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स्वच्छ भारत ही स्वस्थ भारत और समृद्ध भारत बन सकता है. यह देश को विश्व में एक आदर का स्थान देगा. यह स्वाभिमान लायेगा. यह बीमारियों के कारणों को हटाने में मदद करेगा. हर को प्रसन्न और शारीरिक सामर्थ्यवान बनायेगा. यह लक्ष्य एक राष्ट्रव्यापी अभियान और आन्दोलन के ज़रिये ही सम्भव है, जिसमें देश के हर युवा और युवतियों का सम्मिलित होना ज़रूरी है. और इसमें जुड़ उनमें अभिमान बोध होना भी ज़रूरी है. इस दायित्व को गाँव, पंचायत, झुग्गी बस्तियों तक पहुँचाना ज़रूरी है. इसमें रेडियो, टी.वी. के हर चैनलों के सहयोग की ज़रूरत है. आज के हर घर तक पहुँचे मोबाइल फ़ोन पर सबेरे शाम इसके बारे में बताया जाये. डिजीटल तरीक़ों से यह समाजिक लड़ाई लड़ी जाये. हर देश अभिमानी इसमें भाग ले गर्व अनुभव करे. आख़िर यही तो अन्तर रह गया है अपने देश को उन्नत देशों के श्रेणी में आने में. यही अस्वच्छता और हमारे कुछ लोगों का घिनौना व्यवहार और आचरण विदेशों के लाखों लोगों के दिमाग़ में एक अस्वच्छ भारत का डर बना देता है और उन्हें इस देश में बड़ी संख्या में भ्रमण के लिये आने से रोकता है. यहाँ तक कि अमरीका के लाखों भारतीय मूल के भी सम्पन्न लोग दूसरे आकर्षक देशों में जाते हैं और भारत नहीं आते. पिछले दिनों ही मेरे लड़के ने भारत आ दक्षिण में केरल की यात्रा की थी और उस सबसे शिक्षित प्रदेश को भी बहुत ही अस्वच्छ पाया. मेरी बात कुछ बुज़ुर्गों से हुई. कोई भारत के तीर्थस्थलों में चाहते हुये भी वंहा की गन्दगी के चलते नहीं आना चाहता. हमारे उच्चतम शिक्षा पाये लोग भी इन बिषयों में न रूचि रखते हैं न कुछ करते हैं. क्या हज़ारों के संख्या में आई. आई. टी. से शिक्षित और आज अवकाश प्राप्त बंगाल के लोग यह बता सकते हैं कि बांग्ला देश जो हमसे बहुत पीछे था ‘खुले में मलत्याग’ के बारे में भारत से आगे कैसे हो गया? सदियों से जिस भारत का, ढाका का नहीं, कपड़ा ब्यवसाय दुनिया में सबसे आगे था हज़ार साल पहले, आज बांग्ला देश भारत से आगे कैसे हो गया? क्या उनकी की कोई ज़िम्मेवारी नहीं है अपने प्रान्त के लिये कुछ करने की दिशा में? स्वच्छ भारत अभियान न सही, Skill India या Stand up India में हीं कुछ योगदान करें ….. हर भारतीय को अपनी कमियों को सुधारने पर कुछ ध्यान देना चाहिये, न कि व्यर्थ की राजनीतिक गतिविधियों पर….
