10.2.2017
कल नोयडा में भोट है. किस पार्टी को यू. पी. के चुनाव में जीतना चाहिये? मीडिया के रिपोर्टों से यही लगता कि पार्टी की जीत जातिय समीकरण एवं अल्पसंख्यकों के झुकाव पर निर्भर है. मेरे ख़्याल से भारत के सबसे बडी समस्याओं में है बहुसंख्यक हिन्दुओं में अभी तक घर बनाई हुई जाति प्रथा. जाति प्रथा पर आधारित भेद भाव, एक दूसरे से बडा या छोटा समझने की मानसिकता, यहाँ तक कि जाति के आधार पर जीवन यापन के कार्य का चयन पूरी तरह से अवैज्ञानिक और सामाजिक है. जो दल इस जाति प्रथा को मिटा सकता है वही देश के लिये श्रेय है. दूसरी समस्या है कि सबसे बड़े अल्पसंख्यक सम्प्रदाय के अधिकांश लोग कुछ फैलाई हुई ग़लतफ़हमियों के कारण सबसे बड़े राष्ट्रीय पार्टी भाजपा को केवल हर जगह से हरवाने के लिये एक जुट हो भोट का निर्णय लेते हैं जो प्रजातंत्र एवं समाजिक सद्भावना को बनाये रखने के लिये ग़लत है. साथ ही यह भी ज़रूरी है कि वह पार्टी किसी परिवार विशेष या व्यक्ति विशेष की मालिकाना न हो. मेरे बिचार से और यू.पी के नोयडा में रहते हुये अनेक सालों के अनुभव से यह कह सकता हूँ कि समाजवादी पार्टी मुलायम परिवार की कम्पनी है और अभी अभी इस पार्टी के नवयुवक मालिक ने एक दूसरी ख़त्म होती पारिवारिक पार्टी के नवयुवक कर्णधार से यू.पी के चुनाव में एक साथ लड़ने का निर्णय लिया है. बहुजन समाज पार्टी भी मायावती की मालिकाना है. पर इन कमियों के बावजूद यू.पी में यही पार्टियाँ जीतती रही हैं. कैसे कहूँ कि यह ठीक है या ग़लत. पता नहीं उम्मीदवार की ईमानदारी और योग्यता कोई मायने रखती है कि नहीं. यह कैसा प्रजातंत्र है जहाँ पैसे की ताक़त, सम्प्रदाय , जाति, और पार्टी की छवि निर्णय करती है जीत? अत: सोचता हूँ क्यों भोट दूँ, जो ग़लत होगा?
5.2.2017
कैसा प्रजातंत्र है जहाँ भक्तों की भीड़ और भक्ति एक गुनाहगार अयोग्य महिला को एक सभी मापदंडों पर अति उन्नत प्रान्त की मुख्य मंत्री बना देती है, कैसा है यह हमारा संविधान, प्रश्न उठता है मन में. जिस महिला के बारे में केवल यही मालूम है कि वह असीम सम्पति की मालिक है जयललिता की सखी या सेवक रही है. तमिलनाडू की बिद्वद वर्ग के पास, संबिधान, केन्द्र सरकार या सर्व्वोच्च न्यायलय के पास कोई बेहतर बिकल्प नहीं……अद्भुत है देश देश मेरा, जहाँ कभ मनमोहन सिंह को प्रधान मंत्री बना देती है , कभी राबड़ी देबी को पति लालू मुख्य मंत्री . क्या यही प्रजातंत्र है ?…,
3.2..2017
