कुछ कहा, कुछ अनकहा

कुछ कहा, कुछ अनकहा

28
उम्र ने बहुत कुछ सिखाया है

प्यार का मंत्र कुछ बताया है

नज़दीक़ियाँ दूर से अच्छी रहती

सुंदर सुहाने सपने सी

पास आतीं तो दर्द देती हैं

सुख चैन सब ले लेतीं हैं 

इससे तो दूरियाँ अच्छी

एक आस ज़िन्दा रखती है

शायद वह भी बदल जाये

रहते समय संवर जाये

चाहा जो प्यार दे जाये

यह आश ले तो जीते हैं

रस बाक़ी जो है पीते हैं.

29

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर: एकमात्र शिक्षा ही रास्ता है, इसीलिये सरस्वती का महत्व हज़ारों साल पहले हमारे पूर्वजों ने समझा. हर ब्लाक में एक कस्तुरबा गांधी बिद्यालय हमारी माँग है या अपील……प्रौढ़ महिलाओं को रेडियो, टी.वी. के सभी समाचार और मनोरंजनों के चैनलों के ज़रिये ज़रूरी ज्ञान एवं दक्षता की शिक्षा देने की कोशिश होनी चाहिये, और शिक्षकों को बच्चों को अपनी मॉ को पढ़ाने का पहल करना चाहिये…

30

कुछ साल पहले गाँव में था, होली के गानों की अश्लीलता हमें पिछड़ों से भी पिछड़ों की श्रेणी में ला दी है….

31

कन्हैया का रिसर्च कब तक चलेगा मुझे मालूम नहीं, पर भी. सी. को चाहिये कि उसको उसके अपने गाँव में एक प्रोजेक्ट दे दो साल का. जिसमें उसे गाँव को समृद्धि के रास्ते पर जाने के लिये लोगों को उपाय सुझाना हो. अगर लोग उसके कहे रास्ते पर चलने लगें तो उसको डिग्री दे देनी चाहिये अन्यथा नहीं. उसके प्रोफ़ेसर को भी गाँव जा उसकी सहायता करनी चाहिये. 

32

अमिताभ ठाकुर आज उत्तर प्रदेश के सी. एम. आवास के बाहर रास्ते के बीचोंबीच धरने पर बैठा है. यहीं आ पता लगता है सरकारी नौकरी की तकलीफ़….पर यह रास्ता कोई समाधान शायद ही दे….. तकलीफ़ होता है यह देख कर….. क्या इसे ही जनता की सरकार कहते हैं …….अमिताभ की जगह हम अपने को असहाय समझने लगते हैं….. कोई तथाकथित महानुभाव कुछ कहते करते क्यों नहीं…और आई.पी.एस. के संगी साथी…..या और कोई बीच में क्यों नहीं आता…….

33

मार्च १२, पिछले ६ दिन से बरसात का मौसम बना हुआ है…. मौसम दिल्ली में भी शायद ही ऐसा था….. लोगों की नज़र लग जाती है किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम पर. जो बोलते हैं बिरोध में, उनका क्या लिया है यह ब्यक्ति…..लोग दूसरों को किसी ब्यक्ति या बिचार के प्रति आदर और श्रद्धा भी नहीं रखने देंगे…..(रविशंकर AOL)

34

बूढ़ों का जनसंख्या में प्रतिशत बढ़ता जा रहा है, उसका प्रभाव ख़ुशी के मान दंड (Happiness Index) पर भी पड़ रहा है…. 

भूमिहार की गौरवगाथा कबतक संतोष दिलायेगी, अपनी गौरवगाथा लिखो, अनुकरणीय भारतीय बन कर. कुछ करो ऐसा जो दूसरों के दिल में एक आग जला दे तुम्हारी तरह बनने का.

