इंटर और इंजीनियरिंग के प्रवेश की परीक्षाओं के बाद मैं गांव चला गया था, खड़गपुर का साक्षात्कार के बुलावे का पत्र बिरलापुर और पिपरा में घूम रहा था ।मैं दादाजी के साथ एक अंदाज पर ही बिना उस पत्र के ही खड़गपुर गया, अपनी समस्या बताइ, लिस्ट में मेरा नाम था, साक्षात्कार में प्रश्न साधारण ही थे । प्रो० राजेंद्र मिस्रा भी थे, पूछा ‘खेतिहर हो, कृषि इंजीनियरीगं ले लो’ ।मैंने मेकानिकल इंजीनियरिंग की इच्छा जाहिर की, शाम तक पता चल गया कि मैं ‘लोहा लकड़’ का इंजीनियर बन रहा हूँ, और दादाजी बहुत खुश थे, उनके चेहरे पर एक गर्व भरा भाव था । इसी समय मेरी जाना-पहचान ब्रज भूषन पांडे से हुइ थीं, वे आरा के पास के एक गांव के थे, और उनके पिताजी भी प्राध्यापक थे उस समय सासाराम के टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल में । वह दोस्ती आजतक चल रही है । पांडेजी पिछले महीने तक IIT, Kharagpur में ही थे ।’पिता भी अध्यापक बेटा भी’, ब्रज ही बताये थे अपने गांववालों का कहना ।
सबसे पहली याद एक परीक्षा पास कर एक छात्रबृति पाने की आती है। दूसरी याद खाने की तकलीफ की है जिसका ज़िक्र कर चुका हूँ पहले । मैं आजाद हाल में था । वार्डेन मुथाना थे, काफी सख्त पर प्यारा सा ब्यक्तित्व था उनका, पर हिन्दी में बोलने संकोच करते थे । रैगिंग हुइ थी, पर कुछ खास नहीं ।यहीं कैलाश नारायणे सिंह से दोस्ती हुइ, जो व्हुत गहरी हो गयी और आजतक चल रही है । सपरिवार रुद्रपुर के पास किछा में हैं ।कैलाश के चलते प्रो० जसवंत सिंह से भी परिचय हुआ ।वे हिंद मोटर्स में भी आये । अभी भी उनकी मां का चेहरा याद आता है और उनकी खातिरदारी भी, गर्म दूध के गलास की ।सिंह अपने वासस्थान में भैंस भी रखते थे ।उनकी मां का चेहरा मुझे हरदम मेरी अपनी परदादियों की याद दिलाता था ।
रैगिंग से बचने के लिये कभी कभी राजेंद्र प्रसाद हाल चला जाता था, वहाँ बिरलापूर विद्यालय के मेरे एक सीनियर रहते थे और मेरा बहुत ख़्याल रखते थे । प्रथम बर्ष के जिस सेक्सन में था उसमें कुछ अन्यविभागों के छात्र भी थे ।वहीं श्रीकांत से परिचय हुआ, वह माइनिंग में था और उसके मामा भी सासाराम में वकील थे ।
आजाद हाल में मैं केवल पहले साल रहा, इस बीच वहाँ राष्ट्रीय अध्यापक प्रसिद्ध वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस दो बार और भाषण दिये, बातें भी की ।हॉल में बराबर कुछ न कुछ समारोह होते रहते थे, कितनी बिबिध प्रतिभा थी देश के बिभिन्न क्षेत्र से आये लड़कों में ।मुझमें एेसा कुछ नहीं था ।आजाद हॉल से कॉलेज काफी दूर था, करीब़ सभी सायकिल रखते थे , मेरे दादाजी ने बिरलापुर से घर की हिंद सायकिल भिजवा दी थी । जहां तक मुझे याद है दाम शायद सौ रुपये के क़रीब था । हां, उन दिनों देश की सबसे अच्छी सायकिल ‘सेन रैले’ थी जो बंगाल के आसनसोल में बनती थी ।
पहले साल में इंजीनियरिंग का शायद ही कोइ बिषय पढ़ाया गया । हां, physics के अध्यापक गोखले के open book परीक्षा की याद अभी तक है ।परीक्षा कक्ष में जितनी मर्जी हो किताबों और नोट्स ले जाने की छूट थी । जिनके पास जितना उपलब्ध था, ले गये बिशेषकर जो B.Sc, M.Sc कर आये थे । पर कुछ काम नहीं आया ।सभी को शिकायत थी प्रश्न पत्र के दुरुह होने का । परीक्षा के बाद कक्षा में डा० गोखले आये ।बिना कुछ कहे प्रश्नों का हल बोर्ड पर लिखने लगे । करीब दस मिनट लगा होगा । और उन्होने पूछा, ‘क्या सच में उतर कठिन थे?’ अब सबके शरमाने की बारी थी ।बाद में पता चला वे MIT, USA में चले गये थे ।पहला साल अच्छा नही रहा, छात्र बृति जाती रही । काफी दुख हुआ , हां तबतक नानाजी खर्चा देने लगे थे । IIT में मेरे समय न कोइ किताब पाठ्य पुस्तक की तरह होती थी, न लिखित में विषय की जानकारी । अध्यापक खुद विषय के पाठ्य वस्तु का चुनाव करते थे, और पढ़ाते थे । IIT पुस्तकालय बहुत समृद्ध था, पर बहुत कोशिश के बावजूद शिक्षक के पढाइ वस्तु पर कुछ ज़्यादा नहीं मिलता था ।गनीमत इतना ही था कि परीक्षा के प्रश्न पत्र भी वे ही शिक्षक सेट करते थे और जांच भी उन्ही के द्वारा होती थी, अतः शिक्षकों को प्रसन्न रखना जरूरी पड़ता था ।मुझे यह तरीका कभी नहीं भाया । दूसरे साल में मैं राजेंद्र प्रसाद हाल में चला आया और तीन साल यहीं काटे । प्रो० राजेंद्र मिश्र वार्डेन थे । प्रोडक्सन इंजीनियरिंग के हेड थे और काफी सम्मानित थे कैम्पस में । उन्होने मेकानिकल इंजीनियरिंग का हेड बनना इस लिये मना कर दिया क्योंकि उसी साल प्रो० बेलगाँवकर बिभाग में आये थे, वे प्रो० मिश्र के आध्यापक रह चुके थे BHU के इंजीनियरिंग कॉलेज में ।यह था उस जमाने का सम्मान देने का तरीका ।
दादाजी बराबर आते रहते थे, यद्यपि उनकी तकलीफ का ख़्याल कर मैं बराबर उन्हे मना करता था । रात में लौटते वक्त उन्हे बहुत बार प्लेटफार्म के बेंच पर बिताना पड़ता था उलुबेरिया में क्योंकि हुगली पार कर बिरलापुर जाना पड़ता था और उतनी रात को नाव वाले नहीं मिलते थे ।
अग्गे फिर—-