मुझे नालन्दा विश्वविद्यालय सम्बन्धित चिन्ता और आक्रोश अच्छा लगा. २००६ में और से इस विषय पर बहुत लिखा था. पर फिर लगा अमर्त्य सेन की तरह हस्ती के बिरूद्ध कुछ नहीं किया जा सकता. नालन्दा को नीतीश अपने बिहार को एक अपने अवदान की तरह ले सकते थे, श्री N K Singh भी अपने सम्पर्कों से बहुत कुछ कर सकते थे. पर ये सभी पीछे हट गये. अगर कुछ अब भी करना है तो बिहार के देश और परदेश में रहनेवाले होनहार शिक्षित वर्ग का नये बनते नालन्दा विश्वविद्यालय के बारे में कोई ठोस बिचार या रोडमैप तैयार होना चाहिये. उसके बाद उस रोडमैप को लेकर श्रीमती सुषमा स्वराज को देना चाहिये और विश्वबिद्यालय के नये उपकुलपति को भी. श्री नीतीश कुमार को भी विश्वास में लेना ज़रूरी है. यह विश्वविद्यालय दुनिया के सभी बिश्वविद्यालयों से अच्छा और अलग हो….एशिया के सभी मुख्य बौद्ध देश के लिये अभिमान हो….एक कोर ग्रुप बने जो सभी देश के राजज्ञों से सम्पर्क कर उन देशों को नालन्दा के साथ जोड़े. पास में एक एशिया नगर बसे क्षेत्र में मेल जोल बढ़ाने के लिये….नालन्दा, बिकर्मशिला, बौद्ध गया का क्षेत्र दुनिया का एक अनूठा शान्ति क्षेत्र में परिवर्तित हो जाये, जिसे देखने देश देशान्तर से लोग आयें…”
आश्चर्य होता है नई पीढ़ी के नेताओं की राजनीतिक दाँवपेंच को देख और पता नहीं कैसे नई पीढ़ी का युवावर्ग उनमे अपना नेता खोज लेता है और बिना किसी गम्भीर चिन्तन के उनके पीछे चल पड़ता है. राहुल, अरविन्द केजरीवाल, अखिलेश की तरफ़ देश के लोगों की नज़र है. पाँच प्रदेशों के होने जा रहे चुनाव इनकी क्षमता का परिचायक भी होगा. शायद जीत भी जाये लोगों को फिर एक बार झाँसा दे. राहुल में मुझे गम्भीर नेता की झलक नहीं मिलती , न उनके ब्यक्तब्यों में कोई देश की उत्थान का कोई नये रास्ता का ख़ाका दिखता है. पर वे भारत का परधान मंत्री बनना चाहते है नेहरू, इंदिरा के बंशज होने के कारण, बिना संसद में कोई प्रतिभा दिखाये, बिना कोई ज़िम्मेदारी का पदभार संभाले. लगता है अखिलेश उत्तर प्रदेश की राजनीति तक ही अपने को सीमित रखना चाहते है. फिर जब वे अपने परिवार को जोड़े रखने में सक्षम नहीं हो पाये, तो कैसे आशा की जाये कि बहुत सारी अन्य पार्टियों को मिला वे आगे बढ़ सकते हैं. अरविन्द मीडिया के बनाये नेता हैं. आश्चर्य तब होता है जब पंजाब या गोवा में उनसे कोई यह एक साधारण सवाल नहीं पूछता कि उन्होंने दिल्ली में कौन सा तीर मार लिया जो पंजाब और गोवा में कर लेंगे. क्या अरविन्द दिल्ली की तरह छोटी जगह में वहाँ के लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने की दिशा में कुछ युगान्तकारी क़दम उठाये. आश्चर्य तब होता है जब सभी इन्हें युवाओं के नेता कहते है. क्या आज के युवक एक योग्य नेता में क्या होना चाहते वह भी नहीं जानते, समझते……