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कृषि, कृषक, और बिहार: आजकल कृषकों की आमदनी को दुगुना करने की बात काफ़ी चर्चा में है. मेरे कुछ बिचार यहाँ है. बिहार के कृषि की उत्पादकता के कम होने के कुछ ख़ास कारण है मेरे बिचार से और इस पर सरकार और खेती में लगे परिवारों को सोचना चाहिये. १. काफ़ी ज़मीनों के मालिक खेती नहीं करते, अपनी ज़मीन को अलग अलग तरह के भाड़े पर चढ़ा सालाना उसकी भाड़े की रक़म पहले या नियत समय पर ले लेते हैं. अत: तय भाड़ा मिलते रहने पर ज़मीन और उसके पैदावार की उत्पादकता में उनका स्वार्थ क्या और कितना होगा? इस ब्यवस्था में सरकारी सहायता-सूखे या बाढ़ से नुक़सान की राहत राशि या अन्य सुविधा, किसको मिलना चाहिये? साथ ही ऐसी ब्यवस्था में ज़मीन की लम्बे समय तक उत्पादकता बनाये रखने या बढ़ाने के लिये ज़रूरी किसी निवेश में कौन धन लगायेगा? इस समस्या का पहल ज़रूरी है. ज़मीन के सही मालिकाना को जानना ज़रूरी है. २. खेती में लगे लोगों को शायद ही खेती की उत्पादकता के लिये ज़रूरी बैज्ञानिक या तकनीकी ज्ञान या जानकारी कभी मिली होती है. कैसा होता आया है या गाँव के अच्छे पैदावार करनेवाले क्या करते हैं- बस यही कोई किसान भी करता है. क्यों नहीं गाँव के बिद्यालयों में कक्षा ५ से ८ तक कृषि सम्बन्धित सामान्य ज्ञान दिया जाये? ३. पीढ़ी दर पीढ़ी बँटती जाने के कारण किसान परिवार की ज़मीन भी कम होती जा रहीं हैं जो केवल कृषि द्वारा परिवार के भरण पोषण के लिये काफ़ी नहीं है या रहेगी. इस समस्या का कोई क़ानूनी हल निकालना ज़रूरी है. ४. कृषि के लिये नहर और खेततक पहुँचने वाले नालों या अन्य सिंचाई के साधनों का समय समय मरम्मत के लिये हर पंचायत को दायित्व और अधिकार देने की पहल भी ज़रूरी है, जिसे मनरेगा के माध्यम से कराया जा सके. ५. हर कृषक को अपनी कृषि समस्या को सुलझाने के लिये किस जानकार ब्यक्ति से सम्पर्क करना है मालूम होना चाहिये. कृषि आज बैज्ञानिक पद्धति से ही आगे बढ़ सकती है. इसके लिये ज़रूरी है कृषक का शिक्षित और समझदार होना, नई पद्धतियों को ब्यवहार में लाना, उत्पादकता पर ध्यान देना, ब्यवसायिक तरह से लाभ के लिये खेती करना. गाँवों में अभी बहुत लोग हैं जो कृषि में नये नये प्रयोग कर रहे हैं. पारम्परिक फ़सलों से हट ज़्यादा फ़ायदा देनेवाले फ़सलों की ओर जा रहे हैं; सब्ज़ियाँ, फल, तेलहन, दाल उगा रहे हैं. पर बिहार का सामान्य किसान उत्पादकता की दृष्टि में काफ़ी पिछड़ा है और काफ़ी कुछ किया जा सकता है. अगर कृषि को समय रहते आकर्षक न बनाया गया और गाँवों में शिक्षा और स्वास्थ्य आदि ब्यवस्था को शहरों की बराबरी का न बनाया गया तो कृषि का भविष्य कंहा जायेगा पता नहीं…
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भूमिहार जाति और जातिवाद : जाति गर्व किसे नहीं होता, पर तब तक जब तक जाति के लोग सम्मानित कामों द्वारा यश अर्जित कर समाचार में बने रहते हों ज़्यादा से ज्यादा संख्या में. बहुत बचपन में हमें पढ़ाने के लिये घर पर रखे गये थे एक मास्टरजी- गंगा दयाल पांडे. वे स्वजातीय थे और उनका जाति प्रेम हमें काफ़ी प्रभावित किया था. उन्होंने हमें ब्राह्मण की पहचान बताई- पढ़ना, पढ़ाना. दिमाग़ में बात इतने गहरे जा बैठी कि आजतक बस वही चल रहा है. कलकत्ता की पढ़ाई और देश बिदेश के प्रवास से मैं जाति से ऊपर उठ गया.मैंने अपने बच्चों से जाति, गोत्र की बात कभी नहीं की. आज उन्हें इसकी ज़रूरत नहीं. कलकत्ता में मेरा स्वजातियों से मतभेद इस बात पर हुआ कि मैं उन्हें ब्राह्मण देखना चाहता था, वे इसे समझते न थे. आज भी हम कितना तैयार हैं बदलने के लिये. अपने गाँव को देखता हूँ- अच्छी पढ़ाई के महत्व को स्वजातीय समझते नहीं, लड़कों पर ख़र्चा तो करते हैं पर श्रेष्ठ पढ़ाई के लिये नहीं, जिससे वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके, अच्छी ज़िन्दगी जी सके. किसी जानकार से सलाह भी नहीं लेते. लड़कियों की पढ़ाई पर तो सोचा ही नहीं जाता. किसी तरह पढ़ा शादी कर घर से दूर कर भार मुक्त हो जाना चाहते हैं अभी भी, जो धीरे धीरे कठिन होता जा रहा है. लड़कों की पढ़ाई के लिये तो लोग खेत भी बेंच देते हैं. पर हम अपनी लड़की को पढ़ाने के लिये भी खेत नहीं बेंच सकते हैं, न उसे अपनी राय बनाने में मदद कर सकते हैं कि वह क्या पढ़े, किससे शादी करे और कौन ब्यवसाय करे. हाँ, मजबूरी में उसकी शादी के लिये खेत ज़रूर बेंच देते हैं.क्या हम तिलक न लेने और न देने का प्रण कर सकते हैं? हम अभी भी झूठी शान में शादियों में लड़की के बाप से लिये पैसे को बेपरवाह ख़र्च करते हैं.
