हर रोज सबेरा हंसता है
और शाम सदा मुस्काती है
जीवन तट पर अब खड़े हुए
कुछ मधुर याद आ जाती हैं
परदादी का गा गाकर
मुझे खिलाना
कभी बुलाना चंदा मामा.
ननिहाल की उस महरी का
बार बार सभलायक कहना.
फिर दादा की पीठ सवारी
फिर उनकी बांहों पर सोना.
फिर आते कुछ दृश्य मधुरत्तम
बिद्यालय के गलियारे में
एक किसी के दिख जाने की
आशा करना और दिख जाना
कितनी कोमल आकाक्षाएं थी
कितने बालसुलभ सपने थे.
जब कोई पास न होता है
बर्षों पहले की यादों में
अच्छा लगता है खो जाना
फिर कुछ यादें भी ऐसी हैं
जो शाम सबेरे आ आकर
जीते जाने को कहतीं है.