35

17.3.2016 जया भादुड़ी शायद ठीक कह रहीं है. डर है कहीं चर्चिल की भारत के भविष्य के बारे कही बात सत्य न हो जाये. जाटों का संरक्षण की लड़ाई, स्वर्णकारों का टैक्स के बिरोध में प्रदर्शन क्या यह सभी इसी का संकेत नहीं. एक मुस्लिम नेता का ‘भारत माता की जय’ का बिरोध. बड़ी बड़ी कम्पनियों का बैंकों का बड़ा बड़ा क़र्ज़ ले न वापस करने का मुहिम. दाल के ब्यवसाईयों का बिदेशों में दाल का दाम बढ़वा देना जिससे सरकार को नुक़सान हो और वे जमाख़ोरी से अनाप सनाप कमाते रहें. कंहा जायेगा देश? क्या भारत संसार की सबसे बड़ी शक्ति हो नहीं उभर पायेगा? क्या सच में भारत के फिर टुकड़े हो जायेंगे? मन यही कहता है यह नहीं होगा. समय रहते आम आदमी अपने ही बीच छिपे असली दुश्मनों को पहचान लेंगे, जो ब्यक्तिगत स्वार्थ के कारण यह सब करवा रहे हैं. और बिश्वास तब होता है जब समाचार मिलता है कि सुफी समारोह में मोदी को उपस्थित सुफी सम्प्रदाय के बिद्वानों ने ‘भारत माता की जय’ कह कर स्वागत किया….

36

१८.३.२०१६ हिन्दू धर्म का आज वही सबसे बड़ा संत, सबसे बडा राजनीतिक या समाजिक नेता होगा जो इसकी जाति प्रथा को मिटा देने का दु:साहस करने का बीड़ा उठाये और अपनी लोकप्रियता क़ायम रखने का विश्वास रखे. हम उदार मन के हिन्दू कोशिश तो करें. अगर व्यर्थ का जातिगत विद्वेष न मिटा भारत को कोई महान राष्ट्र का दर्जा नहीं देगा. हिन्दूओं को अपने भीतरी दुश्मनों का मन परिवर्तन करने की कोशिश करनी होगी…मनुस्मृति के मनु ने वैदिक काल के बाद एक कोशिश की समाज को उस समय के आवश्यकता के अनुसार चार वरणों में बाँटने की, पर बाद के कुछ अधिक दूरदर्शी ज्ञानी मुनियों ने ग़लती समझी और बिष्णु के दशावतार की धारणा का बिकास किया और बिभिन्न युगों में चारों वरणों में उनका अवतार दिखाया- परशुराम, राम, कृष्ण और फिर कल्कि……….सभी बरणों को बराबर बताने के लिये…चारों बरण ब्यक्ति के दैन्नदिनी कार्य और ब्यवहार पर आधारित थे. फिर बढ़ता गया समाज, ज़रूरतें और जीविका के ब्यवसाय. सहजता के लिये जातियाँ उसी आधार पर बनती बढ़ती गई. फिर कुछ लोगों ने उसे बडा छोटा बनाने का काम किया. ज़मीन के मालिकों, ब्यवसायियों ने, जाति के नेताओं ने निजी स्वार्थ के कारण भेद डाल किसी को श्रेय और हेय बनाया. देस आज़ाद हुआ. कुछ समाज नेताओं ने इसे मिटाने की कोशिश भी की, पर जड़ इतनी मज़बूत हो गई थी, वे या वैसे लोग आज तक सफल न हो पाये. पर आज जब देस दुनिया का शिरमौर बन सकता है हिन्दूओं को इन कुरीतियों को मिटाना ही होगा राष्ट्र हित में, जनहित में, आनेवाली पीढ़ी के हित में……

37

मेरी सोच में जनार्दन ख़ुश नसीब हैं कि पत्नी का अन्त निबाह दिये. उन्हें कभी इस बात की चिन्ता नहीं भोगना होगा कि उनके बाद पत्नी कैसे रहेंगी, कौन उनका उचित रूप से देख भाल करेगा. शायद यह अनर्थक चिन्ता पर हर कोई उम्र बढ़ने पर यह करता रहता है……चूँकि मेरे तीन लडकें ही हैं और तीनों अमरीका में अलग अलग जगह पर रहतें हैं…. मुझे भी कभी कभी यह चिन्ता सताने लगती है….. क्या इसके बारे में कुछ किया जा सकता है?

