कुछ यादें, कुछ सपने-२

पढ़ाई के लिये दूसरी बार बिरलापुर गया शायद १९४८ में । दादाजी के अध्यापक होने के कारण चौथी कक्षा में बैठने की इजाजत मिल गई ।उसी समय कुछ महीने बाद स्कूल का सालाना पुरष्कार बितरण समारोह हो रहा था । दादाजी एक एक कर लड़कों को बुलाते और उनका पुरष्कार श्री महाबीर प्रसाद, जो सहायक जेनेरल मैनेजर थे, के हाथों में देते जा रहे थे लड़कों को देने के लिये । उन दिनों मैंं एक पल के लिये भी दादाजी को छोड़ता नहीं था । सभी यह जानते थे और दादाजी का लिहाज कर कुछ कहते नहीं थे । मैं जिद्द किये जा रहा था कि वे एक पुरष्कार मुझे भी दिला दें । कैसे मिलता मुझे, नहीं मिला । शायद वहीं  से ललक जागी, पढाइ में अच्छा करने की । उस साल तो मैं वापस लौट आया था गाँव, पर जब १९५० में कक्षा ६ से पढ़ाइ प्रारंभ की तो हर साल प्रथम होता रहा और पुरष्कार मिलता रहा जबतक कॉलेज नहीं गया ।
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दूसरी याद कक्षा ७ या ८ की है ।पहली बार स्कूल में दो महिला आध्यापक आइं ।एक हमें इतिहास पढ़ातीं थीं ।बिरलापुर विद्यालय अपने में अनूठा था- बंगा।ली में शिक्षक पढ़ाते थे, क्योंकि अधिकाँश लड़के बंगाली थे बिरला जुट मिल की फ़ैक्टरियों में काम करनेवालों के, चीफ़ इंजीनियर से लेकर सामान्य मजदूरों के । शिक्षक अधिकाँश बंगाली ही थे । हमारे समय में तो केवल श्रीवास्तव जी हिन्दी भाषी थे और हिन्दी पढ़ाते थे, पर सहायक प्राध्यापक भी थे । हां, प्रश्न पत्र जरूर अंग्रेजी में ही होते थे। और हम हिन्दी माध्यम वाले हिंदी में उत्तर लिखते थे ।इतिहास की शिक्षिका हिंदी पढ़ना नहीं जानती थीं । मेरी कक्षा के हिंदी में लिखने वाले -रुदल एवं रामबली उनकी इस कमजोरी का फ़ायदा लिये। पन्ने के बाद पन्ने भरते गये, जबतक आखिरी घंटी नहीं बजी । शिक्षिका ने अपनी कमजोरी को जाहिर न करने के लिये किसी की सहायता भी नहीं लीं, पन्ने गिन   आकलन कर लिया । रुदल और रामबली को सबसे ज़्यादा अंक मिले ।दादाजी ने इस बात को श्रीवास्तव जी से कहा। उत्सुकता के कारण श्रीवास्तव जी उनकी कापियों को देखे । हैरान हुए, अनाप सनाप से भरे उत्तरों को पढ़ ।उदाहरण के लिये- ” बहमनी राज्य में बड़े मोटे मोटे पेड़ थे, नदियों में पानी भरा रहता था ।—-:” अगली सालाना परीक्षा में जाँचने का काम हिंदी के जानकार शिक्षक को दे दिया गया ।दोनों फेल हो गये और स्कूल भी छोड़ दिये । मुझे  बहुत दुख हुआ । अगले साल अपनी कक्षा में मैं अकेला हिन्दी में लिखने वाला रह गया ।श्रीवास्तव जी हिन्दी पढ़ाते थे, और मैं अकेला पढ़ने वाला होता था कक्षा में ।
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श्री बिमल कुमार सर्बज्ञ उस समय प्राध्यापक थे, अंग्रेजी की रैपीड रीडर कक्षा ७ की उनकी लिखी थी, श्रीवास्तव जी ने भी बच्चों के लिये कुछ हिन्दी की पुस्तकें लिखी थी । मुझे लिखने की प्रेरणा शायद वहीं से मिली । कक्षा में सर्वोत्तम होते रहने के कारण काफी प्रतिष्टा भी मिला । कबिता पाठ, लेख, नाटक में भाग लेता रहा दादा जी के प्रोत्साहन के चलते । बिरलापुर छोटी जगह थी, सभी पहचानते थे और प्यार भी करते थे ।मैंने फोटो आत्म कथा ‘Over the Years’ में जो मेरे website http://www.drishtikona.com पर है, काफी घटनाओं का ज़िक्र किया है बिशेष कर शिक्षकों के बारे में ।उसमें एक घटना  एक ड्रामा ‘मेवाड़ पतन’ के सन्दर्भ में है, जिसमें मैंने अजय सिंह की भूमिका निभाइ थी ।दूसरी घटना कक्षा १० की है जिसमें क्लास टीचर मेरे साथ असामान्य बचकानी बेइमानी किये थे।
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दादाजी की कमजोरी मैं था और मेरी कमजोरी दादा जी । रात को उनके साथ ही सोता था एक हाथ उन पर रखे हुए। मां से अलग रहते हुए उनकी कमी दादाजी के कारण कभी महसूस नहीं हुइ ।छोटी कक्षाओं में उन्हे ट्यूशन जाने से बाहर के दरवाजे पर ताला लगा रोक देता । ‘पहले मेरे सवालों का हल निकलवाइये फिर जाइयेगा’। हमारा अत्याचार हंसते हुए सहते रहते, शायद ही कभी गुस्सा हुए होंगें । खेलने में मेरी कभी कोइ रुचि नहीं थी । स्कूल के बाद समय काटने की दो जगह थी बिरलापुर में- शाम को मैं मिल द्वारा बनाइ हुगली नदी की जेटी पर बैठ आते जाते जहाज़ों को देखा करता था ।कितना समय निकल जाता, पता ही नहीं चलता था। दूसरी जगह बिरलापुर की लाइब्रेरी थी , जहां हिन्दी की किताबों का बहुत अच्छा संग्रह था । उन दिनों खूब पढ़ा सब तरह की किताबें, बाद में न उतना समय मिला, न वह जोश रहा ।
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उन्ही दिनों स्कूल में चार हिन्दी शिक्षक आये ।वे मेरा कोइ क्लास तो नहीं लिये, पर काफी नजदीक रहे । सहोदर पांडेय बहुत अच्छी धून में कबिता पाठ करते थे, उन्ही से पहली बार बच्चन जी की मधुशाला सुनी ।दिनेश मिश्रा कबिता करते थे अच्छी, छपतीं भी थीं । मैं दोनों से काफी प्रभावित हुआ, कबिता के नजदीक आया और मन बहलाने के लिये कुछ लिखा भी ।सपने देखने की आदत लगी ।

