प्रभात पाण्डेय की लम्बी कविता ‘उमराव जान’

मैं कविता समालोचक नहीं हूँ, न ही साहित्य का मर्मज्ञ | पर बचपन से कविता में रुचि है, कविता पढ़ना अच्छा लगता है| शायद यह कविता प्रेम विद्यालय में प्रार्थना से प्रारम्भ हुआ, चौक-चंदा गाने में व्यवहृत हुआ, और अंत्याक्षरी से समृद्ध बना| बिरलापुर के स्कूली दिनों में ही भारत भारती, प्रिय प्रवास, साकेत, रश्मि रथी, कामायनी और बहुत सारी कविता पुस्तकों को पढ़ा| कितना समझा मालूम नहीं, पर पढ़ना अच्छा लगता था | अकेले में जोर-जोर से भी पढ़ता था और दादी को भी सुनाता था, भले हीं उन्हें कुछ ना समझ आता हो| कभी कभी तो वे झल्ला भी उठती थीं|

प्रेसीडेंसी कालेज और आई. आई. टी., खडगपुर में तो किताबें नहीं मिलीं, पर साप्ताहिक धर्मयुग और अन्य पत्रिकाओं के माध्यम से कविता का साथ रहा, पढ़ता रहा और कविता प्रेम बना रहा| हिंद मोटर में काम करते तो अपने ही खरीदना था| ख़रीदा और पढ़ा भी मनबहलाव के लिए जब तक यमुना नहीं आईं थीं | दिनकर की ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘उर्वशी’ बहुत भाती रही, बच्चन की ‘मधुशाला’, ‘मिलनयामिनी’ और ‘नीरज की पाती’ को तो यमुना के आने पर समय समय पर उनको भी सुनाता रहा|

एक महाकबि तो हरदम ही साथ रहे| तुलसीकृत रामचरितमानस का पता नहीं कब मासापरायण प्रारम्भ किया था, शायद तीस साल या उससे भी पहले, और आज भी चल रहा है| गाँव में एक रामायण यज्ञ कर इसकी पूर्णाहूति कराना चाहता हूँ| अब सत्तर पार करने के बाद यही सहारा है और कुछ समय भी कट जाता है| शायद मुक्ति भी मिल जाये| और कबिताई में तुलसी बाबा का कहाँ मुकाबला|

पर इसी बीच अपने हीं स्वजन प्रभात पाण्डेय की लम्बी कविता पुस्तक ‘उमराव जान’ के बारे में सुना| फिर उसे प्रकाशक से मंगाया और तबसे पढ़ता रहता हूँ खाली समय में , क्योंकि अच्छी लगती है|

तुम्हारी कब्र पर जाकर
मैं उदास नहीं हुआ
खुश भी नहीं |

चुपचाप देखता रहा
नहर का पानी
जिसका बहाव रूका-रूका
और
झुका-झुका हरसिंगार
तुम्हारे सिरहाने|
……
तनिक सच-सच बतलाना तो उमराव जान
क्या तुम्हें प्यास नहीं लगा करती इन दिनों |

और अच्छा लगा पाण्डेय जी द्वारा उमराव जान के साथ सीता और अम्बपाली की ब्यथा का समावेश, शायद कुछ इसका विरोध भी करें| पर कविता की दुनिया में संकरीं गलियों नहीं होतीं |

इसी लक्ष्मण टीले पर
रूका था लक्ष्मण का रथ
झंझावातों के बीच..

गंगा का फूट-फूट कर रोना
लहरों का टूट-टूट कर बिखरना
बिलखना बूँद-बूँद घटाओं का
बिलखना पेड़-पौधों-लताओं का
क्या धरती – क्या आकाश
व्याकुल-विह्वल बाहुपाश
सीता की खातिर
सब उदास
सब उदास

और अब अम्बपाली की छटा –

लहराता वैशाली का सभागार
लटक-लटक रंग-रंग की पताकाएं
मस्त-मगन होकर लहराएँ
लहराएँ पुत्र बलपतियों के
लहराएँ पुत्र धनपतियों के
लहराएँ वैशाली का जनपद
अम्बपाली को नगरबधू का पद |

….
तुमने देखा तो उमराव जान
हतप्रभ सब के सब
अम्बपाली ने जब
नगरबधू होना तो स्वीकारा
पर वज्जीसंघ के रिवाज को सरेआम धिक्कारा |
उसके अंग-अंग कम्पन
रूप-यौवन पर यह कैसा बंधन
कैसा गणराज्य
कैसी सरकार
कहलाये जो नगरवधू
वहीँ बीच बाजार |

और फिर

तनिक करीब जब हुआ तुम्हारी कब्र के
बांध टूट से गए तमाम सब्र के
देखा वहां तो
महज पत्थरों का था हुजूम
चुपचाप उनके नीचे दबी पड़ी थी तुम
जिस्म दाहिना तुम्हारा
उस पर से वो सड़क
या खुदा!
दिल तुम्हारा कभी रहा था धड़क |

पूछा तो
कुछ न बोला
सिरहाने का हरसिंगार
शाखों से टपका दिए उसने
फूल दो-चार ।

या खुदा, जाने क्यों तुम कुछ को क्यों इतना दर्द देते हो । पता नहीं उमराव जान कैसे सही होगी सब| पर उसकी व्यथा पाण्डेय जी की जबानी कितनी दिलों को दुखायेगी, रुलाएगी और तुम फिर भी वैसे ही करते जावोगे उमराव जानों के साथ | और हम कुछ न कुछ बहाना बनाके अपनी बिद्व्ता बघारते हुए तुम्हें बचाते रहेंगें|

मुझे कविता पाठ का पुराना शौक है और कबिताई का भी| इसका प्रारम्भ स्कूल में हुआ, प्रतियोगिता के द्वारा| कभी कभी आजकल भी कुछ लिखता हूँ स्वांत:सुखाय, क्योंकि लिख कर आनंद पाता हूँ | शायद मेरे संस्कृत शिक्षक भट्टाचार्य जी का मुझे विज्ञान धारा में न जाने की सलाह कहीं ठीक थी | जहां एक तरफ इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट के विषयों पर अपने अनुभवों को लिखता रहा, पर कभी हिंदी में कुछ छपाने का प्रयास नहीं किया| काव्यप्रेम काव्य-पुस्तकों को खरीदने और पढ़ने तक सीमित रहा| मानसिक रूप से थकने के बाद अकेले में या पत्नी के साथ उसका आनंद ले पाता हूँ यही क्या कम है|

पाण्डेय जी की कविता में उर्दू शब्दों की बहुतायत है पर पढ़ने में बहुत आनंद आता है | बड़ा नाजुक और भावुक व्यक्तित्व भी है उमराव जान का|

उमीद है पांडेयजी की कबिता यात्रा चलती रहेगी| भगवान उन्हें लम्बी उम्र दें, यश दें|

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