हम खेतिहर हैं पर क्या हम अपने को खेतिहर कहलाने के बावजूद अपने खेतों में ख़ुद खेती कर सकते हैं या मज़दूर के आसरे पर ही करते हैं? हम खेती को शायद ही ब्यवसाय या तकनीकी ज्ञान के साथ सबसे बढ़ियाँ करने की कोशिश करते हैं. गाय, भैंस के पालन को बढ़ावा नहीं देते, न दूध उत्पादन को ब्यवसाय की तरह लेते हैं. हम सब्ज़ी और फल नहीं उगाते और उसे छोटी या ख़ास जाति का काम बताते हैं.
अभी हम बहुत पिछड़े हैं, हम एक शौचालय तो बना लेते हैं, पर उसको अपने से बढ़ियाँ ढंग से साफ़ नहीं कर सकते हैं. हम दूसरी जातियों के लिये नमूना नहीं बनते और धूर्तता, उदंडता और बल प्रयोग को जाति की पहचान मानते हैं………वे जाति के नाम पर बिहार के किसी बाहुबली या राज नारायण को रामधारी सिंह दिनकर की बराबरी में खड़ा कर देते हैं….कोई कन्हैया प्रसाद को महान बना देता है…..
अब ७६ साल का हूँ, …जिन्हें मेरी राय पसन्द नहीं, मत मानिये….आपका बिचार आपको मुबारक…..पर जाति, जाति का नारा लगा जाति को बदनाम न करें. और कम से कम इस लेख को मेरी राय समझ सकारात्मक भाव से देखें…..मेरी जीवन कहानी एक खुली किताब है और सभी पढ़ सकते हैं https://drishtikona.files.wordpress.com/2012/08/over-the-years1.pdf . मैंने पूर्वजों के आशीर्वाद और ईश्वर की कृपा से वह सब पाया जो एक आम आदमी की चाहत होती है. बच्चे भी तीनों अच्छी पढ़ाई कर ढीकढाक जीवन जी रहे हैं. दो की शादी स्वजातीय और अपनी तरह के ही नौकरी पेशा वाले परिवार में हुई. पहली शादी में किसी अपरिपक्व ब्यक्ति के बहकावे और आर्थिक भार के कारण तिलक लेना चाहता था. पर समय रहते भूल का अहसास हो गया. अब मेरे सभी बच्चे आज भारत के बाहर हैं और शायद ही लौटे. अपनी कहानी उन्हीं बच्चों के लिये लिखी है. शायद कभी उन्हे अपने दादा-दादी के बारे में जानने की इच्छा हो. मुझे इस बात का दुख होता है जब हमारे भाइयों को लड़की की शादी में इतनी बड़ी राशि तिलक में देना पड़ता है. शायद उसके लिये ज़मीन भी बेंचनी पड़ती है. पर शायद कुछ हद तक वे भी दोषी हैं. पर मैं इसमें दख़लंदाज़ी नहीं देता. साथ ही दुख इस बात का भी है कि तिलक देने के बावजूद भी ग़लत चुनाव के कारण मेरे बृहत् परिवार की दो बहनें अल्प उम्र में विधवा हो गईं, जिसे भाग्य की बात समझ भूला नहीं सकता. अभी भी उन परिवारों में विधवा बिबाह की बात सोची भी नहीं जा सकती. मेरा सुझाव केवल यही है कि जाति का हर बच्चा जीवन में सफल हो, यह शिक्षा द्वारा हीं सम्भव है. इसके लिये जागरूकता पैदा करने की ज़रूरत है. दहेज, बाल/बिधवा-बिबाह सम्बन्धी कुप्रथाएं मिट जायें, और कुछ नहीं…
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कुछ बातें मुझे परेशान कर जाती हैं और कुछ सोचने के बाद आनन्दित भी. क्या वह कारण है कि हिन्दुस्तान की अधिकांश आबादी एक साथ वैष्णव, शैव, शाक्त बनी रहने में सक्षम हो गईं एक ऐसी परिस्थिति से जंहा वे एक दूसरे के जानी दुश्मन हुआ करते थे? नई पीढ़ी को तो इसका आभास भी नहीं है. जैन, बौद्ध, सिख भी परिवार के अंग बन गये. इस्लाम, ईसाई बहुत पीढ़ियों पहले आये और बहुत समय तक किसी टकराव में नहीं गये. फिर क्या उन्हीं उदार विचारों को यह स्वतंत्र भारत अपनाने का निर्णय नहीं ले सकता और अगर राजनीति आड़े आती है तो कोई समर्थ जननायक देश को राजनीति से मुक्त नहीं कर सकता? कुछ लोग सोच सकते हैं ‘मैं हिन्दू हूँ या नहीं?’ अब मुझे यह प्रश्न भी कभी कभी चिन्तित करने लगा है.