स्कूल में सह शिक्षा थी, लड़कियां सभी बंगाली । हां, ऊपर और काफी नीचे की कक्षाओं में जरूर कुछ हिन्दीभाषी पढ़ती थीं, और ‘राय जी का हाथी’ कहा चिढ़ाती थीं । 
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स्कूल फ़ाइनल की परीक्षा मार्च १९५५ में होनी थी । टेस्ट देने के बाद पाठ्य पुस्तकों को उलटने की भी इच्छा नहीं हो रही थी ।शायद ही लोगों को विश्वास हो आज, मैं पूरे जनवरी  श्याम सुंदर दास, राम चंद्र शुक्ल और काफी जाने-माने लेखकों की साहित्यिक किताबें पढ़ता रहा था । आज भी समझ नहीं आता ऐसा क्यों करता था। वे पुस्तके काफी कठिन  हिन्दी में थीं और बिषय समझ के बाहर ।पर बहुत सी बातें याद रहीं, और मुझे मेरी सनक की हानि का अहशाश नहीं हुआ ,क्योंकि इसके बावजूद भी अपने सेंटर में सर्बोपर रहा था ।

घर में दादी मेरी फरमाइसों को पूरा करती थी। आजतक याद है मुझे मेरी मनशोखी । वह समय बहुत कष्ट का था ।देश में अनाज की कमी थी, बिदेश से गेहूं, चावल आता था । और मैं था कि न लाल आटा खाता था, न मोटा चावल, न आलू की सब्जी ।कभी कभी दादी के कहने पर चार पांच आना ले बाजार भी जाता था सब्जी लाने, उन दिनों चीजें इतनी सस्ती मिलतीं थीं । दादाजी भी कभी कभी बाजार महीने भर का घर का सामान लाने के लिये ले जाते और मुझे रसगुल्ला खिलाते ।मैं रात होते ही बहुत जल्दी सो जाता था। फिर रात के किसी समय जाग खाना माँगता ।सोती दादी उठतीं, दूध रोटी देतीं । मैं खाता और पढ़ने बैठ जाता । इतने सबेरे जगने और पढ़ने की आदत आज भी है । कितना प्यार मिला दादा-दादी से, पर मैं तो कुछ खास उनके लिये नहीं कर पाया । 
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याद आने पर फिर 

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