है अग्नितीर्थ सागर में
यह सोच था मन हरसाया
दर्शन की आश लिए फिर
मैं जर्जर तन से आया.
यह एक अरब का भारत
अपने पापों से
तेरे जल को
काला कर देता
और पापमुक्ति की शक्ति
पर प्रश्नचिन्ह उठ जाता
फिर तट पर खड़े अकेला
एक स्वप्नलोक पा जाता
वह रूप तुम्हारा मनहर
अनंत लोक तक फैला
मन को पुलकित कर जाता
मेरी आँखों के आगे
फिर दृश्य बहूत से आते
गर रामायण सच है
फिर राम यहीं थे आये
और आकर मिले बिभीषण
हे अग्नितीर्थ,
उस दिन से कितने अरबों
को तुमने
पापों से मुक्त किया फिर
तेरे तट को कलुषित कर
क्यों लोग चले हैं जाते.
तेरे जल में डुबकी को
था मेरा मन घबराया
पर आँख बंद कर हमने
फिर पॉँच बार कर डाला.