38

राहुल गांधी अगर शादी नहीं कर रहें हैं तो आप उसके लिये भी मोदी को ही ज़िम्मेवार बनायेंगे. यही देश है जंहा कोई ऐरा गैरा मोदी को क्रूक कह कर बहुत समझदार कहलाना चाहता है. पहले अपने तो कुछ बनें. कितनी हीन भावना से ग्रसित है यह देश और फिर दुनिया का सिरमौर बनना चाहता है, ……

39

आज होली है और हम अमरीका में. यहाँ होली सुविधा से मनाई जाती है छुट्टी वाले दिन की पहली रात को, या मन्दिर में. सभी अपने काम में ब्यस्त हैं. पर सबेरे सबेरे इच्छा हुई कि फगुआ सुनुं, और कुछ होरी…. आई-पैड और इन्टरनेट यू ट्यूब पर सभी कुछ है… आनन्द लिया…..सभी को होली की हार्दिक शुभकामना…. हाज़िर है…..

40 

मार्च २५, बृहस्पतिवार दोपहर से पता चल रहा है आनन्द के मेसेज से वे काहिरा (कैरो) पहुँच चुके हैं . आबु दाभी के एअरपोर्ट और शाम के समय कैरो के होटल से फ़ोटो भेजे हैं. आज नींद नहीं आई है एक फ़ोटो और आ गया है आनन्द का होटल से पिरामिड का. कुछ बड़ी पुरानी यादें आ रही है १९६६ की. मैं इंग्लैंड के Vauxall Motors में ३-४ महीना लगा लौटते समय लंदन, पेरिस, Frankfurt, बर्लिन, जिनेवा से कैरो आया था. कैरो कलकत्ता की तरह था. पिरामिडों को देखने मैं बस से गया था. शहर साधारण था, मुझे म्यूज़ियम बहुत प्रभावित किया था, टुटनखामेन की क़ब्र से पायी गयीं सोने की चीज़ें. एक और घटना आजतक याद है जो म्यूज़ियम के प्रवेश द्वार पर की है. एक पढ़े लिखे सज्जन ब्यक्ति का प्रश्न-“आप हिन्दू बीफ क्यों नहीं खाते?” मैं हतप्रभ रह गया था……..लगता है कैरो बहुत विकसित हो चुका है, आबादी का इलाक़ा पिरामिडों के पास तक पहुँच चुका है, पर स्फिंग्स की बात का ज़िक्र आनन्द नहीं किये हैं… मिलने पर ….पर पुरानी यादें क़रीब पचास साल पहले बहुत अच्छी लगतीं हैं….तब हम २७ साल के थे….

41

बिहार के गाँवों की बदनसीबी: मेरे गाँव के दक्षिण में एक बड़ी खुली जगह हुआ करती थी क़रीब १०-१५ एकड़. चार बड़े पेड़ थे चार जगह. हम बच्चे वहीं खेलते थे. फ़सल कटने के समय वहाँ गाँव के काफ़ी लोगों की खलिहानों होती थी, और महीनों रातें भी मनसायन हुआ करतीं थीं, शादी के दिनों में वहीं तम्बू भी गड़ते थे, और कभी कभार सभा का मंच भी सजता था, एक बार सहजानन्द सरस्वती की सभा हुई थी. जबसे ट्रैक्टर आये बैलों की ज़रूरत ख़त्म हो गई और फिर थेरेसर आये और वे खलिहानों की ज़रूरत को ही ख़त्म कर गये और साथ हीं बहुत सी खलिहानों के साथ जुड़ी जीवन पद्धति और परम्पराओं का भी अन्त हो गया. पर इस ज़मीन को लोकहित में ब्यवहार करने पर कोई पहल नहीं हुई न पंचायत से, न अन्य सरकारी महकों से. कुछ दिनों पहले सुना की पूर्व मुखिया किसी तरह पूरी ज़मीन को अपने नाम करा लिया है और एक मुक़दमे चल रहा है. कितनी सरकारी ज़मीन ऐसे ही हुआ करती थीं रास्ते के लिये, मवेशियों के चरागाह के लिये, धीरे धीरे उनको काट कर खेतों में मिला लिया गया या उन पर घर बना लिया गया. सरकार के बिभाग जान ही न पाये या जान कर भी चुप रहे . उन ज़मीनों पर पेड़ लगाये जा सकते थे, उद्यान बनाये जा सकते थे, खेलने का मैदान बन सकता था. नहरों के दोनों किनारे काफ़ी ज़मीन हुआ करती थी जहाँ ब्यवसायिक महत्व के बृक्ष लग सकते थे. पिछड़े वर्ग के ज़मीनहीन लोगों को इसे पेड़ लगाने को दे उनकी एक अतिरिक्त आय की ब्यवस्था की जा सकती पर कुछ नहीं हुआ. हर राज्य सरकार अपनी ज़मीन का सठीक ब्यौरा तो रख ही सकती है. अनिवार्य होना चाहिये सभी ज़मीन सम्बन्धी जानकारी का वेबसाइट पर होना. यह ज़मीन के ख़रीद-बिक्री में होती बेइमानी को भी ख़त्म कर सकता है और ग़रीबों का भला होगा…