अद्भुत बंगाल- बहुसंख्यक हिन्दू कहाँ जायें? उलूबेरिया मुझे अच्छी तरह याद है. बिरलापुर से हुगली पार कर उलूबेरिया से मैं खडगपुर (IIT)जाता था. इसी उलूबेरिया के पास के एक स्कूल की यह घटना है. बंगाल में बडी धूमधाम के साथ सरस्वती पूजा मनाने की प्रथा बहूत साल पुरानी है. हमारे बिरलापुर विद्यालय में भी थी. इस साल ममता बनर्जी के बंगाल के उलूबेरिया के पास के एक स्कूल में दसकों बाद सरस्वती पूजा नहीं मनाया जा सका क्योंकि अल्पसंख्यक वर्ग ने इसका बिरोध किया, वे नबी दिवस मनाना चाहते थे. यह नये झगड़े बढती समाजिक कलह की निशानी है. बंगाल के हिन्दू विभाजन का सभी दर्द भूल गये हैं या ममता सरकार के डर से अपने धर्म के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं. यह उनकी नपुंसकता है या उदासीनता. ममता हिन्दूओं को क्या संदेश देना चाहती है? क्या वे अपने ही देश में मुग़ल काल की स्थिति में जीवन यापन करें सेक्यूलर राष्ट्र के नाम पर या ममता को अल्प संख्यकों का भोट दिलाने के लिये. मुझे कल आश्चर्य तब हुआ जब राज्यसभा में प्रख्यात पत्रकार स्वप्न दासगुप्ता इस विषय पर अपना बिचार रख रहे थे उन्हें ममता बनर्जी की पार्टी के सदस्य बोलने नहीं दे रहे थे. यह कैसा प्रजातंत्र है…..क्या गांधी और नेहरू यही चाहते थे? और वे अगर चाहते भी थे आज का कोई आत्मसम्मान वाला हिन्दू क्या इसे बर्दास्त करेगा?
इतिहास और फ़िल्म या सीरियल: (पहली बात,… चाहे ‘करनी सेना हो या जल्लीकट्टू के वे लोग जो मरीना बीच पर आज भी जमे हुये हैं. यह सरासर ग़ैरक़ानूनी है, और बिचार स्वतंत्रता के नाम पर देश को पीछे ढढकेलते रहने की साज़िश है. यह कैसा राज्य सरकार की गुप्तचर और पुलिस ब्यवस्था है कि किसी को कभी भी हंगामा और उपद्रव करने का अधिकार है और पुलिस इसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेती. मुझे मालूम नहीं लीला बंसाली पद्मिनी की कहानी को कैसे मरोड़ा है और लोग क्यों इतने ख़फ़ा हो गये करनी सेनावाले कि मारधाड़ की नौबत आ गई. पर लीला बंसाली ज़िम्मेदार फ़िल्म बनानेवाले हैं , बाजीराव मस्तानी उसका उदाहरण था. देश की बौद्धिक परिपक्वता के अभाव में लोगों को बरगलाना आसान है. इतिहास जो हो हमें बचपन में जो पढ़ाया गया, और टूरिष्ट की तरह जो चित्तौड़गढ़ में बताया गया, पद्मिनी देश, धर्म और समाज की आदर्श महिला का है. पर आज इतिहास या धर्म ग्रंथों के नायकों के कथानक और चरित्र को मरोड़ कर लोक मान्यता से हट कर अपने देश में नहीं करना ही बेहतर है. अच्छा होता अगर ये निर्देशक और निर्माता ऐसा नहीं करते. कुछ दिनों से पता नहीं क्यों अशोक और चन्द्रगुप्त मौर्य पर टी वी सीरियल बनाने का दौर चल रहा है. ‘चन्द्र नन्दिनी’ चन्द्रगुप्त मौर्य की कहानी चल रही है स्टार प्लस चैनल पर, पर गढ़े गये घटिया सम्बन्धों को सस्ते ढंग से ऐसे दिखाया जा रहा है जो असहनीय है किसी इतिहास के जानकार को. चन्द्रगुप्त मौर्य या अशोक या अकबर के नाम ब्यवहार कर फ़िल्म या सीरियल बनाना और दिखाना क्यों ज़रूरी है? यही बात समाज द्वारा पूज्य देवी देवताओं की कहानियों के बारे में भी ख़्याल रखना चाहिये. नये रिसर्च की जानकारी को पहले समाचार पत्रों या लेखों के द्वारा लोगों तक पहुँचाना चा हिये.
