिन्दू के पंथ को अल्पसंख्यक का दर्जा दे मुख्य धारा से अलग करना चाहता है. लिंगायत के प्रवर्तक वासवा ने जाति भेद को मिटाने का काम किया शिव को अपना इष्टदेव बना. शंकराचार्य से विवेकानन्द तक के बहुत संतों एवं महापुरूषों ने जाति प्रथा को मिटाना चाहा,पर सफल नहीं हुये. बहुत संतों के मरने के बाद उनके कुछ स्वार्थी शिष्यों ने अलग ही पंथ बना उसे अलग धर्म का दर्जा देने की कोशिश करते रहे. पर कुछ समन्वयी संतों के कारण हिन्दू एक बने रहे, विदेशी आतताइयों एवं देशी विश्वासघाती ब्यक्तियों के बहूत कोशिश के बावजूद. उनमें एक रहे लोकनायक रामचरित मानस रचयिता तुलसीदास. मैं तुलसीदास के समय में फैले सामाजिक समस्याओं की बात कर रहा हूँ. तत्कालीन समाज में शैवों, वैष्णवों और शाक्तों – तीनों में बहुत गहरा परस्पर विरोध था। इस ऐसी कठिन अवस्था से समाज में एकता लाने के लिये बहुत सारे भक्तिकाल के संतों ने बहुत मिहनत किया. तुलसीदास और उनकी कृतियाँ इसकी द्योतक हैं. तुलसीदास ने वैष्णवों के धर्म में एक ब्यापकता दी.उससे समय के अन्तराल से उक्त तीनों संप्रदायवादियों के बिभिन्नत्व को एक कर दिया। देखिये मानस में तुलसी के इस प्रयत्न की झाँकी, राम कहते हैं-

“शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहु नहिं भावा॥

संकर विमुख भगति चह मोरि। सो नारकीय मूढ़ मति थोरी॥”

इसी प्रकार उन्होंने वैष्णवों और शाक्त के सामंजस्य को बढ़ाया.

“नहिं तब आदि मध्य अवसाना।अमित प्रभाव बेद नहिं जाना।

भव-भव विभव पराभव कारिनि। विश्व विमोहनि स्दबस बिहारिनि॥”

…श्रुति सेतुपालक राम तुम जगदीश माया जानकी। जो सृजति जग , पालती, हरती रूख पाई कृपानिधान की….

एक और तत्कालीन मुख्य प्रचलित पुष्टिमार्ग(भक्ति के क्षेत्र में महापुभु श्रीवल्‍लभाचार्य जी का साधन मार्ग पुष्टिमार्ग) के माननेवालों को ध्येय कर कहा और इससे बढ़िया ढंग से क्या कहा जा सकता है-

“सोइ जानइ जेहु देहु जनाई। जानत तुमहि होइ जाई॥

तुमरिहि कृपा तुमहिं रघुनंदन। जानहि भगत-भगत उर चंदन॥”

साथ ही उस युग में सगुण और निर्गुण उपासकों में विरोध था। जहाँ सगुण धर्म में आचार-विचारों का महत्त्व तथा भक्ति पर बल दिया जाता था वहीं दूसरी ओर निर्गुण संत साधकों ने धर्म को अत्यंत सस्ता बना दिया था।अद्वैतवाद की चर्चा आम होती जा रही थी; किंतु उनके ज्ञान की कोरी कथनी में भावगुढ़ता एवं चिंतन का अभाव था। तुलसीदास ने ज्ञान और भक्ति के विरोध को मिटाकर वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी- “अगुनहिं सगुनहिं कछु भेदा। कहहिं संत पुरान बुधवेदा॥

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सी होई॥”

ज्ञान भी मान्य है किंतु भक्ति की अवहेलना करके नहीं। ठीक इसी प्रकार भक्ति का भी ज्ञान से विरोध नहीं है। दोनों में केवल दृष्टिकोण का थोड़ा-सा अंतर है।

बंगाल के राम कथा लिखने वाले कृतिवास ने राम से शक्ति पूजा करवाई रावण से जीतने के लिये , उसे ही आधुनिक काल में निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ में लिखा. सदियों के गायन, मंचन, प्रवचन से हिन्दू धर्म एक हो पाया. रामकृष्ण ने कहा ये सब हिन्दू धर्म के अंश है- जतो मत, ततो पंथ……आज राजनीतिक दल को उसे बाँटने का प्रयास जन शक्ति को बरगला धर्म को बाँटने ख़तरनाक खेल है जिसका कोई अन्त नहीं होगा केवल देश के बिघटन को छोड़, लोग समझ नहीं पा रहें हैं, विद्वान भी नहीं. इसका घोर बिरोध होना चाहिये….लोगों को जागना चाहिये, हिन्दूधर्म की समन्वय के दर्शन को अबाध चलते रहने देना चाहिये….कर्नाटका की भूमि जहाँ विज्ञान, तकनीकी क्षेत्र में नेतृत्व दे रहा है, यहाँ भी देना चाहिये।

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पुनश्च

देखिये लंकाकांड के प्रारम्भिक तीन श्लोक तुलसीदास जी के राम चरित मानस से-

रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं

योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।

मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं

वंदे कंदावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥ 1॥

कामदेव के शत्रु शिव के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरनेवाले, कालरूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृंद के एकमात्र देवता (रक्षक), जलवाले मेघ के समान सुंदर श्याम, कमल के से नेत्रवाले, पृथ्वीपति (राजा) के रूप में परमदेव राम की मैं वंदना करता हूँ॥ 1॥

शंखेन्द्वाभमतीवसुंदरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं

कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्‌।

काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं

नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कंदर्पहं शंकरम्‌॥ 2॥

शंख और चंद्रमा की-सी कांति के अत्यंत सुंदर शरीरवाले, व्याघ्रचर्म के वस्त्रवाले, काल के समान (अथवा काले रंग के) भयानक सर्पों का भूषण धारण करनेवाले, गंगा और चंद्रमा के प्रेमी, काशीपति, कलियुग के पाप समूह का नाश करनेवाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों के निधान और कामदेव को भस्म करनेवाले, पार्वती पति वंदनीय शंकर को मैं नमस्कार करता हूँ॥ 2॥

यो ददाति सतां शंभुः कैवल्यमपि दुर्लभम्‌।

खलानां दंडकृद्योऽसौ शंकरः शं तनोतु मे॥ 3॥

जो सत पुरुषों को अत्यंत दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दे डालते हैं और जो दुष्टों को दंड देनेवाले हैं, वे कल्याणकारी शंभु मेरे कल्याण का विस्तार करें॥ 3॥

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