http://timesofindia.indiatimes.com/india/Madras-high-court-seeks-details-of-lands-belonging-to-Tamil-Nadu-govt/articleshow/51696719.cms

42

मार्च २६, आनन्द का अबु दाभी : आनन्द आज अबु दाभी से कुछ फ़ोटो भेजे बहुत प्रभावित करनेवाले. तेल के पैसे इस क्षेत्र की समृद्धि के कारण हैं. आनन्द अपने कार ड्राइवर से बात किये. इन शानदार अट्टालिकाओं के किसी किनारे नेपाली ड्राइवर की तरह के असंख्य प्रवासी मज़दूरों के लिये दो कमरे के घरों को भी वहाँ की सरकार बनाई है. बडा मन होता है संसार भ्रमण का. उन्नत देशों के बृद्ध लोग दुनिया में सब जगह घूमते हैं हमारी उम्र में भी. पर अब शायद ही इन जगहों का जाना हो. यमुना को तकलीफ़ है शारीरिक और मैं कमज़ोर हूँ मन से. पर अबु दाभी की एक याद हम दोनों को है. हम १९८२ में लंदन से लौट रहे थे क़रीब दो महीने रह कर ब्रिटेन में. अबु दाभी पर हमारा विमान रूका था क़रीब दो घंटे के लिये. सभी यात्री एअरपोर्ट तक जाना चाहते थे, पर स्थानीय तत्कालीन सरकार की पाबन्दी के कारण यह सम्भव नहीं हुआ. हम विमान के दरवाज़े पर खड़े हुये निहारते हुये रह गये उन दो हथियारबन्द सैनिकों को जो सीढ़ियों के नीचे पहरे पर थे…….

