मुझे बहुत सारी गाँव की शादियों की याद है ।अब जब सालों बाद किसी गाँव की शादी में भाग लेना पड़ता है, तब पुराने दिनों की शादियों की याद आने लगती है ।बहुत बदलाव आ गया है पिछले बर्षों में ।गांवों के लोग भी शादियां शहर में ही करना चाहते हैं ।पिछले दिनों मैंने बिहार में दो शादियों में भाग लिया ।दोनों बरपक्ष तिलक समारोह अपने गावों में करवाये ।
लड़की पक्ष तिलक के लिये पचास साढ घर एवं गांव के नज़दीकी लोगों को वातानुकुलित बस एवं कारों से ले ३००-४०० की.मी. की यात्रा तय कर लड़के के गांव गये । नाश्ता, तिलक चढ़ा, फिर खाना खाने के बाद बिदाइ और फिर बाहनों में बैठ वापस आ गये ।
लड़केवाले इसी तरह बाहनों से शहर के बिबाह- स्थल के नज़दीक निर्धारित हॉटल पहुंचते हैं शाम या रात किसी समय। फिर सज सज़ा, बाजा वालों,रौशनी वालों, आतीशबाजी वालों और दूल्हे को फ़ुलों से सजी गाड़ी में बैठा बिबाह स्थल की तरफ बढ़ते हैं ।बच्चे, नवयुवक और कभी कभी कुछ लड़कियां भी ,बैंड के ताल पर नाचतीं दिखतीं हैं ।जयमाला के लिये सुसज्जित मंच पर दूल्हा दुलहिन एक दूसरे को माला पहनाते हैं ।यह प्रथा फिल्मों से होते हुए शहरों से गांवों तक आ पहुंची है ।पर शादियां अब भी घोर गरमी में ही ज्यादातर होती है ।
हम बचपन में कुछ साल गांव में रहे । उन दिनों कृषक परिवार में बैल रहते थे खेती के लिये, पकी सड़के बहुत कम थीं, बैल गाड़ी आम सवारी थी सामान एवं आदमी के लिये, काफी यात्राएं पैदल ही करना पड़ता था । कुछ थोड़े शौक़ीन परिवार में घोड़े रखने का रिवाज था ।यहाँ तक कि एक दो लोग किसी किसी गांव में हाथी भी रखते थे ।शादियों में बैल गाड़ी में बारात जाती थी । ज्यादे दूर की बारात में दोपहर का बिश्राम स्थल भी रहता था, जंहा खाने की ब्यवस्था होती थी ।लिट्टी चोखा ज़्यादा लोकप्रिय था । बारात द्वारे लगाने के पहले किसे इनारे के पास रुक सभी तैयार हो लेते थे । लड़की पक्ष वाले समूह में बारात की आगवानी करने के लिये आगे बढ़ते । इसी समय घोड़े वाले दोनों पक्षों से घुड़सवारी की कला दिखाते थे । द्वारपूजा के समय हाथी दरवाजे तक आती थी और उसकी पूजा शुभ मानी जाती थी ।
तिलक राशि और लड़के पक्ष के स्तर के अनुसार शामियाना लगता था गांव के बाहर खुली जगह में या साफ बराबर खेत में जंहा पानी की भी सुबिधा होती थी ।नाश्ते के बाद बाराती सज धज कर शामियाने में बैठ जाते, आज्ञा मांगने आते लड़की पक्ष वाले, मंच पर नाच या भाँडों का दल मनोरंजन करता । उधर लड़की के आंंगन में डाल चढ़ाने, और शादी आदि का कार्यक्रम चलता रहता, फिर रात का भोज करते बाराती गांव की महिलाओंं की मधुर गाली के बीच ।
दूर की बारात एक दिन ‘मरजाद’ रहती थी ।लड़कीवाले सभी तरह से बारातियों का आवभगत करते थे ।तीसरे दिन बहू को ले या द्विरागमन के लिये छोड़ बारात लौट जाती थी ।लड़के और लड़की वालों में झगड़ा और लड़ाई भी हो जाती थी ।तिलक तो आज भी ख़ुलकर लोग ले दे रहे हैं, पर बहुत सी बातें सावधानी से की जाती है ।अब लड़की की मुंह दिखाई नहीं होती, रिसेप्शन होता है, उसी समय लोग गिफ्ट दे देते हैं ।लड़कियां पहले की तरह बिदा होते या घर के किसी के मिलने आने पर रोती भी नहीं, और न इसके लिये उसकी शिकायत होती है ।
समय के साथ बहुत बदलाव आता जा रहा है, पर पुरानी परम्परा का कहीं लेखा जोखा एैतिहासिक धरोहर की तरह अच्छा ही रहेगा ।