२७.१.२०१७:
कटियार और शरद यादव के नारी सौन्दर्य के बयानों को लेकर सोचने पर कुछ कुछ वैसा लगता है जैसा अमीर खान का दंगल में लड़कियों को लड़कों से कुश्ती कराने पर कुछ लोगों ने किया था…..राजनीति में उतरने पर फिर नारी पुरूष का कहाँ भेद रखना जायज़ है….वह भेद आजकल आम जीवन व्यवहार में भी न सिखाया जाता है न कोई आज सीखना चाहता है….बेकार में टी.वी चैनलों पर यह चर्चा हो रही है…वैसे तो टीवी और पत्रकारिता का माध्यम का स्तर और ब्यवसायिककरण असहनीय होता जा रहा है…)
२२.१.२०१७
जल्लीकट्टू को मनाने की स्वतंत्रता की माँग में लाखों की स्वत: जुटती गई भीड़ और बिहार में सरकारी तंत्र द्वारा जमा की गई शराबबन्दी के समर्थन में रची गई करोड़ की मानव श्रृंखला बहुत प्रश्न खड़ी करती है. पहला प्रश्न -क्या भीड़ इस बात का द्योतक नहीं कि कहीं कुछ ग़लत है? क्या अगर हम किसी माँग के लिये भीड़ जुटा सकते हैं चाहे संरक्षण हो या अन्य सामान्य माँगें, तो वह माँग देशहित जायज़ है? क्या यह संविधान संगत है? क्या पता कल एक दूसरी भीड़ किसी दूसरी तरह से जमा कर ली जाये उस माँग के बिरोध में. देश को नेतृत्व देनेवाले लोगों को तय करना होगा कल के लिये क्या यह तरीक़ा ठीक ह बहुत जल्द, बहुत देरी होती जा रही है?????????? क्या हम पिछड़ते जा रहे हैं अपने देशहित ज़रूरी ध्येय से , प्रगति के रास्ते से…)
२६.१.२०१७: (६८वां गणतंत्र दिवस, हर साल की तरह टीवी पर परेड देखने की इच्छा थी, पिछले कितने सालों से यही करता रहा हूँ. एक अलग तरह से देश की प्रगति को समझने का प्रयत्न रहता है. पहले तो दिल्ली दूर थी पर १९९७ से तो नोयडा ही घर हो गया, पर कभी साहस नहीं हुआ कि परेड देखने चला चला जाये. आज जब झंडोत्तोलन के लिये कहा गया तो अपना विचार ब्यक्त किया कि यह सौभाग्य सबसे बडी उम्र के ब्यक्ति को मिलना चाहिये. पता चला कि मैं ही वह हूँ , आश्चर्य हुआ पर कुछ ज़िम्मेदारी का अहसास भी हुआ. इस अवसर पर दो इच्छा ब्यक्त की उपस्थित लोगों के साथ- एक, बच्चों में पढ़ने की आदत को बढ़ाने के लिये एक छोटी पर अच्छी पुस्तकों के लाइब्रेरी की; दूसरी, नये बनते सामुदायिक भवन के पास की ख़ाली ज़मीन में स्कूली बच्चों के खेलने का मैदान बनाने की कोशिश. सभी का स्वागत है इस प्रोजेक्ट में जुड़ने के लिये. F-ब्लॉक की ऊँची ऊँची वासस्थानों में इसकी ब्यवस्था ही नहीं रखी गई है…अगर यह पहल सफल नहीं हुई तो ज़मीन बिल्डरों के हाथ चली जायेगी…स्कूल के बाद लड़के क्या करें ..खेलने का मैदान ज़रूरी है, इसकी सभी सेक्टरों में कमी है…अगर नोयडा अॉथरिटी वाले मान जायें तो अच्छा हो……