43

गाँवों के बिलुप्त प्राय सिंचाई के प्राचीन तरीक़े: शेरशाह के शहर सासाराम जंहा से मैं हूँ बहूत सारे तालाब हैं. वे शहर को ‘पीने के पानी’ के लिये थे. चारों तरफ़ पक्के घाट बने हुये हैं. दादाजी के बताने के अनुसार शहर की औरतें, महरिनें, और आदमी भी वहाँ से रस्सी के सहारे गागर भरते थे. किसी को तालाब में प्रवेश की मनाही थी. हर गाँव में पोखर, तालाब थे. हमारे गाँव के पूरब में बडा पोखरा था, बरसात में पानी हमारे दरवाज़े तक आता था और हम बहूत ख़ुश होते थे, क्योंकि पानी में खेलने में मज़ा आता था. बग़ल के गाँव रामपुर के दक्षिण में एक ऐसा ही पोखरा था गढ़ के पास. यह आमतौर पर आदमीयों और पशुओं के नहाने या नहलवाने के काम आता था. पानी की कमी होने पर इससे ढेकुल से किनारे के खेतों की सिंचाई भी होती थी. मछलियाँ भी होतीं थीं. पर ये पोखरे किसी ख़ास आकार के नहीं होते थे और चारों तरफ़ से उंच्चे मेड से घिरे नहीं होते थे. शायद गाँव बसने के समय यहाँ से मिट्टी निकाली गई थी. बग़ल के गाँव पीपरी और समहुता में चारों तरफ़ से चौकोर उँचा चौड़ा मज़बूत मेड वाले तालाब हैं .गॉव के बाहर खेतों में पानी इकट्ठा करने और समय पर सिंचाई के लिये ताल, अहरा, कोनहर, आदि थे. साधारणत: ये बड़े भूभागों के ढलान अनुसार नीचे या कोने पर होते थे. उनका नाम परिचय भी उसी अनुसार है. बरसात में उनमें पानी जमा हो जाता था ऊँचे भाग से बह कर. यह पानी निचले खेतों की सिंचाई के काम आता था या नीचे जा पानी का प्राकृतिक स्तर बनाये रखता था. दुर्भाग्यवश, नासमझी या पीढ़ियों के बँटवारे की विबशता के कारण किसान इन जलाशयों को भर खेती की ज़मीन बढ़ाते रहे. सरकारें इन महत्वपूर्ण सिंचाई के जलाशयों को मिटने से रोकने के लिये कोई क़दम नहीं उठायीं. दूसरा कारण हुआ सरकारी नहरों का बनना सिंचाई के लिये. पूराने तरीक़े तकलीफ़देय थे. पर सिंचाई के लिये नहरों में पानी नदियों के बाँध से बने जलाशय में जमा पानी पर निर्भर है. फिर पानी को हर गाँव में पहुँचाने के लिये पहले के गाँवों की पानी की ज़रूरतों को पूरा करना ज़रूरी पड़ता है. और नहरें हर गाँव या वहाँ की हर ज़मीन तक तो नहीं जाती. काश, लोग और राजनीतिज्ञ पुराने जलाशयों को जो अभी भी हैं, बरबाद होने से रोक लेते. २००४ में श्री चिदम्बरम ने पहले बजट में देश के सभी जलाशयों का जीर्णोद्धार कराने का वायदा किया था जो लाखों में थे. शायद ही कुछ हुआ. अब हाल में मोदी जी ने पाँच लाख जलाशयों को बनाने की बात कही है. सिंचाई के लिये इन ताल, तलैइयों की आज भी ज़रूरत है और आधुनिक पम्पों से यह आसानी से सम्भव होगा. काश! नीतीश और उनकी तरह के अन्य मुख्य मंत्री गण इस ज़रूरत को समझते और इस दिशा में क़दम उठाते. 

44

सुनारों की तरफ़दारी: राहुल गांधी और कुछ जानते हैं कि नहीं, पर यह सच है कि उन्हें देश के लोगों के हित का कोई ध्यान नहीं है. उनकी पुरी मानसिक शक्ति सरकार के हर बढ़े क़दमों को रोकने में लगी हुई है. सुनारों की माँगों का समर्थन एक वैसी ही माँग है. सुनारों के ठगी के बारे में लोक प्रसिद्ध कहावत है कि वे अपने बाप को भी ठगने से बाज़ नहीं आते, उनके कमाने का तरीक़ा ही मिलावट है विशेषकर गाँवों, क़स्बों और छोटे शहरों में शत प्रतिसत. मैं भुक्तभोगियों हूँ, बहुत सारे दोस्तों से भी यही सुना हूँ. यहाँ तक कि बड़े शहरों में भी गहने की दूकान चलानेवाले अधिकांश मिलावट द्वारा ही अपनी आमदनी सुनिश्चित करते हैं. बताइये कितने सुनार हालमार्क (Hall Mark) के गहनों को देते हैं? कितने ख़रीदनेवालों को इसकी जानकारी है. हम दो लाख से ऊपर के गहने पर PAN क्यों नहीं देंगे? फिर यह एक प्रति शत टैक्स में बढ़ोतरी तो वे ग्राहक से ही वसूल करेंगे. दुनिया के शायद ही किसी देश में २२-२४ कैरट के गहने बिकते हैं. बचत के लिये ख़रीदने हैं तो सरकारी शुद्ध सिक्के ख़रीदिये…. राहुल जी कुछ तो समझों ….. आत्मघाती क़दम सरकार के नहीं तुम्हारे हैं….