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मोदी मुझे पसन्द हैं. कारण हैं मेरी मानसिकता. मोदी कुछ नयी बात कुछ नयी तरह से कहते रहें हैंऔर कुछ नया करने की बात सीधे आम लोगों से इस तरह कहते हैं कि ब्यक्ति अगर ज़रा भी संबेदनसील हो तो उसे प्रभावित करती है. उनकी बातों में किसी ब्यक्तिगत स्वार्थ की गंध नहीं आती. वे साहसी है और शायद सच्चे अर्थों में बीर और वीर भी. वीररभोग्या बसुन्धरा है, अत: अपने पद की योग्यता रखते हैं. वे पहले प्रदेश और अब देश को उन्नत देशों की पंक्ति में या उनमें सबसे ऊपर लाने के एकमात्र लक्ष्य के लिये कटिबद्ध हैं. अगर देश की जनता उनके साथ रही तो यह बहुत सम्भव हो भी जाये. नई तकनीकों के उचित उपयोग को अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सीखते हैं और उपयोग में ला रहे हैं. लगातार देश के आम आदमियों से लेकर उन सभी लोगों से, जो देश की लक्ष्य प्राप्ति के लिये काम करते हैं, सीधे बातें करते रहतें हैं. इससे आशा बँधती है कि वे देश की उन्नति के विश्वीय लक्ष्य को समय से पहले प्राप्त करने में सफल भी हो जायें. और इतना सब करने के बावजूद प्रजातंत्र की भोट देनेवाली जनता उन्हें नकार दे तो वे एक मात्र नेता हैं जो झोला उठा हिमालय भ्रमण पर निकल जाने का साहस रखते हैं. पूरी ज़िन्दगी ही ऐसे ही बनाई है. देखना है भविष्य देश हित उनका साथ देता है या नहीं.
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उम्र की किसी दौर में भी रिश्तों की अहमियत बरक़रार रहती है, पर विशेषकर उम्र के साथ ज्यादा ज़रूरी बनती जाती है . हम पुरानी पीढ़ी वाले इसके बारे में ज्यादा चिन्ता करते थे. आज लोग प्रश्न करने लगें हैं इनकी ज़रूरतों पर विशेषकर नई पीढ़ी. मैं तो रो-गा के अकेला था. कोशिश किया उन्हें ख़ुश रखने के लिये जीवन के संध्याकालीन में. अच्छा बुरा जो भी किया माँ पिताजी के लिये वे सह लिये, हो सकता है सहना उनकी मजबूरी रही होगी. मैं कभी जानने की भी कोशिश नहीं की. यह मेरी ग़लती रही. पर प्रश्न यह थोड़ा गम्भीर तब हो जाता है जब आपके एक से ज्यादा बच्चे हों. समस्या दो है- पहला, कैसे हम अपने बच्चों का प्यार और श्रद्धा पा सकें और रिश्ते को आजीवन मधुर बनाये रहें. कैसे माँ बाप उनके साथ बराबर प्रेम करें और बच्चे भी इसे दिल से मान लें? कैसे कोई दुर्भावना नहीं आये रिश्तों में? दूसरा, हमारा व्यवहार कैसा हो कि हमारे सभी बच्चों में आपस में भी सौहार्दपूर्ण आदर्श रिश्ता बना रहे. क्या यह सम्भव है और कैसे यह सम्भव है? क्या यह गणित के हिसाब से किया जा सकता है या इस विषय पर भी अध्ययन और अभ्यास की ज़रूरत है? चाहता हूँ हम बुज़ुर्ग इस विषय पर एक दूसरों को अपना राय दें…हिन्दी में ही मैं इसे लिख सका ठीक से… आप अपनी राय अंग्रेज़ी में भी दें, कोई बात नहीं.