45

स्वच्छ भारत-मेरे अनुभव, मेरे बिचार : अभी लगता है ‘स्वच्छ भारत’ केवल खुले में शौच तक सीमित रखा गया है और उसके लिये सरकार देश के हर परिवार के लिये घर घर में शौचालय बनवाने का पहल कर रही है. सार्वजनिक स्थानों में भी ब्यवस्था की जा रही है. समस्या गम्भीर है. केवल बिहार के २.१४ करोड़ परिवारों में क़रीब ५१ लाख परिवारों के लिये शौचालय की ब्यवस्था की जा सकी है. बिहार राज्य सरकार हर साल १.५-२ लाख के हिसाब से शौचालयों का निर्माण करा रही है जबकि सभी के लिये २०२० तक शौचालय की सुविधा हो जाने के लिये सरकार को हर साल ३० लाख शौचालय बनवाने होंगे और इसके लिये हर रोज़ ४,००० बनवाने की ज़रूरत है. प्रश्न केवल यह नहीं है कि क्या यह लक्ष्य सम्भव है सरकार द्वारा, बल्कि क्या यह अभियान खुले में शौच को रोक पायेगा. समस्या बहुत पुरानी है. महात्मा गांधी ने अपनी आत्म कथा में बिहार के गाँवों की अशिक्षा, ग़रीबी एवं गन्दगी का ज़िक्र किया है. गुजरात से एक स्वयंसेवी दल को भी बुलाया और एक चेष्टा की थी उस इलाक़े में स्वच्छता एवं शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने की, पर पिछले ८०-९० सालों में कुछ ज़्यादा परिवर्तन नहीं आया है बिहारी के गाँवों में क्योंकि बिहार के स्थानीय नेताओं और राजनीतिज्ञों ने इस पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया, और केवल भोट की राजनीति करते रहे. कोई ऐसा समाजसेवी भी पैदा नहीं हुआ जो इस दयनीय अवस्था को बदल दे. आज भी अगर शाम के अंधेरे के बाद या बड़े सबेरे किसी भी वस्ती से आप की गाड़ी निकलेगी तो आप उस खुले में शौच का लज्जाजनक दृश्य को देख सकते हैं. गाँव की महिलायें और बच्चियाँ होती हैं. गाड़ी की लाइट जलते ही उठ खडीं होती हैं. गाँव के किसी रास्ते से बाहर आने में नाक बन्द करना पड़ता है, अगर सम्भव होता तो ब्यक्ति आांख भी बन्द करना चाहता. बरसात में यह समस्या नज़दीक आती जाती है, और भयंकर हो जाती है. एक बहुत बड़े पैमाने पर सामाजिक जागरूकता लाने के लिये बहुमुखी प्रयास की ज़रूरत है. स्थानीय भाषा में टी.वी के सभी तरह के चैनलों , रेडियो, सिनेमाघरों, समाचार पत्रों, और अन्य तरीक़ों से इसकी ज़रूरत को हर ब्यक्ति तक उसके परिवर्तित होने तक प्यार से या डरा कर पहुँचाते रहना होगा. स्वच्छता देश की सबसे पहली प्राथमिकता है और इसमें कोई राजनीति नहीं सही जा सकती. हर गाँव, मुहल्ला, घर, पंचायत, छोटे बड़े शहर में एक लगातार प्रतियोगितात्मक माहौल बनना होगा, क्योंकि इससे कोई नुक़सान तो होना नहीं है और सफल होने पर शायद हम अपने जीते जी स्वर्ग का अनुभव ज़रूर कर लेंगे……..स्वच्छता, सुन्दरता को सत्य कर शिव को पा सकते हैं……सोचिये यह ज़िम्मेदारी हम देस के हर नागरिक तक कैसे पहुँचा सकते हैं…….शिक्षा, स्वास्थ्य , सम्पन्नता…… प्रयास किये जा रहें हैं, पर सफलता नगण्य है……बिना रूके चलती रहनी चाहिये सब तरीक़े से……जो भी मदद करेगा समाधान में स्वर्ग पायेगा, और जो हाथ नहीं बंटायेगा नर्क…..

http://timesofindia.indiatimes.com/india/400-cities-in-18-states-to-be-open-defecation-free-by-Dec/articleshow/51720997.cms

46
गाँव के एक ज़मीन रहित तथाकथित ऊँची जाति के और अनुसूचित जाति के ज़मीन हीन ब्यक्ति के लड़कों में क्या अन्तर करना चाहिये? मेरे अनुभव से आज दोनों की कोई सम्पन्नता की राह में कोई फ़र्क़ नहीं रह गया है. पर दोनों में अभी भी काफ़ी भी अति दरिद्र लोग हैं. पर साधारणत: यह जाति पर आधारित नहीं रह गया है. मिहनतकश अनुसूचित लोगों को परिश्रम कर ज़्यादा कमा लेने की सुविधा है, और कर रहे हैं. पर सवरण अभी मिहनतवाला काम करने से कतराते हैं. फिर जन्म की जाति के आधार पर संरक्षण क्यों चलते रहने देना चाहिये? यह संबैधानिक बिभेद बच्चों में दुखद भेदभाव बढ़ा रहा है. 

47

बाग़ों का सफ़ाया- बिहार के गाँवों की एक और क्षति: गाँव से जुड़ी बचपन की एक और याद है और वे हैं गाँव के बग़ीचे. अधिकांशत: आमों के पेड़ थे. मेरे गाँव में दो बड़े बग़ीचे थे- एक गाँव के उत्तर-पूरब में गाँव से सटा. बग़ल के गाँव रामपुर में छावनी थी. सबेरेशाम इसी बग़ीचे से हो जाते थे. हमारे कुल का यह बाग़ था किसी परिश्रमी ब्यक्ति की धरोहर . हमें बचपन में ही मालूम करा दिया गया था कि कौन पेड़ हमारे हैं. ऐसा ही एक बग़ीचा आमों का गाँव के उत्तर-पश्चिम में भी था पर गाँव से थोड़ी दूर और दूसरे मुहल्लेवालों का. पर धीरे धीरे पीढ़ियाँ आगे बढ़ीं,बँटवारे होते गये, हिस्से के पेड़ कम होते गये और परिवारों की रूचि भी. किसी ने नये बग़ीचे लगाने का प्रयास नहीं किया, मिहनत और लगन की ज़रूरत थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी कम होती गई…..फिर ज़मीन का ब्यवहार धान की खेती में होने लगी. बाग़ों के शौक़ीन न रहे. आम ख़रीद कर आने लगे चटनी , आचार के लिये खट्टे कच्चे और खाने के लिये पक्के स्वादिष्ट. पर वह तभी संम्भव था जब पैसे होते थे या दादी अनाज से ख़रीदती थीं…..जितने आसपास के गाँवों को जानता हूँ सभी में यही हुआ हमारे इलाक़े में. कारण यह था कि बाग़ों के ब्यवसायिक कारणों से नहीं लगाया गया सोच समझ. समय के साथ गाँव के लोगों की मानसिकता बदल गयी. हमारे इलाक़े में ब्यवसाय के लिये किसी ने न दुधारु पशु पालें, न सब्ज़ी की खेती की, न फलों के बाग़ लगाये, जबकि यह काफ़ी आमदनी देनेवाले ब्यवसाय हो सकते थे. हम गाँव वाले शहरी आधुनिकता के शिकार हो गये. यहाँ तक की गुड, खाँड़ के लिय गन्ने; तेल के लिये सरसों, तिसी; दाल के लिये मटर, चना या अरहर, सब फ़सलें बन्द हो गयीं और रह गये दो केवल धान और गेहूँ .उन्ही पर सब कुछ आश्रित ……जब देश से दूर रहता हूँ तो यही सब सोचता, लिखता रहता हूँ स्वात: सुखाय. काश! नीतीश की नई सरकार इन बातों को समझे और कुछ करे, पर उम्मीद कम होती जा रही है, वे बिहार की गद्दी एक अनुभव हीन को फिर सौंप राष्ट्रीय राजनीति की चकाचौंध से भ्रमित हैं…..

फिर कभी…..

This entry was posted in Uncategorized. Bookmark the permalink.

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s